आ रामविलास नारायण सिन्हा किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। इन्होंने अकेले और पत्नी के साथ ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अपनी कालेज की पढ़ाई छोड़ वे स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। वे महात्मा गांधी की तरह अहिंसा के पुजारी थे असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा, भारत छोडो़ आंदोलन, नमक कानून में बढ-चढ़कर भाग लिया। 15 अगस्त 1947 को देश स्वतंत्र हुआ।
आजादी के पश्चात अगर वे चाहते तब चुनाव लड़ सकते थे
लेकिन उन्होंने समाज सेवा को अपने जीवन का ध्येय बनाया और आजीवन देशभक्ति का अलख जगाये रहे।
खादी ओढ़न खादी पेन्हन
इन पंक्तियों के साथ मुझे स्मरण हो आया 1970 का साल जब मेरा विवाह तत्कालीन गया जिले (आज कल —औरंगाबाद )में तय हुई।
जब ससुराल वालों के लिये कपड़ा खरीदा जाने लगा. ..तब घर में बहुत सम्मान और कौतूहल से “खादी भंडार मढौडा़ “के पैकेट को रखा गया।
मेरे बाबू जी का इतना कहना कि “यह वस्त्र होने वाले दामाद जी के पिता जी का है… क्योंकि वे स्वतंत्रता आंदोलन के सिपाही हैं… खादी ही पहनते, ओढते, बिछाते हैं “तब सभी परिजनों का सिर उनके सम्मान में झुक गया था।
मेरे पुण्यात्मा पूज्य ससुर जी श्री रामविलास नारायण सिन्हा, ग्राम -संसा ..जिला -औरंगाबाद बिहार… के यशस्वी कांग्रेसी नेता थे। उनके रग-रग में देशप्रेम भरा हुआ था।
मेरी पुण्यात्मा सासु मां श्रीमती दीप कुमारी सिन्हा उनकी सच्ची अनुगामिनी थी।
बाबूजी (ससुर जी) छः फीट के गौरवर्णीय लंबे चौडे़ कसरती शरीर के मालिक थे। जबकि अम्मा जी गेहुएं रंग की मजबूत साहसी न्यायप्रिय परिश्रमी स्पष्टभाषी खुशमिजाज़ महिला थी।
बाबूजी जब नौ महीने के थे तब उनकी माता जी का स्वर्गवास हो गया था। संयुक्त परिवार था…दादी ,बुआ, चाची ने उनको पालन पोषण किया। उनके पिता जी इकलौते बेटे का मुँह देख फिर दुबारा शादी नहीं की। जबकि उन दिनों पहली पत्नी के मृत्यु के पश्चात दुसरा विवाह प्रचलन में था। वे अपनी दादी, चाची, बुआ सभी का बहुत सम्मान करते थे। वैसा आदर ,अपनापन ,एक दूजे की परवाह… आज भी लोग उदाहरण देते हैं।
तब ब्रिटिश साम्राज्य था ।गोरों का आतंक था। महात्मा गांधी, सुभाषचंद्र बोस ,डाॅ राजेन्द्र प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल तथा अन्य नामी गिरामी हस्तियां स्वतंत्रता आंदोलन का बिगुल बजते ही अपनी पढाई, जमी-जमाई नौकरी, व्यवसाय छोड़ उसमें कूद पड़े थे। बाबूजी भी कॉलेज की पढ़ाई छोड़ बिना जान-माल की परवाह किये देश की आजादी की लड़ाई में शरीक हो गये।
इकलौते पुत्र जिसके कंधे पर पूरे परिवार का भार हो वह सबकुछ भूल मां भारती को गुलामी की जंजीर से मुक्त कराने का संकल्प ले घर से निकल पडे़ …यह देश भक्ति का अविस्मरणीय नमूना है।
