राहुल उस दिन घर आया तो आँगन में धूप सुनहरी चादर बिछाए खड़ी थी। कोने में माँ बैठी थीं—झुकी कमर, काँपते हाथ, आँखों पर मोटा चश्मा। उनके सामने रखा था एक पुराना लकड़ी का संदूक, जिसकी काली पेंट जगह-जगह से उखड़ चुकी थी।
राहुल ने अनमनेपन से कहा—
“माँ, इस जंग लगे संदूक में अब क्या रखा है? क्यों संभाले रखती हो इसे?”
माँ मुस्कुराईं। उनकी मुस्कान में रहस्य और अपनापन दोनों थे। काँपते हाथों से चाभी घुमाई। ढक्कन खुला तो पुरानी किताबों, अख़बारों, टिफ़िन के डिब्बों और पीले पड़े काग़ज़ों की महक हवा में घुल गई।
एक कोने से उन्होंने फ़ाइल निकाली—
“ये मेरी एम.ए., बी.एड. की डिग्रियाँ हैं बेटा। जब तू छोटा था, मैंने सोचा था नौकरी करूँगी। पर तू बीमार पड़ गया। मैंने ये डिग्रियाँ संदूक में रख दीं और तुझे ही अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मान लिया।”
राहुल के गले में शब्द अटक गए। उसकी आँखों में तैरने लगा वो दृश्य—कुछ ही दिन पहले दोस्तों की महफ़िल में उसने हँसते हुए कह दिया था, “मेरी माँ अब कुछ नहीं कर सकतीं, बस पूजा-पाठ और ताने देने लायक रह गई हैं।”
वहीं खड़ी नेहा (राहुल की पत्नी) सब सुन रही थी। उसने धीरे से राहुल का हाथ दबाया। उसकी आँखों में उलाहना भी था और ममता भी।
“राहुल,” उसने कहा, “क्या तुम्हें याद है, जब माँ ने पिछली बार कहा था कि उन्हें मोबाइल पर भजन सुनना सिखा दो, तो तुमने टाल दिया था? आज वही माँ हमें दिखा रही हैं कि उन्होंने हमारे लिए क्या-क्या छोड़ा।”
राहुल चुप रहा। उसकी चुप्पी भारी हो चुकी थी।
नेहा ने संदूक से एक और चीज़ निकाली—एक पुरानी डायरी। उसमें माँ की लिखी कविताएँ थीं। धुँधले अक्षरों में लिखा था—
“सपनों को मैंने संदूक में रख दिया,
पर बच्चे की हँसी को जीवन मान लिया।”
नेहा की आँखें भर आईं। उसने राहुल की ओर देखा—
“कभी सोचा है, अगर माँ नौकरी करतीं, तो तुम्हारे बचपन की कितनी देखभाल अधूरी रह जाती? तुम्हारा स्कूल का होमवर्क, तुम्हारे टिफ़िन, तुम्हारी दवाइयाँ—सब किसी नौकरानी के भरोसे होते।”
राहुल की साँसें भारी हो गईं। उसे याद आया, माँ हर सुबह पाँच बजे उठकर उसका टिफ़िन बनातीं। कभी अपनी नींद, कभी अपनी सर्दी-खाँसी की परवाह नहीं की।
वो पल उसके सीने पर बोझ बन गए।
वो झुका और माँ के पैरों को छूकर बोला—
“माँ, मुझे माफ़ कर दो। मैंने तुम्हारी झुर्रियों में छिपी कहानियों को कभी समझा ही नहीं। तुमने अपनी डिग्रियाँ संदूक में बंद कीं और मुझे अपनी ज़िंदगी बना लिया। मैं मज़ाक करता रहा, और तुमने चुपचाप सहा।”
माँ ने काँपते हाथ से उसके सिर पर हाथ रखा—
“बेटा, यही तो माँ होती है। संदूक ताले में बंद हो जाए तो भी दिल हमेशा खुला रहता है—सिर्फ अपने बच्चों के लिए।”
उस रात राहुल चैन से नहीं सो पाया। नेहा ने धीरे से कहा—
“राहुल, सच्चा प्रायश्चित शब्दों से नहीं, कर्म से होता है। माँ को उनकी खोई पहचान लौटाओ। उन्हें महसूस कराओ कि वो आज भी काबिल हैं।”
अगली सुबह राहुल ने माँ के लिए एक मोबाइल क्लास जॉइन कराई। माँ झिझकीं, लेकिन राहुल और नेहा ने साथ दिया। कुछ ही हफ़्तों में वो ऑनलाइन भजन गाना सीख गईं, वीडियो कॉल करना जान गईं।
फिर नेहा ने उनकी कविताएँ टाइप कर एक ब्लॉग बनाया। धीरे-धीरे माँ की कविताएँ पढ़ने वालों की संख्या बढ़ी। लोग तारीफ़ करने लगे।
एक दिन जब माँ को किसी अजनबी का संदेश मिला— “आंटी, आपकी कविता ने मेरी आँखें खोल दीं”—तो उनके झुर्रियों भरे चेहरे पर वो मुस्कान लौटी, जिसे राहुल ने बचपन में देखा था।
राहुल ने उस दिन महसूस किया—
माँ का संदूक सिर्फ़ लकड़ी का बक्सा नहीं था, वह त्याग और प्रेम का खजाना था।
दीपा माथुर