“सर जितनी फीस आप के मैनुअल में लिखी हुई थी, मैं सारी जमा करा चुका हूँ। अब ये लैब चार्ज, लाइब्रेरी फीस अलग से कहाँ से आ गई।”
“ये तो होता ही है।” सामने बैठे क्लार्क से रुखाई से जवाब दिया।
“मगर मैं तो पिछले बीस दिन से आप के कौलेज का एक एक एक्स्पैंस, स्कूल फी, हौश्टल, बुक्स, कैंटीन सब जमा कर चुका हूँ और अब आप बता रहे हैं कि…। अब मैं अपने घर से एक हजार किलोमीटर दूर। अचानक कहाँ से व्यवस्था करूँगा।”
“हाँ तो… एक काम हो सकता है।” क्लर्क ने पहली बार फाइल से गर्दन उठाकर व्यंग से मुस्कराते हुए कहा। “तुम बिना लैब के इंजीनियरिंग कर लेना। हा हा हा। अच्छा, जरा साइड में हो जाओ। और लोग भी कतार में हैं।”
अभय एडमीशन विंडो से हटकर गैलरी में पड़ी बैंच पर बैठ गया। उसके चेहरे पर बेहद निराशा और वेदना झलक रही थी। उसे अपनी आँखों के सामने अंधेरा ही अंधेरा दिखाई दे रहा था। एडमीशन फार्म में इसका कोई जिक्र नहीं था किन्तु यहाँ आने पर पता चला कि एक सैमिस्टर के लिए लैबोरेट्री के खर्चे के रूप में पैंतालीस हजार रुपये और जमा करवाने हैं। पिताजी जी की ग्रेचुएटी और प्रोविडेंट फंड का मामला अटका पड़ा है। उनके जाने के बाद तो सरकारी ऑफिसों में कोई सुनने को तैयार ही नहीं है। पात्रता साबित करने में ही छह महीने गुजर गए। पिताजी ने तो सामान्य तौर पर माँ को नौमिनी बनाया था मगर किसे पता था कि पिताजी के जाने के छह महीन बाद ही वे भी दुनिया छोड़ कर चली जाएंगी। कहते हैं कि साबित करो कि, तुम शांतनु सिंघल के ही बेटे हो। बहाने हैं सब घूस लेने के।
अब कोई रास्ता दिखाई नहीं देता। आँखों के सामने अंधेरा सा छा रहा था। घर में माँ के जो थोड़े बहुत गहने बचे हुए थे उन्हे बेचकर किसी तरह इस कॉलेज की फीस का जुगाड़ किया था। सोचा था कि अगले सैमिस्टर तक पिताजी के पी एफ के पैसे मिल ही जाएंगे मगर यहाँ तो एकदम शुरू में ही गाड़ी अटक गई थी।
अभय सामने पड़ी बैंच पर अपने बैग पर सर टीकाकर बैठ गया और अपने अंधेरे भविष्य के बारे में सोचने लगा। दुर्भाग्य साथ ही नहीं छोड़ रहा है। बेकार ही इतने बड़े कॉलेज में प्रवेश लेकर पिताजी के सपने पूरे करने का प्रयास कर रहा हूँ। यदि भाग्य में होता तो वे दोनों असमय दुनिया छोड़कर जाते ही क्यूँ। नियति के आदेश के विपरीत कोई चल सकता है क्या। लौट जाऊंगा। कोई छोटा मोटा काम या मजदूरी कर लूँगा। सब्जी का ठेला लगा लूँगा। जब भाग्य में ही एक बेहतर जिंदगी नहीं है तो बहाव की विपरीत दिशा में तैरने का क्या फायदा। उसकी आँखों से जार जार आँसू बह निकले।
तभी काउंटर से आवाज आई “अभय सिंघल, पेपर्स पर साइन करके अपने रूम की चाबी प्राप्त करें।”
अभय ने गर्दन उठाई और काउंटर क्लार्क की ओर बेबसी की सी निगाह से देखा। कलर्क ने चिल्लाकर कहा “अरे जल्दी करो भाई। और भी काम हैं।”