वे कई बार जेल गये। फिर भी विदेशी वस्तुओं का वहिष्कार, नील की खेती, नमक कानून, असहयोग आंदोलन, सत्याग्रह में बढ-चढ़कर हिस्सा लिया। आज भी गाँव में हमारे पुराने घर के पिछवाड़े ब्रिटिश काल का वह चहबच्चा मौजूद है जिसमें नील घोला जाता था। उसकी सीमेंटेड दीवाल इतनी मजबूत है कि हथौडे़ से भी नहीं टूटता।
अंग्रेज हुकूमत ने देशभक्तों पर घोड़े दौडाये… सभी लहूलुहान हो गये। जब बाबूजी हमें वे किस्से सुनाते… हमारे रोंगटे खडे़ हो जाते, “आपने बर्दाश्त कैसे किया “हम पूछ बैठते। तब वे पीठपर घोड़े की नाल का दाग दिखाते।
आज व्यथा होती है तथाकथित माननीयों का देशप्रेम देखकर। जो सत्ता सुख, अवैध संपत्ति इकट्ठा करना, भाई-भतीजावाद को प्रश्रय देना, भारतीय सभ्यता संस्कृति का उपहास उडा़ने … पद मिलते ही गैरकानूनी ऊटपटाँग हरकतों को अपना जन्मसिद्ध
उन्हें क्या मालूम कि जंगल-जंगल भटक कर भूखे प्यासे झूठे मुकदमों में फंसाकर इन गुमनाम देशभक्तों ने कितने जुल्म सहे हैं। कितने कष्टों और आत्याचारों के पश्चात हमें आजाद देश का तोहफा दिया है।
बाबूजी शुद्ध सात्विक विचार के व्यक्ति थे।विशुद्ध शाकाहारी न लहसुन न प्याज… कोई नशा नहीं… यहाँ तक कि चाय भी नहीं पीते थे।
” खादी ओढन, खादी पेन्हन, खादिये बिछौना हो राम… देश और कांग्रेस पार्टी के प्रति निष्ठा… जब भी वोट दिया… कांग्रेस को और दूसरों को भी प्रेरित करते थे। उसी पार्टी की दुःस्थिति देख कष्ट होता है।
वे स्वतंत्रता आंदोलन के योद्धा थे। उसी बीच उनका विवाह भी हो गया उस जमाने में सादगी पूर्ण ढंग से… खादी के जोड़े में नवदंपति…कोई ताम-झाम, लेन-देन नहीं… लोगों के बीच कौतूहल का विषय था।
अम्मा जी हमें उनदिनों की कहानियां सुनाती ,”कैसे वे अंग्रेजों से लडने वाले उनकी पहुँच से छिपने वालों के लिये लकड़ी और कंडे पर पसेरी भर आटे की लिट्टी चोखा बनाती… तरह-तरह के भोजन तैयार करती। अपना सारा जेवर निकालकर देश को समर्पित कर दिया। “ऐसा था जुनून, ऐसी थी देश के प्रति कर्तव्य। “
वे बताती थी चंपारण आंदोलन में वे महिला जत्था और बाबूजी पुरुष जत्था में गये थे… वहाँ महात्मा गांधी को निकट से देखा… उनसे प्रभावित उनकी विचारों की समर्थक… नायक के निर्देशानुसार कार्य करती… हंसते गाते… जोश के साथ… सुनकर हमें भी ऊर्जा मिलती।
विवाहों में जब वे गीत गाती, “तिरंगा झंडा लगा हुआ दूल्हे के कमरे में
बाबा बाराती साजेंगे जब खद्दर पहनेंगे दादी ने झंडा ले लिया
स्वराज्य के लिए ।”
उनका जोश जुनून देखने लायक होता… हम भी उनके साथ झूम-झूम कर गाते।
वे जब भी बैठते… स्वतंत्रता संग्राम के रोचक किस्से सुनाते। अपना संघर्ष उस समय के ब्रिटिश सरकार के आत्याचारों की सच्ची घटनाएं सुनाते जिसे सुनकर आज भी रोंगटे खडे़ हो जाते हैं।
अंग्रेजी हुकूमत डाल-डाल तो सिर पर कफन बांधे आजादी के दिवाने पात-पात!
