काठ की हांडी बार -बार नहीं चढ़ती – लक्ष्मी त्यागी : Moral Stories in Hindi

 हाय ! उसने एकदम से मुड़कर देखा और वो मुस्कुरा कर आगे बढ़ गयी। 

 ये आज ही की बात नहीं है ,वो उसी रास्ते पर अक्सर उसे, आते -जाते देखता रहता है। शुरू में तो, उसने नजरअंदाज किया,किन्तु जब उसकी सखियों ने बताया – देख ! वो तुझे देख रहा है,तेरे लिए ही आता है।  

मुझे ही क्यों ?हो सकता है ,तुममें से किसी को देख रहा हो। 

नहीं ,ये तभी आता है ,जब तू आती है ,हममें से तो तू ज्यादा सुंदर लगती है,हम तो तुझसे पहले आते हैं ,तब तो नहीं आता ,तेरे आने पर ही क्यों आता है ? देख ,अभी भी दूर खड़ा, तुझे ही देख रहा है, उस समय तो उसने उस बात को जाने दिया किन्तु अब वो भी, कनखियों से उसे देखने लगी थी,शायद, वो जानना चाहती थी,क्या सच में ही ,वो उसे देख रहा है। अब उसे,उसका आना अच्छा लगने लगा था।

 एक दिन,उसकी सहेलियां नहीं आईं ,क्योंकि उनकी आज क्लास नहीं थी किन्तु वो आई थी और वो भी आया था। वो उसके पीछे -पीछे चलने लगा ,वो कभी तेज क़दमों से आगे बढ़ती तो कभी धीमे ,वो भी उसी के कदमताल से क़दम मिला रहा था। दोनों के लिए ये अब खेल बन गया ,दोनों ही इस खेल में मस्त हो गए। कब पूर्णिमा का कॉलिज आ गया उसे पता ही नहीं चला। तब उसका ध्यान भंग हुआ और बोली – इस तरह कब तक साथ चलोगे ? क्या तुम मेरे ‘बॉडीगार्ड ”हो ?

जीवनभर चलने के लिए तैयार हूँ ,”बॉडीगार्ड ”भी बन जाऊंगा।

 मैं ही क्यों ?और लड़कियां भी तो हैं। 

ये दिल, जिस पर आएगा,उसी के पीछे जायेगा। 

कॉलिज अब कुछ ही क़दम दूर रह गया था ,तब वो बोली – तुम्हारा नाम क्या है ?

हितेश !उसने जबाब दिया ,वो आगे बढ़ चली, मन में आया क्या वो मेरा नाम जानना नहीं चाहेगा ?किन्तु उसने,पूर्णिमा को एक बार भी नहीं टोका। बड़ा अजीब इंसान है ,अभी वो यही सोच रही थी ,तभी वो बोला -पूर्णिमा !क्या लेने भी आ जाऊँ ?वो वहीं की वहीं स्थिर हो गयी ,वापस मुड़ी और उससे पूछा -तुम, मेरा नाम जानते हो। 

हाँ ,कब से ,कैसे ?

शुरू से ही ,तुम्हारी सहेली जब तुम्हारा नाम ले रहीं थीं तभी सुन लिया था ,वो मुस्कुराई आगे बढ़ गयी। सारा दिन उसके ख्यालों में बीता ,कॉलिज से बाहर निकलते ही निगाहें उसे तलाशने लगीं। वो दूर खड़ा मुस्कुरा रहा था किन्तु पूर्णिमा ने जानबूझकर ऐसा दिखाया जैसे ,उसे पता ही नहीं है और आगे बढ़ चली। 

”इशारों -इशारों में दिल लेने वाली बता ये हुनर तूने सीखा कहाँ से ? वो गुनगुनाते हुए उसके पीछे चलता रहा। ऐसे ही ये सिलसिला आगे बढ़ता गया।

 एक दिन वो आया ही नहीं ,वो बार -बार मुड़ -मुड़कर उस स्थान को देख रही थी ,शायद अब भी दिख जाये।शायद पीछे आ रहा हो। 

तू इस तरह पीछे मुड़ -मुड़कर क्या देख रही है ?उसकी सहेली ने पूछा। क्या उसे ढूंढ़ रही है ?

नहीं तो… भला मैं उसे क्यों ढूढूँगी ?वो मेरा क्या लगता है ?

