विंडो सीट भाग -2 – अंजु गुप्ता ‘अक्षरा’ : Moral Stories in Hindi

 जो कहा नहीं गया — समीर की जुबानी

विंडो सीट पार्ट -1 : वर्षों बाद एक रेलयात्रा में सुरभि और समीर आमने-सामने आते हैं। कभी एक-दूसरे से गहरे जुड़े ये दो लोग अब अजनबियों की तरह मिलते हैं । सुरभि के मन में अब भी कई अनकहे प्रश्न हैं, और समीर की आँखों में गहरा पछतावा है।  

———–अब आगे————-

“आज जब गाड़ी में मैंने तुम्हें अपनी सीट पर बैठे देखा, तो ऐसा लगा कि जैसे वक़्त ठहर गया है। दस वर्ष पहले गुज़रा दिल्ली – चंडीगढ़ शताब्दी एक्सप्रेस का सफर मेरी आँखों के सामने आ गया। तब भी तो कुछ ऐसा ही हुआ था। आज, तुमने मुझे देखा और नजरें चुरा ली। मैं चाहता था कि तुम मुझसे बात करो, मेरी बात सुनो — कि मेरे उस फैसले के पीछे सिर्फ बेवफाई नहीं, एक दर्दनाक मजबूरी थी। लेकिन शायद तुम्हारे भीतर अब भी गुस्सा था। तुम्हारी मुस्कान वही थी, लेकिन अब उसमें एक दूरी थी — जैसे हम दोनों के बीच वक़्त की दीवार खड़ी हो। मैंने चाहा था कि तुम पूछो — “समीर, क्यों किया था तुमने ऐसा?”

लेकिन तुम चुप थी, शायद कुछ जानना भी नहीं चाहती थी। पर क्या तुम जानती हो कि मैंने तुम्हें क्यों छोड़ा था? क्या तुम कभी समझ पाओगी कि मेरा फैसला आसान नहीं था? क्या तुम जानती हो, कि तुम मेरी ज़िंदगी थी — और शायद अब भी हो ?”

उस दिन की याद, अब भी मेरे ज़हन में बसी है जब ट्रेन धीरे-धीरे दुर्गापुरा स्टेशन से सरक रही थी। मैं हड़बड़ी में S3 कोच में चढ़ा और अपनी सीट के पास पहुँचा था। अपना सामान सही जगह पर रख, जब मैंने अपनी सीट पर नज़र डाली तो देखा कि कोई वहाँ पर पहले ही बैठा है।

थोड़ा सँभालते हुए मैंने कहा था — “माफ़ कीजिएगा, आप मेरी सीट पर बैठी है।” पर, उसने जैसे ही तुमने अपना चेहरा उठाया, तो लगा कि ज़िंदगी थम सी गयी है। और कोई नहीं …वो तुम थीं — मेरी सुरभि… हाँ! मेरी सुरभि। तुम्हारा चेहरा अब भी कुछ वैसा ही था, बस अब उसमें एक ठहराव था — जैसे नदी समुद्र में समा कर भी अपनी पहचान न भूले। मैं हल्के से मुस्कुराया, लेकिन भीतर भीतर काँप भी गया।

एक पल को जैसे तुम भी सकपका गयीं थीं और फिर तुम्हारे मुँह से बस इतना ही निकला, “समीर तुम…”

तीन साल हम साथ थे। एक-दूसरे की दुनिया थे और शादी करना चाहते थे। मेरी चेन्नई पोस्टिंग के बाद से ही मेरे घर में मेरी शादी की बात शुरू हो गयी थी। मैं माँ – पापा से अपने रिश्ते की बात करने वाला था। पर न जाने क्यों तभी मेरी किस्मत कुछ और ही खेल खेल गई ।  

मेरे कॉलेज की दोस्त सुमन —जो हमारे बारे में जानती भी थी, तुमसे मिल भी चुकी थी …और यह सब जानने के बाद भी मुझसे एकतरफा प्यार करती थी, किसी अनहोनी का शिकार हो गई थी। और वो बिना ब्याही माँ बनने वाली थी। उस वक़्त, जब वो टूटी हुई थी — डर, लज्जा और दुनिया की आँखों से सहमी — उसे सिर्फ एक ही नाम याद आया… मेरा।

उसकी मम्मी ने भी मुझे बुलाया। उनकी आँखों में आँसू नहीं, बस एक गुहार थी, “अगर तुमने इसका हाथ नहीं थामा तो ये लड़की शायद जिंदा न रहे।”

मैं… विवश हो गया था । एक इंसान की ज़िंदगी दांव पर थी, और मेरे पास ना कहने की हिम्मत नहीं बची थी।

मेरी सबसे बड़ी गलती ये थी कि उस वक़्त मुझे तुम्हें सब बताना चाहिए था। मैंने तुमसे कुछ नहीं कहा, तुम्हें अंधेरे में रखा, तुमसे नज़रे चुराईं, तुम्हारे फ़ोन कॉल्स और मैसेजिस को अवॉयड किया … क्योंकि मुझे डर था कि अगर मैं तुमसे बात भी करता – तुम्हारी आँखों में आँसू देख, मैं शायद सब कुछ छोड़ तुम्हारे पास वापिस आ जाता और… तो फिर सुमन का क्या होता ? मुझे उससे प्यार तो नहीं था, पर इंसानियत और दोस्ती का रिश्ता तो था। 

न जाने कितने ही दिन मैं अपने आप से लड़ता रहा और अंततः तुम्हें चुपचाप एक संदेश भेज दिया — “सुरभि, हो सके तो मुझे भूल जाना। मैंने सुमन से भाग कर शादी कर ली है।”

