रीवा और साक्षी की दोस्ती कॉलेज की दहलीज़ पर पनपी थी। पहली ही मुलाक़ात में दोनों के बीच ऐसा जुड़ाव हुआ कि बाकी लड़कियाँ उन्हें अक्सर ‘जुड़वाँ’ कहकर चिढ़ातीं। चाहे कैंटीन में बैठकर कॉफी पीना हो या लाइब्रेरी में घंटों किताबों के बीच खो जाना—दोनों हर जगह साथ दिखाई देतीं।
रीवा मेहनती, शांत और गहराई से सोचने वाली थी। वहीं साक्षी महत्वाकांक्षी, चंचल और ध्यान का केंद्र बनने की आदी थी। दोनों एक-दूसरे को संतुलित करती थीं—रीवा की स्थिरता और साक्षी की चमक। यही संतुलन उनकी दोस्ती की खूबसूरती थी।
साक्षी का बड़ा भाई उसी कॉलेज में प्रोफेसर था। जरूरत पड़ने पर रीवा उनकी मदद भी ले लेती थी।
कॉलेज का आख़िरी साल शुरू ही हुआ था। रीवा ने महीनों की मेहनत से एक रिसर्च पेपर तैयार किया था—”सस्टेनेबल एनर्जी मॉडल्स इन अर्बन इंडिया”। उसने लाइब्रेरी में अनेकों किताबें खंगाली, लैब में अनगिनत रातें बिताईं, इंटरनेट से डेटा इकट्ठा किया और कई सर्वे किए। रिसर्च पेपर के हर ग्राफ, हर निष्कर्ष में उसकी मेहनत झलक रही थी।
वह इस साल कम से कम दो रिसर्च पेपर लिखना चाहती थी। इस पेपर से उसे बहुत उम्मीदें थीं।
रीवा ने अपना ड्राफ्ट साक्षी को दिखाया।
“देखो न, कैसा लग रहा मेरा रिसर्च पेपर?” उसने आँखों में चमक भरकर पूछा।
“भई, यह तो मेरा डिपार्टमेंट नहीं है, चलो भैया से राय ले लेते हैं,” साक्षी ने कहा।
साक्षी के भाई ने पेपर पलटा और बोले— “वाह! कमाल है रीवा। तुम तो सच में जीनियस हो।”
रीवा ने धन्यवाद बोलते हुए कहा— “बस, आपका फीडबैक चाहिए था। वैसे तो बहुत सारे जर्नल हैं, आप ही बताएं कि इसे किस जर्नल में प्रकाशित करने भेजा जाए?”
वे बोले, “पेपर वाकई शानदार है। ऐसे रिसर्च पेपर तो एक अच्छी जॉब की गारंटी भी हैं। तुम मुझे मेल सेंड कर दो, मैं इसे आगे फॉरवर्ड कर दूंगा।”
रीवा जानती थी कि उसकी मेहनत, उसके सपने और उसका भरोसा—सब सुरक्षित हाथों में हैं।
काफी दिनों बीत जाने के बावजूद, कोई कन्फर्मेशन न आने पर जब रीवा ने साक्षी से जानकारी चाही, तो उसने कहा कि शायद पेपर सेलेक्ट न हुआ हो। कोई बात नहीं, तुम किसी दूसरे रिसर्च पेपर पर काम शुरू कर दो।”
रीवा निराश हुई, लेकिन उसने अपने उसी रिसर्च पेपर में सुधार करके उसे एक जाने-माने जर्नल में भेजा। पर ईमेल से जो जवाब आया, उससे उसके होश उड़ गए—उसका पेपर साक्षी के नाम से प्रकाशित हो चुका था और उसी पेपर को प्रेजेंट कर बेस्ट पेपर का अवार्ड भी जीत चुकी थी।
अब शोध पत्र चोरी (plagiarism) की वजह से रीवा खुद अपने पेपर को प्रकाशित नहीं कर सकती थी। उसके लिए यह विश्वासघात सहना बेहद मुश्किल था। वह पूरी रात अपने कमरे में करवटें बदलती रही। क्या यह सिर्फ धोखा था?
