सच में ये आज कल जो बच्चों का ये me time concept कितना अच्छा है ना, कुछ वक्त सिर्फ अपने लिए, अगर बच्चों ने ज़िद कर के मुझे अकेले नहीं भेजा होता तो मैं ये अहसास ही नहीं कर पाती कि ये खुद के साथ समय बिताना कितना सुकून भरा होता है….
सोचते सोचते गरिमा जिस मॉल में अपना “me time”बिता रही थी उसी के एक रेस्टोरेंट में कोने का एक टेबल खोज के बैठ गई। वो तो घर परिवार में इतना उलझ गई थी कि खुद को भूल ही चुकी थी, उसे तो ये भी याद नहीं रहा कि खाने में अब क्या अच्छा लगता है।
बड़े हो चुके, हां सच में अब उसे लग रहा है सच में उसके बच्चे बड़े हो चुके हैं तभी तो उसके लिए सोचे और आज बेटे ने उसके पर्स में अपना credit card देकर यहां भेज दिया, कि कुछ पल वो खुद को खोज सके।
अपने लिए अपना मनपसंद रवा डोसा का ऑर्डर दे वो अपना मोबाइल देखने लगी,
“तुम गरिमा हो ना?
गरिमा पलट के देखा और पहचानने की कोशिश की
“अरे ये तो मानसी है…
मानसी!!!!!
“हां मैं मानसी,” और वो लिपट गई गरिमा से।
पर चाहते हुए भी गरिमा उससे उतनी गर्मजोशी से नहीं मिल पाई , अतीत का कोई कांटा कहीं चुभ रहा था।
शायद मानसी भी ये महसूस की और, खुद उससे अलग हो गई।
“तू भी मुझे ही गलत समझी ना गरिमा, आज इतने बरसों बाद भी तू भूली नहीं, लोगों की बातें तुझे सच्ची लगी तभी एक बार भी मुझ से कुछ नहीं पूछा, ना कभी मुझ से मिलने की कोशिश ही की, क्यों सच कहा ना?” मानसी की आवाज का दर्द उसे अंदर तक हिला डाला।
ये वही मानसी थी जिसके बिना ना स्कूल अच्छा लगता था ना कॉलेज, अगर मानसी किसी दिन नहीं जाए तो वो भी बहाने बनाने लगती थी कि छुट्टी मिल जाए। और फिर इसी मानसी के बारे में उसने कुछ ऐसा सुना कि मिलना तो दूर बात भी करना गवारा नहीं समझा उसने।
” गरिमा फांसी देने से भी पहले कैदी से उसकी आखिरी ख्वाहिश पूछी जाती है, पर तुम्हें भी क्या दोष दूं जब मेरे अपनों ने ही मुझे कसूरवार समझ लिया, मेरी किसी बात पर यकीन नहीं किया।”कहते कहते मानसी रो पड़ी।
वो तो शुक्र था वो दोनों कोने वाले टेबल पर थीं नहीं तो पता नहीं लोग क्या सोचते।
गरिमा क्या कहे, उसने तो सबसे यही सुना था कि मानसी के कारण ही उसकी बड़ी बहन ने सुसाइट कर लिया था क्योंकि उसके जीजाजी से मानसी के संबंध थे । पर गरिमा को कभी इस पर यकीन नहीं आया था क्योंकि वो अपनी मानसी को बचपन से जानती थी, पर जब उसने सुना कि मानसी ने अपनी दीदी के जाने के बाद जीजाजी से शादी कर ली तो कहीं उसे भी लगने लगा शायद उसने ही मानसी को समझने में गलती कर दी, पर आज मानसी की बातें उसे वापस अपने विचार बदलने को मजबूर कर रही थी।
मानसी अब तक खुद को संभाल चुकी थी।
“गरिमा अब सफाई देने की सीमा से बहुत दूर निकल गई हूं मैं, पर आज बरसों बाद तू मिली, और ना जाने क्यों तुझे देख लगा मुझे थोड़ा खाली होना है, बहुत भरी हूं मैं गरिमा,please खाली होने दे मुझे अपने सामने, जैसे बचपन से तेरे सामने ही तो हल्की हुई हूं।”
“ओह मानसी”,
कस के लिपटा लिया गरिमा ने अपने बचपन को ।
“कह ना…
“हां आज सब कहूंगी क्योंकि तू समझेगी सब…
नीरा दी को तू भी बचपन से देखी है, कितनी जिद्दी और अहंकारी रही हैं, अपनी सुंदरता के आगे कभी किसी को नहीं समझा, मैं तो उनकी छोटी बहन थी पर हमेशा मुझ से competition किया, कोई चीज भी मुझे उनसे अच्छी मिल जाती वो घर में हंगामा कर देती थी “
गरिमा भी जानती थी नीरा दी को अच्छी तरह से, बेहद खूबसूरत थी नीरा दी, पर मानसी के चेहरे में एक अलग सा भोलापन और मासूमियत थी जो हर किसी को अपने तरफ खींच लेता था और नीरा दी का स्वभाव उनके चेहरे पर भी झलकता था, वो कहते हैं चेहरा मन का दर्पण होता है बस वही बात थी, और इसी के कारण ज्यादातर लोग मानसी की तारीफ ज्यादा करते थे और यही बात नीरा दी को गवारा नहीं होता था।
