मुझे पता है बिन दीवारों के घर नही होता पर ये जब ………… कहती सकती मृदुला कि आंखें भर आईं।
बात उन दिनों की है जब वो नईं नईं ब्याह कर आई थी।कार से उतरते ही ” अभी तो किसी का चेहरा भी नही देखा था ” लम्बे घूंघट में परछन कर धीरे से ज़मीन पर पैर रखने को कहा और फिर संभाल कर भीतर ले जाते हुए
बोली सुनो सबकी इज़्ज़त करना । हमारे यहां संस्कार ही देखे जाते हैं बाकी कुछ नही। इतना सुन उसे कोइछा डालते वक्त दी गई मां की सीख याद आई ।देख नाक ना कटाना,भले अच्छे से रहना कभी कोई ओरहना ना सुनने को मिले और हां रिसाई के कभी इधर ना आना वहां का झगड़ा वही निपटा देना।
वरना उल्टे पैर वापस भेज दूंगी।यही सोचते हुए वो आगे बढ़ती जा रही थी और दोनों की सोच का मिलान भी कर रही थी।
पर कुछ खास फर्क नजर नही आया अब दोनों ही अनुभवी थी भले एक सास और एक मां थी।पर दोनों के कहने का तात्पर्य एक ही था की घर परिवार को लेके रहना दो बात सब लेना पर कभी पलट कर जवाब मत देना इससे रिश्ते ही नही अपनों का साथ भी बना रहेगा।
खैर अभी पति देव की नसीहत तो बाकी ही थी ।सो पहली रात में घूंघट उठाते से पहले बोले।देखो प्राण प्रिये मैं सब कुछ बर्दाश्त करूंगा पर अपने घर के खिलाफ कुछ नही सुनूंगा। तुम्हें सबके साथ मिल के रहना होगा।
लो भाई एक की ही कमी थी जो वो भी पूरी हो गई। फिर क्या अब तो पक्का ही हो गया कि हमें यही सर खपाना है।कुछ भी हो जाये मायके की उठी बेटी की डोली ससुराल के अर्थी पर ही खत्म होती है । जहाँ लड़कपन बचपन खेल कूदकर बिताती है जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही एक ऐसे अजनबी घर ब्याह दी जाती है जहाँ से उसका पहले कोई नाता -रिश्ता ही नही होता ।और ब्याहते ही वो लड़की से औरत बन पूरी जिम्मेदारियां अपने सर ले लेती है।
इन सबके बीच उसका बचपना कहां गुम हो जाता है पता ही नही चलता।
सोच ही रही थी कि पति देव ने घूंघट उठा अपनी बाहों में भर लिया।फिर तो उसे अपना ही होश नही रहा अंतरंग पलों में ऐसे खोई कि भूल गई सब की सारी सीखे ।और सुबह की शुरूआत नई दिनचर्या से हुई।
अच्छा लगे रहा था यहाँ आकर नए लोग नया घर नई जिम्मेदारियां,नया रहन-सहन ,कब सबके साथ घुल मिल गई उसे पता ही ना चला। वक़्त बीतने लगा समय के साथ बहुत कुछ बदला।
सास -ससुर का देहावास हो गया उसके बच्चे बड़े हो गए । छोटी छोटी बातें बड़ों के ना होने की वजह से तूल पकड़ ने लगी।बात औरतों से निकल के मर्दों के बीच होने लगी तो घर का माहौल कभी कभी की जगह हमेशा खराब रहने लगा।ऐसे में निर्णय हुआ कि बटवारा तो हो ही गया है अब ऐसा करो कि बीच आंगन में दीवार उठा दो ना देखेंगे ना कुछ बोलेंगे।
बस यही सोच कर रात हो गए और अगले दिन उठकर कुल्ला मुखारी कर सामान सहेजने और मजदूरों को लेने चले गए।चुकि बड़े बेटे को भी आना था सो लौट कर एरपोर्ट लेने चले गए ।लौटे तो देखा आंगन के बीचो बीच दीवार की नींव भर चुकि थी बस उठाना रह गया था।
ये देख आंखें नम हो गई सच तो ये है वो खुद भी उठाना नही चाहता था पर औरतों से ऊपर उठ के कोई बात आदमियों तक आ जाये और तो बड़े शर्म की बात होती है वो भी कहा सुनी तक हो तो बात और है यहाँ तो गाली गलौझ हो जाये तो भला कैसे बर्दाश्त हो। ये तो मर्यादा का उल्लंघन हुआ था।
भला एक ही मां के पेट से जन्में दो भाई अपनी ही मां बहन की गारी दे रहे तो कहां बर्दाश्त होता है।
वो सोच ही रहा था कि उसका बेटा सामान अंदर रख कर आ गया।इतने में उधर से छोटे चाचा का बेटा भी आया और भाई के गले लगकर रोने लगा।
भाई आप ही बड़े पापा को समझाइये पापा थोड़े आर्थिक परिस्थितियों की वजह से चिड़चिड़े और गुस्सेल हो गए है पर बड़े पापा तो समझदार हैं ।कहिये ना कि दीवार ना उठाये हम सब की आखिर । करना हम सब ऐसे कभी नही मिल पायेंगें । सिर्फ़ एक बार वो और मांफ कर दे।कहते कहते दोनों के गले लिपट गया।
जिससे इनका मन पसीज गया और दीवार उठने का काम रोक दिया।
ये देख मृदुला सोचने लगी कौन कहता है युवा पीढ़ी रिश्तों को संभालना नही जानती।आज इन्ही की बदौलत तो आंगन में दीवार उठते उठते रह गई।
कंचन श्रीवास्तव आरज़ू प्रयागराज
मौलिक अप्रकाशित रचना