साथ अपनों का – प्रतिभा भारद्वाज ‘प्रभा’ : Moral Stories in Hindi

“घबराने की जरूरत नहीं है, थोड़ी बहुत चोटें आईं है, कुछ दिनों में ठीक हो जाएंगी…..आप कॉल करके किसी को बुला लीजिए जिससे वह आप दोनों को घर ले जाएंगे….” डॉक्टर भास्कर ने स्मिता और उसके 8 वर्षीय बेटे की पट्टी करके स्मिता से कहा।

आज स्मिता अपने बेटे के साथ मार्केट से लौट रही थी कि तभी किसी वाहन से टक्कर हो गई थी जिसमें उसको और उसके बेटे आरव को थोड़ी बहुत चोटें आईं थीं और राहगीरों द्वारा उन्हें वहीं अस्पताल तक लाया गया था।

“नहीं डॉक्टर साहब, मैं चली जाऊंगी….” स्मिता ने डॉक्टर को उत्तर देते हुए कहा।

“मैं मानता हूं कि चोट कम है लेकिन आपके साथ आपका बेटा भी है तो मुश्किल आयेगी क्योंकि चोट इतनी भी कम नहीं है कि आप ऐसी हालत में अपने बेटे को भी संभाल लें और फिर रात भी हो गई है इसलिए अब जरूरी नहीं कि आपको आसानी से कोई वाहन मिल जाए……इसलिए कह रहा हूं कि आप किसी को बुला लीजिए…..”

“डॉक्टर साहब, यहां दिल्ली में मेरा कोई नहीं है, और मेरे पति भी काम के सिलसिले में कुछ दिन के लिए शहर से बाहर गए हैं….. इसलिए….” स्मिता ने रुआंसी होते हुए कहा।

“ओह…. एक काम कीजिए आप यहीं कैब बुला लीजिए जिससे आप आराम से घर तक पहुंच जाएंगी…..”

“हूं….”कहकर स्मिता ने एक कैब बुक की और आरव के साथ घर चली गई।

आज की रात उसे पूर्णिमा की रात होते हुए भी अमावस की रात से ज्यादा काली, भयावह लग रही थी….आज वह इस हालत में अकेले बैठी उस दिन को कोस रही थी जिस दिन उसने परिवार से अलग अपने पति के साथ इस बड़े शहर दिल्ली में रहने की सोचा था और उसके लिए सबसे जिद कर यहां रहने आ गई।

आज आरव को तो जैसे तैसे उसने सुला दिया था लेकिन उसकी आंखों से नींद गायब थी, आखिर नींद आती भी तो कैसे एक तो शारीरिक पीड़ा और दूसरा ऐसी हालत में अकेली इसलिए मानसिक पीड़ा

आरव को सुलाते सुलाते वह अतीत में जा पहुंची

जब वह बहू बनकर आई तब सब लोग कितने खुश थे सास–श्वसुर, जेठ, जेठानी , 2 ननद जो उसी की हमउम्र थीं और एक छोटा देवर…..कितना बड़ा व खुशहाल परिवार था उसका और तो और पास में ही चाचा ताऊ जी के भी घर थे मतलब सब लोग अपने ही थे जो एक दूसरे को मदद के लिए हमेशा तत्पर रहते थे जहां तक कि जरूरत पड़ने पर पड़ोसी भी मदद के लिए आगे रहते थे लेकिन यहां, यहां इस दिल्ली में पड़ोस में कौन रहता है ये तक किसी को नहीं पता रहता तो मदद की तो बात ही क्या करना…..काश आज वह अपने घर में होती तो इस समय अकेली तो नहीं होती….कितना मना किया सबने कि मैं दिल्ली न जाऊं….अनिकेत ने भी बहुत समझाया कि दूर शहर में बहुत मुश्किल होती है उस पर भी कभी अकेली पड़ गई तो मन भी नहीं लगेगा….अपना शहर अपना होता है दूर के तो बस ढोल सुहाने होते हैं….।

लेकिन मुझे तो बिना रोकटोक की, बिना किसी नियम कायदे के एक बड़े शहर में स्वतंत्र जिंदगी जीने की पड़ी थी, उन महिलाओं को देखकर जो अपने पति के साथ अलग रहती हैं मुझे लगता था कि हम कितने बंधन में हैं, न अपनी मर्जी से कहीं आ जा  सकते हैं और न कुछ कर सकते….; अब परिवार में रहकर तो कुछ नियमों को मानना ही पड़ता है, बड़े बुजुर्गों की रोका टोकी भी होती है बस यही सब मुझे बुरा लगता था जबकि हकीकत तो ये है कि यहां दिल्ली आने के कुछ दिन बाद ही ये अहसास हो गया था कि परिवार के नियम कानून सभी लोगों के फायदे में ही होते हैं और रोका टोकी बड़ेबुजुर्गों का छोटों के प्रति प्यार है वरना कौन कहां किससे कुछ कहता है? यहां मुझे अकेले ही अब कुछ करना पड़ता, कभी कभी आरव की तबियत ठीक नहीं होती तो उसे अकेले डॉक्टर के पास ले जाना, कभी खुद की तबियत खराब हो तो भी अब कुछ अपने आप संभालना, न कोई सुनने वाला और न पूछने वाला….अनिकेत भी सुबह जाकर शाम को आते थे….

मुझे कुछ ही दिनों में अहसास हो चुका था कि वास्तव में अपने शहर से दूर यहां आकर बहुत बड़ी गलती कर दी लेकिन अब किया भी क्या जा सकता था….

कुछ सोचते हुए उसने अनिकेत के पास कॉल किया कि हो सकता है इस समय तक न सोए हों लेकिन कॉल रिसीव नहीं हुई …..हो सकता हैथक कर सो गए हों ….कंपनी का कार्य ही इतना होता है कि ऑफिस तो ऑफिस घर पर भी फुर्सत नहीं मिलती काम से….इससे पहले जब अनिकेत का कॉल आया था तब मार्केट में ही बात हुई थी और फिर स्मिता ने भी यह सोचकर कि वह बेवजह एक्सीडेंट की सुनकर परेशान हो जाएंगे कॉल नहीं किया था लेकिन अब यह रात बहुत ही मुश्किल से कट रही थी;

आज उसे अपने शहर की,ससुराल वालों की, अपने बहन भाइयों की बहुत याद आ रही थी… आज वह सोच रही थी कि अपने तरीके से जिंदगी जीने की सोच ही कभी कभी हमें कितनी मुसीबत में डाल देती है…..सबके साथ रहने से अपने सुख दुख तो बांट सकते हैं सभी से और रही बात कुछ झगड़ों की तो जहां 4 लोग होंगे तो वहां 4 बातें भी होंगी तो जरूरी तो नहीं कि हर व्यक्ति हर बात से सहमत हो….लेकिन इन चार बातों में कभी लड़ना झगड़ना, कभी रूठना मनाना या कभी खुशी या दुख मिलना वाकई अकेले रहने से कई गुना ज्यादा अच्छा है….

आज उसे अनिकेत के साथ साथ अपने शहर का भी बेसब्री से इंतजार था….वह जल्द से जल्द अपने शहर जाना चाहती थी अपनों के बीच अपनों के साथ…..

आखिर कैसा भी शहर हो अपना शहर अपना ही होता है …अपनों का सिर्फ यही पूछना भी कि कैसी हो, सारी पीड़ाओं को हर लेता है…..।

प्रतिभा भारद्वाज ‘प्रभा’

#साज़िश

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