मानसी बोली
“तू तो तब वहां से दूसरी जगह चली गई जब नीरा दी की शादी हुई, शादी के बाद भी जरा भी नहीं बदली, जीजाजी को तो अपने सामने कुछ नहीं समझती थीं, फिर जब गुड़िया हुई तो अकेले उसे संभालने में उन्हें परेशानी हो रही थी और चुकी ससुराल में भी उनकी किसी से ज्यादा नहीं जमती थी तो कोई उनके साथ रहना नहीं चाहता था, मां भी पापा और भाई को छोड़ के नहीं जा पा रही थी और तब तक मैं भी जॉब में आ चुकी थी, तो मां ने मुझे ही कुछ दिनों के लिए उनके पास जाने को कहा, मेरा तो बिल्कुल मन नहीं था पर गुड़िया के कारण मैं चली गई।
अब तुम्हें क्या क्या बताऊं, कितनी शक्की थी दी, जीजाजी जरा भी मुझ से बात कर ले तो वो खाना पीना छोड़ देती थी, मुझे भी कह रखा था मैं जब जीजाजी हो उसके कमरे में ना जाऊं , बस मुझे सिर्फ गुड़िया को देखना है और उसकी सेवा करनी है, पता नहीं उसे क्या हो गया था, अक्सर जीजाजी से उसकी लड़ाई होते रहती थी।
एक बार उनके एक दोस्त की पत्नी किसी काम से मिलने उनसे आई तो उसके जाने के बाद बुरी तरह भड़क गई थी जीजाजी पर और अनाप शनाप बकने लगी थी।
उस दिन सुबह से मुझे बुखार था, बहुत कंपकंपी हो रही थी, मेरे पास बुखार की दवा थी तो रात में दवा लेकर मैं सो गई थी, शायद नींद में मैं कराह रही थी, और जीजाजी ने मेरी आवाज सुनी होगी तो वो मुझे देखने मेरे कमरे में आएं, चुकी ठंड से मैं कांप रही थी तो वो कंबल लेने अपने कमरे में गए और लाकर मेरे ऊपर डाल दिए, तभी दीदी की चिल्लाने की आवाज कानों में पड़ी
“मैं पहले से ही जानती थी आप दोनों के बीच कुछ है, ये मेरी बहन इतनी नीच हो सकती है मैं सोच भी नहीं सकती , मेरे पति को ही मुझ से छिनना चाहती है, तू अभी निकल मेरे घर से”
और नीरा दी वैसी हालत में मुझे पलंग से नीचे खींचने लगी, जीजाजी को भी गुस्सा आ गया और उन्होंने मेरा हाथ उससे छुड़ाया
“पागल हो गई हो तुम, क्या बोल रही हो, क्या कर रही हो कुछ भी खबर है तुम्हें.. जीजाजी गुस्से से अपना आपा खो दिए और दी को एक थप्पड़ लगा दिया।
बस दी ने मम्मी पापा को फोन कर मेरे और जीजाजी के बारे में बहुत उल्टा पुल्टा बोला, जीजाजी उससे फोन लेने लगे और तब वो गुस्से में बेहद हिंसक हो गई अपना सर उसने खुद ही दीवाल से टकरा कर लहूलुहान कर लिया और मुझे कोसे जा रही थी
“तूने मेरी जिंदगी बर्बाद की है, तू क्या सोचती है तू सुखी रहेगी तू कभी खुश नहीं रहेगी, मेरा घर तुमने बर्बाद किया तेरा घर भी कभी नहीं बसेगा”।
बहुत बद्दुआ दिया उसने मुझे रे गरिमा, और फिर कमरे में खुद को बंद कर लिया, चुकी जीजाजी भी बहुत गुस्से में थे और मैं अपनी क्या कहूं, क्या हालत थी मेरी, हमें क्या खबर थी वो अपना नस काट लेगी?
एक चिट्ठी….. जिसमें उसने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा,
छोड़ अपनी नस काट ली, हमें और जीजाजी को जरा भी अंदाजा नहीं था वो ऐसा कदम उठा लेगी, वो पहले भी गुस्से में कमरा बंद कर लेती थी, पर जब तक हमें पता चलता बहुत देर हो चुकी थी, मेरी जिंदगी को श्राप बना वो जा चुकी थी………. वो काली रात ऐसी आई जिसके बाद मेरी की कोई सुबह ही नहीं हुई।
जब सभी लोग आएं तो पापा की वो लाडली थी तो पापा ने भी मुझे ही दोषी करार दिया और मेरे लिए यही सजा मुकर्रर की कि गुड़िया की मां को मैंने ही छीना है तो मैं ही उसकी मां बनूं, और उस काली रात की ये सजा आज भी मैं भुगत रहीं हूं गरिमा
“कुंवारी मां” बन के…!!!!!!!!!!
स्वलिखित
अर्चना नयन