उस दिन पहली बार महसूस हुआ — प्यार के लिए लड़ना आसान नहीं और मैं हार चुका था । फिर सुमन से शादी हो गई और जिम्मेदारियाँ भी आ गईं। घरवाले भी धीरे धीरे मान ही गए। सुमन ने कभी शिकायत नहीं की, लेकिन शायद हम दोनों ही जानते थे कि — मैं उसके साथ था, पर उसके लिए नहीं था।

और वर्षों बाद… तुम मेरी बगल की सीट में बैठी थीं — वही विंडो सीट — जैसे ज़िंदगी ने फिर से चक्र पूरा किया हो। तुम्हारी आँखों में अब वो मासूमियत नहीं थी, जो कभी हमारी पहली मुलाकात में थी। अब वहाँ समझदारी थी, गरिमा थी और शायद — ठंडापन भी।

मैंने मुस्कुराने की कोशिश की — “लगता है तुम्हें आज भी विंडो सीट उतनी ही प्यारी है। यकीन ही नहीं हो रहा था कि इतने सालों बाद हम उसी तरह मिलें हैं।”

तुमने कुछ नहीं कहा, बस आँखें झुका लीं। तुम्हारी चुप्पी बहुत कुछ कह गई थी।

मैंने हिम्मत करके कहा — “अरे, पहचाना नहीं? मैं वही… तुम्हारा समीर। दस सालों में सब भूल गयी क्या? वैसे मेरा व्यक्तित्व ऐसा नहीं कि कोई मुझे भूल सके।” मैं जानता था कि ये कहने की जरूरत नहीं थी। पर जो इंसान दोषी होता है, वो अक्सर बेमतलब हँसता है।

उसी समय तुम्हारा मोबाइल बजा — शायद तुम्हारे पति का कॉल था। “जान, फिक्र न करो। ध्यान है मुझे, किसी भी अजनबी से बात नहीं करूँगी।” तुम यह बोली थीं।  

मैं जानता था कि यह शब्द मुझे सुनाने के लिए ही बोले गए हैं, मैं तुम्हारी जिंदगी का हिस्सा नहीं, सिर्फ एक ‘अजनबी’ हूँ। पर फिर भी वो शब्द मुझे चाकू की तरह चुभे थे। क्या मैं अब तुम्हारे लिए कुछ नहीं था ? —  न दोस्त, न बिछुड़ा साथी बस एक अजनबी …

और फिर जब तुमने मेरी आँखों में देखकर कहा — “वो समीर मर गया जिससे मैं प्यार करती थी। और अजनबियों से बात करना अब मैंने छोड़ दिया है।” — अहसास हुआ कि मेरी चुप्पी ने कितना कुछ तोड़ दिया था। अगर तुम्हें अपनी कश्मकश बताई होती तो शायद हम कोई न कोई निवारण ढूंढ ही लेते। काश!… पर काश हर ‘काश ‘ का कोई ‘मुकम्मल हल’ भी होता । जो हुआ नहीं, उसे सोचने का अब क्या फायदा। 

इसके बाद हम दोनों साथ बैठे रहे , पर जैसे दो अजनबी हों। ट्रेन अपनी रफ्तार से दौड़ती रही और मेरी शायद उसी रफ़्तार से मेरे भीतर यादें और संग गुज़ारा एक एक लम्हा ।

तुम किताब नहीं पढ़ रहीं थीं — शायद सोच रही थीं कि जिस समीर के साथ मैं अपने भविष्य के सपने बुनती थी, उस क्यों मुझे धोखा दे दिया ? मैं तुमसे कुछ कहना चाहता था — “सुरभि, माफ करना ! मैं मजबूर था। डरपोक था। पर तुमसे प्यार आज भी है…” 

पर ये सब अब बेमानी लगा। तुम अपने जीवन में आगे बढ़ चुकी हो और मैं …मैं आज भी वहीं खड़ा हूँ — उस विंडो सीट पर जहाँ हम कभी मिले थे।

ट्रेन नागपुर पहुँची — मेरा स्टेशन था। मैंने बैग उठाया और एक बार फिर तुम्हारी तरफ देखा। तुम मुझे देख रही थीं और फिर… मुस्कुरा दी। वो मुस्कान न तो प्यार की थी, न नफरत की। वो थी… एक मुक्ति की।

मैंने सिर झुकाया और नीचे उतर गया। जब ट्रेन चलने लगी, मैंने खिड़की के पार से देखा — तुम अब भी मुझे देख रही थी। जैसे मन ही मन कह रही हो — “अब और इंतज़ार नहीं। अब कोई शिकवा नहीं। बस… अलविदा।”

और शायद मेरे लिए भी यही ठीक था। कुछ रिश्ते नाम के मोहताज नहीं होते। मैंने तुमसे बहुत कुछ कहा… मगर शायद जो सबसे जरूरी था, वो कह ही नहीं पाया।  

इसलिए आज इस आभासी दुनिया के माध्यम से अपनी कहानी लिख कर भेज रहा हूँ। 

काश ! घूमते-घुमाते यह तुम्हारे तक कभी तो पहुँचे।  शायद तुम इसे पढ़ लो और वो सच भी जान लो — “जो कभी कहा नहीं गया।”

आगे की कहानी पढ़ने के लिए लिंक पर क्लिक करे-

window-seat-part-1anju-gupta-akshara

अंजु गुप्ता ‘अक्षरा’

क्रमशः

Leave a Comment

error: Content is protected !!