“मगर सर मेरी फीस…।”
“अरे हो गई फीस जमा। नशे में हो क्या। पता नहीं कहाँ कहाँ से चले आते हैं। इंजीनियरिंग करेंगे। अरे सोने आए हो क्या यहाँ।”
अभय ने अपने सर को एक झटका दिया। अचंभे से क्लर्क की ओर देखा। उसने एक पैंतालीस हजार रुपये की रसीद और हौश्टल के रूम की चाबी अभय की ओर बढ़ा दी। अभय के साइन कराकर दूसरे कामों में जुट गया।
“सर प्लीज़। ये बताइये कि मेरे पैसे किसने जमा किए।”
क्लर्क ने फाइलों में डूबी गर्दन उठाई और आश्चर्य से अभय की ओर देखा। फिर गलियारे की ओर इशारा कर दिया। वहाँ लंबे गलियारे के लगभग दूसरे छोर पर ब्राउन से रंग की साड़ी पहने एक महिला धीरे धीरे जाती दिखाई दी। अभय के आश्चर्य का ठिकाना नहीं था। यहाँ मेरे घर से हजार किलोमीटर दूर कौन मेरा इतना बड़ा हमदर्द पैदा हो गया जिसने इतनी बड़ी रकम स्कूल में जमा की है। अभय तेजी से गलियारी में उस दिशा में बढ़ गया जिधर महिला गई थी।
गलियारा टी पॉइंट से दोनों तरफ खुलता था। एक तरफ केंटीन थी जहां अनेक लड़के लड़कियां भोजन कर रहे थे। दूसरा सिरा बाहर पार्किंग में खुलता था। अभय कॉलेज से बाहर पार्किंग की तरफ बढ़ा मगर वहाँ नया सत्र शुरू होने के कारण सैकड़ों गाड़ियों और अपने बच्चों को छोड़ने आए माता पिता का मेला था। इस भीड़ में उस रहस्यमयी शक्सीयत को ढूंडना संभव नहीं था जिसने उसकी फीस जमा कराई थी।
अल्प आयु में ही माता पिता का साथ छूट जाने के उपरांत भी अभय ने एक तपस्या की तरह पिता के सपने को पूरा करने का दृढ़ निश्चय किया था। अभाव झेलकर किसी तरह कोर्स पूरा हो जाये तो उनकी आत्मा को भी शांति मिलेगी। मन कभी कभी उचाट हो जाता किन्तु तभी पापा के अंतिम शब्द याद आते। “अभय मेरी आत्मा को शांति तभी मिलेगी जब तू भारत के सबसे बड़े कॉलेज से इंजीनियर बनकर निकलेगा।”
आज अभय का जन्मदिन था। बाहर तेज बरसात हो रही थी। अभय अपने हौश्टल के कमरे में अकेला बैठा पुराने दिनों को याद कर रहा था। कैसे एक एक दिन गिनकर जन्मदिन का इंतजार करता। कैसे मम्मी पापा से जिद करके अलगा अलग गिफ्ट वसूलता। घर में पूरा जश्न होता था। माँ अपने हाथ से मिठाइयाँ बनतीं। मगर आज चार दिन भी भूखा रहूँ तो कोई पूछने वाला नहीं है। जन्मदिन तो दूर की बात है।
तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया। ये हौश्टल के वार्डन थे। उनके हाथ में एक स्टील का डिब्बा और एक लिफाफा था। लिफाफे में कुछ रुपये और एक कार्ड था जिसपर सिर्फ ‘शुभ जन्मदिन’ लिखा था।
“सुनो अभय, ये तुम्हारे लिए कोई दे गया है। बाहर गेटकीपर के पास छोड़ गया था। नाम नहीं बताया।”
“नहीं सर, कोई कफ्यूजन है। मेरे लिए कौन…।”
“अरे तुम्हारा नाम लिखा है भाई। किसी मामा या बुआ ने भेजा होगा। लगता है मिठाई वगहरा है। खैर, पता कर लेना। मैं चलता हूँ।”
कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि कौन इस तरह चुपके से कभी फीस जमा कर रहा है तो कभी पैसे और मिठाई भेज रहा है। कॉलेज में आए महीनों गुजर गए मगर रहस्य सुलझने की बजाय गहराता जा रहा है।
दीपावली का पर्व निकट था। देश भर के दूर दराज से आए छात्र छात्राएँ अपने घर जा रहे थे किन्तु अभय का तो इस दुनिया में कोई नहीं। कहाँ जाएगा। हर समय मन में एक उदासी सी छाई रहती।
मौसम सुहाना होने लगा था। वैसे भी आज आसमान में बादल घुमड़ रहे थे। रवीवर का दिन था। अभय देर तक कमरे में सोता रहा। ग्यारह बजे थे। टैस्ट में अच्छे नंबर आने से मन प्रफुल्लित था। सोचा कि चलो आज पेड कैंटीन में चलकर कुछ अच्छा सा नाश्ता किया जाय।
रैस्टोरैंट में इक्का दुक्का लोग ही बैठे थे। अधिकतर छात्र छात्राएँ कॉलेज की केंटीन में ही खाना खाते हैं। शीशे की खिड़की से छूते हुए गुलदाउदी के फूल हवा में ऐसे झूल रहे थे मानो अभय से बात करना चाहते हों। वो उसी खिड़की से लगी हुई टेबल पर बैठ गया और देर तक वातावरण का आनंद लेता रहा। अचानका उसे लगा कि कोई उसे घूर रहा है। उसने हौल के चारों तरफ नजर घुमायी तो कौने की टेबल पर कोई पचास साल की एक महिला नीची निगाह किए बाउल से कुछ सूप जैसा सिप कर रही थीं। अभय को लगा कि महिला ने उसे अनदेखा करने के लिए अभी नजरें झुकाई हैं। महिला के गौरवर्ण चेहरे पर एक गरिमामयी आभिजात्य की छाप थी। उन्होने बादामी रंग की साड़ी पहन रखी थी और रंग साफ होने के कारण उनके माथे पर लगी छोटी सी स्याह रंग की बिंदी स्पष्ट दिखाई दे रही थी। अभय कई पल महिला को गौर से देखता रहा। न जाने क्या था उस चेहरे में कि उसे महिला के प्रति एक खिंचाव का सा… एक अपनत्व सा अनुभव हो रहा था। उसे लगा कि कुछ तो है जो मुझमें एक अलग भाव जगा रहा है। कभी लगता कि ये चेहरा तो उसका देखा भाला, जाना पहचाना है किन्तु कब। कहाँ।
तभी अभय का ऑर्डर आ गया। वह तन्मयता से खाने पर जुट जाना चाहता था किन्तु महिला की ओर से ध्यान ही नहीं हट रहा था। जीवन में इस तरह का अनुभव पहली बार हुआ था कि एक व्यक्तित्व उसके मन में हलचल पैदा कर रहा था। कौन है ये महिला। हमारे कॉलेज की कोई फ़ैकल्टी तो नहीं। अरे, कहीं ये वो मौहतरमा तो नहीं जिनकी एक झलक उस गैलेरी में दिन देखी थी जिस दिन उसकी लैब फीस किसी ने जमा कर दी थी। कद काठी तो वैसी ही है।
हृदय की हलचल बढ़ती जा रही थी। कुछ तो असामान्य है जो बेचैन कर रहा है। महिला लगातार उसे इगनोर करने का नाटक कर रही थी और दूसरी तरफ देखती हुई अपने खाने में लगी हुई थी।
तभी अभय ने देखा कि महिला ने खाना बंद कर दिया है और वेटर को बिल के लिए इशारा कर रही है। उस दिन जब कोई अजनबी उसकी फीस जमा करा कर अदृश्य हो गई थी, तभी से अभय चाहता था, कैसे भी करके इस रहस्य से पर्दा उठे। आज… क्या पता आज मेरी ये खोज सम्पूर्ण हो जाए। अगर आज भी ये निकल गईं तो क्या पता उस दिन की तरह बाद में पश्चाताप रह जायगा।