कितने जुल्म सहे लेकिन मां भारती के पांवों से बेड़ियां काटने के लिए न रुके… न झूके।
जाते-जाते अंग्रेज़ देश के दो टुकड़े करता गया… उसके बाद भीषण मार-काट… अफरा-तफरी मच गया। गंगा जमुनी संस्कृति वाले एक दूसरे के खून के प्यासे हो गये… उस विषम परिस्थिति में भी अम्माजी बाबूजी ने संयम से काम लिया… अपनी सूझ-बूझ सक्रियता से स्थिति संभाल ली।
उनके बात की कीमत थी। इलाके के सम्मानित प्रभावशाली व्यक्ति थे। अगर चाहते तो चुनाव लड़ सकते थे लेकिन वे अपने आखिरी क्षण तक देश की नि:स्वार्थ सेवा करते रहे।
ऐसे कालजयी देशभक्त महापुरुष के वंशज होने पर हमें गर्व है।
15 अगस्त और 26 जनवरी को झंडोतोलन अवश्य करते।
सफेद खादी का धोती कुर्ता और माथे पर टोपी… भव्य अनुकरणीय व्यक्तित्व था उनका!हम सभी उनके साथ सामूहिक राष्ट्र गीत गाते…देशभक्ति का नारा लगाया जाता… पत्तल के दोने में सभी आस-पास के रहवासियों को बूंदिया जिलेबी खिलाई जाती।
आज भी बाबूजी का सूत कातने का तकली और कपड़ा बुनने का करघा बहुत सम्मान के साथ रखा हुआ है। मैं भी विवाह के बाद अम्मा जी के साथ तकली पर सूत काटती कभी-कभी करघे पर भी हाथ आजमाया।
अम्मा जी और जेठानी जी ननदों के साथ गाया खूब है,
” टूटे ना तकली के तार… तकलिया चालू रहे। “
21 सितंबर 1992 में जब उनका स्वर्गवास हुआ… हाथों में फूल लिये इलाके के जनमानस का हुजूम उमड़़ पडा़ उनका पार्थिव शरीर तिरंगे में लपेटकर विदा हुआ। वे किसी राज के महाराजा थे न सल्तनत के बादशाह… मंत्री विधायक भी नहीं थे… लेकिन उनका जो रुतबा था वह स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति जनमानस का आदर और प्यार था। खादी का कफन, टोपी भी आखिरी समय तक उनके साथ था। अम्मा जी भी आजीवन एक सच्चे देशभक्त, स्वतंत्रता सेनानी का धर्म निबाहा।
“भारतमाता की जय “का जयघोष …धरती और आकाश गुंज उठा।
ऐसे थे गुमनाम देशभक्त स्वतंत्रता सेनानी… जिन्हें पद शोहरत नहीं मिली हो लेकिन ऐसे जननायक ही आमजनों के दिलों में राज करते हैं और प्रेरणास्रौत होते हैं।
अम्माजी की स्वर्गवास 19 जनवरी 2010 में हुआ… सौ वर्ष से अधिक की उम्र लेकिन चेहरे पर चमक, स्पष्टभाषी और देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत था उनका व्यक्तित्व। अपने आखिरी समय तक वे सिलाई, बुनाई और हाथों से कपड़े का हाथी, घोड़ा, गुडिया, रंगबिरंगी चिड़िया, मजबूत थैला, कालीन ,मेजपोश इत्यादि बनाती रहीं …ये सजावटी बस्तुएं उनकी उपस्थिति दर्ज कराती है। मैं अपनी अम्माजी के साथ चालीस वर्षों तक रही…सास-ससुर से जितना प्यार दुलार मैने पाया है शायद ही किसी को नसीब हो …शायद उसके पीछे मेरी सेवा निष्ठा या उनकी भावनाओं को आदर देना है। दोनों पुण्यात्माओ का आशीर्वाद ही मेरी संजीवनी है।
अम्मा जी के साथ हम भी जोर-जोर से गाते…
एक छोटा चवन्नी चांदी का
जय बोलो महात्मा गांधी का।।
सर्वाधिकार सुरक्षित मौलिक रचना -डाॅ उर्मिला सिन्हा ©®
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