बाहर बारिश ऐसे बरस रही थी जैसे आसमान भी किसी अदृश्य पीड़ा से रो रहा हो।
बिजली की चमक, गड़गड़ाहट और भीगे शहर की निस्तब्धता के बीच डॉक्टर आरव ICU की चौथी मंज़िल पर खड़ा था।
लोगों की जान बचाने वाले वही हाथ आज खुद अपने मन की जद्दोजहद से जूझ रहे थे।
बचपन से उसने सपना देखा था कि बड़ा होकर डॉक्टर बनेगा, लोगों की जान बचाएगा, समाज की सेवा करेगा। लेकिन सच यह था कि इस मुकाम तक पहुँचने में उसके परिवार ने अपनी पूरी जमा-पूँजी लगा दी थी। मेडिकल की पढ़ाई, ट्रेनिंग, स्पेशलाइजेशन—सब कुछ इतना महँगा रहा कि अब उसे अपने खर्च और कर्ज़ चुकाने के लिए लगातार दौड़ते रहना पड़ता था। समाज सेवा की बातें अक्सर उसके मन के किसी कोने में दबकर रह गयीं थीं ।
नाम, पैसा और ओहदा — सब उसके पास था। फिर भी भीतर कहीं एक अजीब खालीपन उसे हर रात कुरेदता रहता।
कभी-कभी जब वह ICU के बाहर चिंतित परिजनों को रोते-बिलखते देखता, तो भीतर से एक सवाल गूँज उठता —
“क्या मैं सिर्फ़ फीस वसूलने के लिए डॉक्टर हूँ? क्या मेरा रिश्ता मरीजों से सिर्फ़ पैसों तक ही है? पर अगर फीस न लूँ तो अपने कर्ज़ कैसे चुका पाऊँगा?” ऐसे सैंकड़ों प्रश्न उसे परेशान करते रहते।
उस दोपहर भी वही बेचैनी थी। लगातार तीन ऑपरेशन पूरे करने के बाद, थका-हारा वह पार्किंग की ओर जा रहा था। बाहर बारिश तेज़ हो गई थी।
अचानक उसकी नज़र पड़ी—एक दुबला-पतला लड़का भीगते हुए एक ठेले पर किसी को ले जा रहा था। ठेले पर लेटी महिला दर्द से कराह रही थीं।
आरव तुरंत आगे बढ़ा।
“रुको! यह तुम क्या कर रहे हो? इन्हें कहाँ ले जा रहे हो?”
लड़के ने रुआँसे स्वर में कहा,
“ये मेरी माँ हैं। इनके दिल में बहुत दर्द है। सरकारी अस्पताल गए थे, वहाँ जगह नहीं मिली। यहाँ आए तो कहा—डिपॉज़िट जमा करो, तभी इलाज होगा। मेरे पास पैसे नहीं हैं, इसलिए इन्हें वापस घर ले जा रहा हूँ।”
आरव ठिठक गया। दस – बारह साल का बच्चा, कंधों पर इतना बड़ा बोझ उठाए खड़ा था।
आरव चौंक गया और बोला – “तुम्हारा नाम?”
“आदित्य।”
“अब क्या करोगे ?” आरव बोला।
आदित्य ने आँसू पोंछते हुए कहा—
“पता नहीं… पर एक दिन मैं डॉक्टर ज़रूर बनूँगा। और गरीबों का इलाज मुफ्त करूँगा। ताकि किसी माँ को पैसे की कमी में दर्द न सहना पड़े।”
आरव को उस बच्चे में अपना बचपन और अपनी ही छवि नज़र आई। उसी वक्त वार्डबॉय को बुला उन्होंने आदित्य की मम्मी का केस अपने हाथ में लेने का फैसला कर लिया।
आदित्य की आँखें चमक उठीं।
ऑपरेशन लंबा चला। आरव ने अपनी पूरी कुशलता लगा दी। हर पल उसे लगता—यह ऑपरेशन सिर्फ़ एक मरीज का नहीं, बल्कि उस छोटे लड़के के विश्वास का है।
ऑपरेशन सफल हुआ और आदित्य दौड़कर आरव के पैरों से लिपट गया और बोला –
“धन्यवाद, डॉक्टर अंकल ! आप मेरे अपने हो। असली अपने वही होते हैं जो बिना कहे मदद करें।”
उस दिन के बाद आरव बदल गया।
अब वह सिर्फ़ फीस वसूलने वाला डॉक्टर नहीं रहा। उसने तय किया—हर महीने कुछ मरीजों का इलाज वह मुफ्त करेगा।
धीरे-धीरे उसने अपने जैसे सोचने वाले दोस्तों और जानकारों से मिलकर एक फंड बनाया। लोग जुड़ते गए। और जल्द ही कई ग़रीब मरीज उस फंड की मदद से इलाज पाने लगे।
अब आरव के लिए डॉक्टर होना सिर्फ़ प्रोफ़ेशन नहीं, बल्कि इंसानियत का दूसरा नाम बन चुका था।
कुछ महीनो बाद आदित्य ने एक कागज़ का छोटा-सा कार्ड आरव को दिया।
कार्ड पर लिखा था— “मेरे सबसे अपने, डॉक्टर अंकल के नाम। जब भी आपको लगे कि आप अकेले हैं, याद रखना—आपके पास कोई ऐसा भी है जिसका नाम आदित्य है।”
आरव की आँखें भर आईं। उसने कार्ड को अपनी डायरी में सँभाल लिया।
उस दिन पहली बार उसने महसूस किया कि असली अपनापन न तो खून के रिश्तों में बँधा होता है, न ही समाज की परिभाषाओं में।
कभी-कभी, किसी अजनबी की सच्ची मदद ही हमें यह एहसास दिलाती है कि—
“अपनों की पहचान दिल से होती है, खून से नहीं।”
अंजु गुप्ता ‘अक्षरा’