एक दृढ़ सा निश्चय करके वो अपनी टेबल से उठा और उनके निकट पहुँच गया। वे बिल को गौर से देखते हुए पर्स से पैसे निकाल रही थीं। कुछ देर अभय ऐसे ही किंकर्तव्य विमूढ़ सा खड़ा रहा।
आसमान में ज़ोर से बादल गरजा और तेज बारिश शुरू हो गई। बारिश की मोटी मोटी बूंदें मानो खिड़की की हदें तोड़कर भीतर आ जाना चाहती थीं किन्तु शीशे से टकराकर अस्तित्वविहीन होकर नीचे को ढलक जातीं।
वेटर की प्लेट में पैसे डालकर महिला ने अजनबी, पृश्नसूचक निगाहों से अभय की ओर देखा।
“जी मेरा नाम अभय है। अभय सिंघल। जी मुझे…। मैं इसी कॉलेज में…। मुझे लगता है कि मैंने आप को कहीं देखा है। क्या आप फ़ैकल्टी… मेरा मतलब।”
“नहीं। मैंने तुम्हें कहीं नहीं देखा।” नजरें चुराते हुए छोटा सा जवाब देकर महिला उठ खड़ी हुई और दरवाजे की ओर बढ़ गई।
“जी याद कीजिये मैडम। शायद बचपन में…। जी मैं जोधपुर से… जोधपुर… राजस्थान।”
“जानती हूँ, जोधपुर राजस्थान में है।” महिला ने मुस्करा कर कहा। फिर वो कुछ बेचैन दिखाई देने लगी थी। कोई उत्तर दिये बिना तेजी से दरवाजे की ओर बढ़ी। निराश होकर अभय दोबारा अपनी टेबल पर आ गया और बचा हुआ खाना खाने लगा।
तभी महिला दोबारा दरवाजे पर प्रगट हुई और सीधे उसकी टेबल के दूसरी तरफ पड़ी कुर्सी पर बैठ गई। अभय अचकचाकर खड़ा हो गया।
“बैठ जाओ अभय। अब… अब समय के साथ सब कुछ बदल ही गया है तो… अब इसका कोई मतलब नहीं है। जिनसे शपथ ली थी वे ही नहीं हैं और तुम… अकेले। बेसहारा।” वे होठों में बुदबुदा रही थीं।
“जी… आप मेरा नाम जानती हैं। समझ गया। आप ने ही उस दिन मेरी फीस… और वो लड्डू का डिब्बा। कौन हैं आप और आप से मेरा संबंध क्या है?”
“अभय मैं चाहती हूँ कि तुम किसी उलझन से और मानसिक विचलन से दूर रहकर अपनी पढ़ाई पूरी करो। समय आने पर सब पता चल जाएगा।”
“क्या इतना सब होने के बाद मेरी तन्मयता बनी रह पाएगी मैम। आप मेरा नाम जानती हैं। आप ने मेरी फीस जमा की थी किन्तु…।”
“मैं… मैं और तुम्हारे पापा दोस्त थे। बस, तुम्हारे लिए इतना जानना की काफी है।”
“माफ कीजिएगा मैडम, बच्चा नहीं हूँ। पहली क्लास से स्कूल को टौप किया है। यहाँ मेरे घर से हजार किलोमीटर दूर कोई अचानक…। नहीं। इतनी सी बात नहीं हो सकती। प्लीज़। बताइये आप कौन हैं मैडम।”
महिला ने एक बार चारों तरफ देखा। कई पल तनाव भरा चेहरा लेकर कुछ सोचती रहीं। फिर एक लंबी सांस ली। उनके तने हुए कंधे ढीले हो गई और वे कुर्सी से पीठ लगाकर, आँखें बंद करके बैठ गईं। कुछ पल ऐसे ही बैठी रहीं और अभय उनके चेहरे की ओर देखता रहा। कैसा सम्मोहन था उस चेहरे में।
“वो कॉलेज के दिन थे अभय। मैं और शांतनु… शांतनु सिंघल एक ही क्लास में पढ़ते थे।”
“जी शांतनु… मतलब मेरे पापा?”