हमें क्या मालूम ,तेरा वो क्या लगता है ,जो भी लगता है ,अच्छा लगता है कहते हुए वे चारों हंसने लगीं। हमें तो लगता है तू भी उसके इश्क़ में पड़ गयी है। 

नहीं ,ऐसा कुछ भी नहीं है। 

तेरी हरकतें तो कुछ और ही कह रहीं हैं ,हँसते हुए मीना बोली। 

क्यों ,मैने ऐसी क्या हरकत की ?मुझसे इस तरह फिज़ूल की बातें न करो !बनावटी क्रोध दिखलाते हुए आगे बढ़ गयी। सभी अपनी -अपनी गलियों में मुड़ गयीं ,वो अकेली चली जा रही थी ,घर नजदीक ही था ,तभी वो आया और बोला -शाम को अपने घर के पीछे वाले पार्क में मिलना ,कहकर तुरंत ही निकल गया। 

शाम को वो आया ,पहले ही बैठा हुआ मिला ,कहो !क्या कहना चाहते हो ?

मैं तुमसे बहुत प्यार करने लगा हूँ ,क्या तुम भी मुझसे प्यार करती हो या नहीं। 

पूर्णिमा चुप हो गयी ,सोच रही थी -इसे क्या जबाब दूँ ?मैं तुम्हारे बारे में कुछ नहीं जानती ,तुम क्या करते हो ?

जबसे तुम्हें देखा है ,नकारा हो गया हूँ ,उसकी अदा देख, पूर्णिमा मुस्कुराई ,तब और प्यार भरी बातें करते हुए बोला – तुम्हारे लिए सबकुछ करूंगा किन्तु अभी बस तुम्हारा ही ख़्याल है ,वैसे मैं भी भौतिकी में परा स्नातक कर रहा हूँ। और ये बंदा !इसी विषय में शिक्षण क्षेत्र में जाना चाहता है। पूर्णिमा खुश हो गयी ,दोनों ने ढेर सारी बातें कीं। 

लगभग छह महीने पश्चात ,उसके कॉलिज की सहेली ने ,अन्य सहेलियों संग ,अपने घर पर बुलाया ,क्योंकि उस दिन ‘ईद ‘थी। रुखसाना हमें भी सिंवईयां नहीं खिलाओगी ,उन्होंने उससे पूछा था ,इसीलिए उसने उन्हें निमंत्रण दे ही दिया। जब वो लोग रुखसाना के घर में बैठी सिंवईया खा रही थीं ,तभी एक जाना -पहचाना चेहरा उनके सामने आ गया किन्तु उसने उन्हें नहीं देखा ,पूर्णिमा की अन्य सहेलियों ने भी ,उस चेहरे को देखा। तब किरण ने रुखसाना से पूछा -वो जो लड़का ,पठानी सूट में खड़ा है ,वो कौन है ?

कौन ?वो काले पठानी सूट में ,

हाँ वही ,

ओह !वो तो मेरे भाईजान हैं ,मेरे चचाजान के बेटे आदिल ! क्यों, तुम क्यों पूछ रही हो ? क्या मेरे भाईजान !तुम्हें पसंद आये कहो !तो बात चलाऊँ , कहते हुए वो मुस्कुराई किन्तु पूर्णिमा का चेहरा देख वो बोली -फिर कभी मिल लेंगे ,अभी हम चलते हैं। 

उस दिन के पश्चात ,पूर्णिमा ने उससे कभी न मिलने का अपने आप से वायदा किया किन्तु हितेश परेशां था आखिर पूर्णिमा को क्या हुआ है ?वो एक दिन ,उसके घर के सामने ही आकर खड़ा हो गया। तब पूर्णिमा ने उससे मिलने का वायदा कर उसे वहां से भेज दिया। नियत समय पर वो उसी पार्क में आया ,उस दिन पूर्णिमा का चेहरा कठोर था ,तब उसने उससे पूछा -तुमने मुझे ,अपना क्या नाम बताया था ?

क्या तुम भूल गयीं ?या भूलने का अभिनय कर रही हो ,हितेश !तो बताया था किन्तु तुम इस तरह का व्यवहार क्यों कर रही हो ?

मुझे झूठ और धोखे से सख़्त नफ़रत है ,हमारे रिश्ते की शुरुआत ही झूठ से हुई थी ,इसीलिए’आदिल मियां ‘अब ये रिश्ता और आगे नहीं बढ़ पायेगा। रुख़साना मेरी दोस्त है ,मैं’ ईद’ पर उससे मिलने गयी थी ,वहीं तुम्हें देखा था। 

असलियत खुल जाने पर वो गिड़गिड़ाया -मैं कहीं ,तुम्हें खो न दूँ इसीलिए झूठ बोला था ,अपने रिश्ते के लिए झूठ बोला। 

तब कठोरता से पूर्णिमा बोली -आदिल मियां !” काठ की हांड़ी बार -बार नहीं चढ़ती ”इस रिश्ते को मैं तो क्या, मेरे घरवाले भी स्वीकार नहीं करेंगे और हमारी ये मुलाक़ात, आख़िरी मुलाकात है ,कहते हुए पूर्णिमा अपने टूटे हुए दिल को ले, आगे बढ़ गयी। 

                ✍🏻लक्ष्मी त्यागी

#साज़िश

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