देखिए, कैसे मैं रेखा सड़क पर कटी पड़ी हूं। तड़प तड़प कर मर रही हूं। कोई देखने वाला भी नहीं। एक ट्रक ने टक्कर मारी और मैं उसके पहिए के नीचे आ गई। मैं बीच में से कट गई। कमर से नीचे का हिस्सा अलग और ऊपर का अलग। आह!आह! बहुत दर्द हो रहा है, असहनीय पीड़ा। काश! मेरे जीवन में वो काली रात ना होती और मैंने वह गलती ना की होती। काश! यह सब एक सपना होता और मैं सही सलामत अपने घर पर होती अपने पति,अपने साथ ससुर और बच्चों के साथ।
मैं एक छोटे से शहर में, अपने परिवार के साथ हंसी खुशी जीवन बिता रही थी। मेरे सास ससुर बहुत अच्छे थे, हालांकि पहले वह मुझे बुरे लगते थे। दो प्यारे प्यारे बच्चे एक बेटा और एक बेटी और समझदार पति योगेश जो कि पहले मुझे नासमझ और कंजूस लगता था।
मेरे पति एक छोटा सा ढाबा चलाते हैं। भगवान की कृपा से इतनी कमाई हो जाती थी कि हमारा परिवार बहुत अच्छा चल रहा था। दोनों बच्चों की पढ़ाई लिखाई, घर का खर्च, सास ससुर की दवा पानी कभी-कभी आसपास कहीं घूमना, रिश्तेदारी में लेनदेन सब कुछ सही चल रहा था। योगेश थोड़ी बहुत बचत भी कर लेता था।
लेकिन मुझे इन सब चीजों से संतोष नहीं था। मुझे बहुत सारे गहने, बहुत सारा पैसा, और दूर-दूर विदेश में घूमने की इच्छा थी। योगेश ने मुझे कई बार समझाया कि धीरे-धीरे सब कुछ हो जाएगा, तसल्ली रखो। एक न एक दिन हम भी, विदेश घूमने जाएंगे। लेकिन कब, यही मेरा सवाल था। मेरे माता-पिता समान सास ससुर ने भी मुझे बहुत समझाया लेकिन मेरी समझ में कुछ नहीं आया। मैं योगेश से नौकरी करने की जिद करने लगी लेकिन मैंने कभी यह नहीं सोचा कि मुझ में नौकरी करने की योग्यता है भी या नहीं। मैं स्वयं को परफेक्ट समझती थी। योगेश चाहते थे कि मैं घर पर ही रहकर बच्चों की देखभाल करूं और उनके माता-पिता को देखूं। मुझे यह सब नहीं भाता था।
एक दिन मैंने अपने पति योगेश से कहा -” मुझे मूवी देखनी है। ”
योगेश-” अच्छा ठीक है, कल मैं शाम को जल्दी आ जाऊंगा और फिर चलेंगे। ”
अगले दिन योगेश को अपने ढाबे से निकलने का टाइम ही नहीं मिला और मैं उधर बन संवरकर तैयार बैठी थी। इंतजार करते-करते समय निकल गया और मेरा पारा हाई हो गया। मैं सास ससुर को भी खूब खरी खोटी सुनाई, कि आपका बेटा ऐसा है वैसा है, मेरी परवाह नहीं करता, आप लोग भी उसे कुछ नहीं कहते हैं। बच्चों को भी मैंने मारा पीटा, खाना भी नहीं बनाया। मेरी सास ने योगेश को फोन करके ढाबे से खाना मंगवाया। उस दिन योगेश ने मुझे प्यार से समझाने की और मनाने की बहुत कोशिश की, लेकिन मैं कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी।
मैंने मन ही मन एक निर्णय ले लिया था। सब लोगों के खाना खाकर सोते ही, मैं पैसे लेकर, रात में घर छोड़कर चली गई। मैंने सोचा था कि किसी गांव में जाकर कुछ काम कर लूंगी और इनसे ज्यादा कमा कर अपनी इच्छाएं पूरी करके दिखाऊंगी, लेकिन वास्तव में सब कुछ फिल्म जितना आसान नहीं होता। रात को मुझे अकेले रेलवे स्टेशन जाने में इतना डर लग रहा था कि आज तक कभी नहीं लगा था।
फिर भी मैं रेलवे स्टेशन जैसे तैसे पहुंच गई। वहां न जाने कौन से गांव का टिकट लेकर ट्रेन में चढ़ गई। गांव ज्यादा दूर नहीं था। ट्रेन से जब उतरी तो आधी रात का समय था। लगभग 3:00 रहे थे। ट्रेन में मैं 12:00 बजे चढी थी। आधी रात के समय आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं हो रही थी।
फिर मैंने देखा कि दो-तीन यात्री, उसी गांव की तरफ जा रहे हैं। उनके साथ में भी चलने लगी। उन यात्रियों में एक स्त्री भी थी। उनका घर नजदीक में ही था। उस औरत ने मुझे अपने घर रुकने के लिए कहा। उसने कहा कि अभी आधी रात है सुबह को अपने घर चली जाना। लेकिन मैंने उसकी बात नहीं मानी और उसे झूठ-मूठ कहा कि मेरे रिश्तेदार का घर पास में ही है और बस यही मैंने एक और गलती की।
मैं आगे बढ़ने लगी। खेतों वाला रास्ता आ गया था। तभी मुझे किसी ने अपने हाथों से पकड़ कर खेतों के बीच में खींच लिया। कम से कम चार आदमियों ने मेरे साथ शारीरिक शोषण किया फिर उन्होंने मुझे बेहोशी की हालत में उठाकर किसी गाड़ी में पटक दिया और फिर गांव से दूर ले जाकर सड़क पर फेंक कर चले गए।
मैं जैसे तैसे हिम्मत करके उठी, तभी अचानक एक तेज रफ्तार से चलता हुआ ट्रक मुझे टक्कर मार कर चला गया और अब मैं मर रही हूं।
मुझे एहसास हो रहा है कि मुझे अपना परिवार और अपना घर नहीं छोड़ना चाहिए था। स्त्री अपने घर में जितनी सुरक्षित है, बाहर बिल्कुल नहीं। घर छोड़कर मैंने क्या पाया, कुछ भी नहीं, बल्कि अपनी इज्जत और जिंदगी को गवां बैठी। अगर किसी के मन में भी ऐसा विचार आ रहा है तो मेरी आपसे हाथ जोड़कर प्रार्थना है कि अपना घर छोड़कर कहीं ना जाएं, अपने परिवार के साथ सुरक्षित रहें।
अप्रकाशित स्वरचित गीता वाधवानी दिल्ली
कहानी का शीर्षक- वो काली रात
साप्ताहिक प्रतियोगिता विषय # काली रात