पिछले सप्ताह उनके एक पड़ोसी मित्र का सपरिवार हमारे घर पर आना हुआ । इतवार का दिन था,सो वे लोग आराम से बैठ कर गपशप करने के मूड में आए थे । मैं स्वयं बिजली विभाग में एस.डी.ओ. के पद पर कार्यरत हूँ और वे नगर के एक प्रतिष्ठित सफल व्यापारी हैं।
अलग-अलग कार्य-क्षेेत्रों से होने के बावजूद हम दोनों में एक समानता रही है। दोनों ने ही अत्यंत संघर्षों के बाद अपना-अपना मुकाम हासिल किया है। मेरे पिता शिक्षा के महत्व से पूर्णतः अनभिज्ञ, एक बहुत छोटे से दुकानदार थे। परिवार आर्थिक अभावों से ग्रसित था। इसीलिए वे मेरी शिक्षा का भार
वहन करने की असमर्थता बता कर मुझे अपने साथ अपनी दुकान का कार्य सिखाना चाहते थे। उनकी सोच थी कि इस प्रकार मेरे सहयोग से वे अपनी दुकानदारी को आगे बढ़ा पाएंगे,लेकिन मैं शिक्षा प्राप्त करके अच्छी नौकरी करना चाहता था। इसके लिए मुझे परिवार के विरोध तक का भी सामना करना पड़ा।
अंत में मैं विजयी हुआ और शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् बिजली विभाग में नौकरी करने लगा। उधर, इस पड़ोसी मित्र की पढ़ाई में बिल्कुल भी रुचि नहीं थी, लेकिन वह दिमाग और भाग्य का बहुत धनी निकला। हालांकि उसके पिता भी ‘स्क्रैप’ की छोटी सी दुकान का काम करके बड़ी मुश्किल से बच्चों
को पाल रहे थे, किंतु मित्र ने इस छोटी सी दुकान पर ही कठोर मेहनत की और धीरे-धीरे साम, दाम, दंड, भेद का अनुकरण करते हुए इसी ‘स्क्रैप’ के बल पर आज दो बड़ी फैक्टरियों का मालिक बन बैठा है।
उसका अपना एक बड़ा फार्म हाउस है। आधुुुनिक सुख-सुविधाओं से युक्त सुंदर घर है। सुंदर पत्नी तथा दो पुत्र हैं,अर्थात् अब वह परिवार सहित एक सम्पन्न जीवन जी रहा है। इस दौरान व्यापार में दो-तीन बार व्यापारिक दुश्मनों की साजिशों के तहत घपले-घोटालों की चपेट में भी अवश्य घिरा, लेकिन
स्वयं भी उन साजिशों के जवाब में मजबूत साजिशें रचकर और अच्छे वकीलों के बल पर ‘क्लीन चिट’ लेते हुए आगे ही आगे बढ़ता गया। इस संदर्भ में की गई अपनी दो बार की सपरिवार विदेशी यात्रा का जिक्र करके वह अपनी धाक जमाना भी वह कभी नहीं चूकता है। खैर..
चाय-नाश्ते के साथ-साथ हमारी बातों का सिलसिला चल पड़ा। इन बातों के बीच उसने, स्वयं शिक्षित न होने के कारण, मुझसे अपने बच्चों के करियर के लिए राय लेनी चाही, लेकिन बात शुरू
करने से पहले ही उसने मुझे ताकीद दे दी कि मैं उसे उसके बच्चों के विदेश में रहकर शिक्षा प्राप्त करने और बाद में वहीं ‘सैटल’ हो जाने के हिसाब से ही रास्ता सुझाऊं, क्योंकि धन का उसके पास कोई अभाव नहीं है।
मैं एकदम से चौंक पड़ा, ‘लेेकिन ऐसा क्यों ? तुम अपने बच्चों को विदेश क्यों भेज देना चाहते हो ? तुमने तो इतना पैसा कमा लिया है कि चाहे तो दोनों बच्चे सारी उम्र बैठ कर खा सकते हैं । आमतौर पर हमारे बच्चे अधिक पैसा कमाने की चाह में ही तो विदेशों की तरफ भागते हैं।’
‘अरे नहीं यार ! पैसे की किसे परवाह है ? पैसा बहुत है मेरे पास। बस मैं उन्हें एक ईमानदार इंसान बनाना चाहता हूँ। यहां झूठ, फरेब , छल ,कपट, भ्रष्टाचार, एक- दूसरे के जीवन में दखलंदाजी और साजिशों के सिवा और है ही क्या ? तुम तो जानते ही हो कि मैं स्वयं यहां कैसे और कितनी बार
साजिशों का शिकार हुआ हूं। अतः मैं बच्चों को पढ़ा-लिखाकर विदेश में ही कोई छोटा-सा ही कारोबार शुरू करवा दूँगा। फिर वे स्वयं चलाते रहें उसे । उनके साथ मैं खुद भी विदेश में बसना चाहता हूँ।
मैं मुंह बाए उसकी बातें सुन रहा था। मन में आया कि कह दूं कि ‘नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज पर चली ?’ किंतु मित्रता का लिहाज कर चुपचाप सुनता रहा, लेकिन कई शंकाएं अब तक मेरे व्यथित मन का पीछा नहीं छोड़ रही हैं…. व्यापार को खड़ा करने के लिए चलाए, सही-गलत,सब प्रकार के
हथकंडों ने इसे कितना डरपोक बना दिया है कि इसे अपने देशवासियों पर ही विश्वास नहीं रहा और अपने पापी धन की गठरी ले कर स्वदेश ही छोड़ देना चाहता है … हम सब समय के यह कैसे मोड़ पर आ खड़े हुए हैं, जहां हमारे चिर सनातन जीवन- मूल्यों को विदेशों में तलाशना पड़ रहा है … यह
कितना दुर्भाग्य पूर्ण है कि अभी तक तो हम अपने युवाओं के विदेश गमन को उनकी अति महत्वाकांक्षाओं का परिणाम ही मानते थे, परंतु अब ईमानदारी और विश्वास ढूँढने के लिए भी विदेश जाना पड़ेगा… किंतु मेरी ये सारी शंकाएं निरुत्तर हैं ।
उमा महाजन
कपूरथला
पंजाब।
#साज़िश!