“हम दोनों दोस्त थे। हम दोस्त थे… बल्कि एक दूसरे से प्रेम करते थे। इतना कि…फिर कोई सीमा नहीं थी। खैर छोड़ो।” वे कुछ देर सोचती सी शांत बैठी रहीं।
“विजातीय होने के कारण तुम्हारे दादा किसी भी स्थिति में मुझे अपनी बहू के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। उन्होने अपने सर में गोली मार लेने की धमकी दी थी। तब मैं अपने गर्भ में पल रही प्रेम की निशानी को लेकर वहाँ से सैकड़ों किलोमीटर दूर बस्तर के एक स्कूल में बतौर प्रिंसिपल काम करने लगी। वहीं मैंने बच्चे को जन्म दिया और अकेली उसका लालन पालन करने लगी। तीन साल गुजर गए।
तभी एक दिन शांतनु प्रगट हुए। बेहद शर्मिंदा और परेशान थे। रोते हुए अपनी बेबसी का इजहार करते रहे। मैं कायर हूँ। परिवार से और समाज से नहीं टकरा सका।”
“वहाँ बस्तर में? पापा ने आप को ढूंढ कैसे लिए मैम।”
“सूचना क्रांति के युग की शुरूआत हो चुकी थी। ऐसे में देश क्या दुनिया में किसी को ढूंड़ना मुश्किल नहीं है। वैसे भी मैं न किसी पश्चताप में थी न किसी से छुप रही थी। बस अपनी यादों से दूर निकल जाना चाहती थी।”
“तब क्या पापा दोबारा अप को अपनाना चाहते थे?”
“नहीं। और ये संभव भी नहीं था। उन्होने बताया कि उनकी पत्नी… यानी तुम्हारी माँ कभी बच्चे को जन्म नहीं दे पाएँगी। ऐसा डॉक्टर्स से बताया है।”
“अरे! ऐसा कैसे हो सकता है। तब मैं।”
“मैं उन से प्रेम करती थी अभय। उन्हे इतना व्यथित देख नहीं सकती थी। उन्होने मेरे सामने रोते हुए याचना की। वे बिना औलाद नहीं मारना चाहते थे।”
“मतलब?”
“मैंने अपने प्रेम की निशानी को उन्हे सौंप दिया। तब तुम बहुत छोटे नहीं तीन साल के थे। इसीलिए तुम्हारी स्मृति, मस्तिष्क द्वार पर दस्तक दे रही है। तुम मेरे ही बेटे हो अभय। मेरा इस दुनिया में तुम्हारे सिवा और कोई नहीं है। इसी लिए तुम्हारे माता पिता के जाने के बाद लगातार साये की तरह मैं तुम्हारे साथ थी। तुम्हारे पिता से वादा किया था कि आजीवन तुम्हारी माँ को इस बात का पता नहीं लगने दूँगी कि तुम किसी अनाथ आश्रम से गोद लिए नहीं बल्कि शांतनु के ही बेटे हो किन्तु जब वे दोनों ही दुनिया में नहीं है तो अब उस वादे का क्या महत्व भला।”
“किन्तु मेरी माँ… माँ ने मुझे जीवन भर इतना प्यार और ये कैरियर…। कैसे उस माँ की छवि को दिल से…।”
“मेरे बच्चे, इसीलिए मैं कभी तुम्हारे सामने ये रहस्य उजागर नहीं करना चाहती थी। किन्तु आज… आज मुझे लगा कि तुम्हें एक भावनात्मक सपोर्ट की जरूरत है। जीवन में आगे बढ़ाने के लिए तुम्हारे भीतर कोई निराशा या अकेलेपन का भय नहीं रहना चाहिए जो तुम्हारे अच्छे भविष्य में बाधा बने। किन्तु मैं तुमसे तुम्हारे माता पिता का नाम नहीं छीनना चाहती। तुम सदा शांतनु सिंघल और शकुंतला सिंघल के ही बेटे कहलाओगे। बस खुद को कभी अकेले या बेसहारा मत समझना। तुम्हें तुम्हारी मंजिल तक पहुंचाने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं मेरे पास। मेरा जो कुछ भी है सब तुम्हारा ही तो है मेरे बच्चे। बस मुझ से आज एक वादा करो। मुझे अपनी माँ जैसा अपनापन दोगे। प्यार दोगे। अपने सुख दुख और कोई भी जरूरत पूरे अधिकार के साथ मुझसे बाँट लोगे। मेरा इस दुनिया में तुम्हारे अलावा…।” आगे के शब्द उनके गले में रुँध गए।
अभय की आँखों में आँसू तैर गए। वो भावुक होकर माँ के चरणों में झुक गया।
“कितना कुछ झेला है आप ने। कितना विशाल हृदय है आप का। आप माँ नहीं एक देवी हैं… माँ।” बस इतना ही उसके मुंह से निकल पाया। माँ ने उसे गले लगा लिया।
रवीन्द्र कान्त त्यागी