अगले दिन उसने गुस्से से साक्षी से पूछा—
“साक्षी, मेरा रिसर्च पेपर… मेरा काम, मेरी मेहनत… तुमने कैसे…” इतना कहते ही वह रो पड़ी।
साक्षी ने बीच में ही बात काट दी—”अरे यार, ज़िंदगी एक दौड़ है। मैं भी इस दौड़ में जीतना चाहती हूँ। तुम तो दुबारा लिख लोगी, पर मैं ऐसा पेपर पूरी ज़िंदगी में न लिख पाती । चल छोड़ यार, एक पेपर ही तो है।”
रीवा गुस्से से बोली — “एक पेपर? महीनों की मेहनत थी मेरी। खैर, ठीक है साक्षी, आज तुम जीत गईं, लेकिन याद रखना—चुराई गई जीत, आईने में कभी सच्चा चेहरा नहीं दिखा सकती।”
साक्षी चली गई। पर रीवा के भीतर एक चुपचाप ज्वालामुखी फट चुका था।
रीवा ने पहली बार जाना कि विश्वासघात हमेशा पीठ पीछे वार नहीं करता—कभी-कभी सामने खड़े होकर मुस्कुराते हुए भी करता है।
उसने खुद को सँभाला और तय किया कि वह अब पहले से भी बढ़िया रिसर्च पेपर लिखेगी। एक बार फिर उसने लाइब्रेरी के पन्नों में सिर झोंक दिया, लैब में अनगिनत रातें बिताईं, इंटरनेट से डेटा इकट्ठा किया। इस बार उसने किसी को कुछ नहीं बताया। हर डेटा, हर निष्कर्ष अपने पास रखा।
कुछ महीनों बाद जब वह नेशनल कॉन्फ्रेंस में पहुँची, तो मंच पर उसका रिसर्च “अवार्ड ऑफ एक्सीलेंस” जीत गया। तालियाँ गूँज उठीं, और मेहनत का फल मिल चुका था।
उसके कॉलेज में भी उसे सम्मानित किया गया। हॉल की भीड़ में उसने साक्षी को देखा। रीवा की नज़रों में कोई नफ़रत नहीं थी—सिर्फ़ दृढ़ता। उसने मन ही मन कहा— “विश्वास टूटा तो दर्द हुआ, पर उसी दर्द ने मुझे मज़बूत बना दिया।”
रीवा ने सीखा कि भरोसा कीमती होता है, और जब कोई उसे तोड़ता है—तो वह हमें गिराता नहीं, बल्कि भीतर से नया गढ़ देता है।
और रही कैंपस प्लेसमेंट की बात—तो उसे बेहतरीन कंपनी और पैकेज मिला। उसके रिसर्च और कौशल ने उसे न केवल सम्मान दिलाया, बल्कि भविष्य भी सुरक्षित किया।
साक्षी को भी उसके चुराए हुए रिसर्च पेपर की बदौलत अच्छी नौकरी मिल गई थी। शुरुआत में सब कुछ सही चल रहा था—लेकिन कुछ ही महीनों में उसकी असली काबिलियत का नकाब उतर गया। काम के दबाव, चालाकी और वास्तविक कौशल की कमी के कारण उसे नौकरी से निकाल दिया गया।
दोस्तो, ऐसे लोग भी मिलते हैं जो हमारे काम का श्रेय लेकर आगे बढ़ जाते हैं—साक्षी जैसी दोस्त। लेकिन यह केवल क्षणिक जीत होती है। असली जीवन में स्थायी सफलता उन्हीं को मिलती है, जो अपनी मेहनत, धैर्य और कौशल पर विश्वास रखते हैं।
रीवा ने यह सब देखा और समझा कि असली जीत वह नहीं जो दूसरों से छीनी जाए, बल्कि वही है जो मेहनत, ईमानदारी और लगन के साथ अर्जित की जाए।
अंजु गुप्ता ‘अक्षरा’