गोश्तखोर – रवीद्र कान्त त्यागी :  Moral Stories in Hindi

दुनिया में साली कोई सबसे वाहियात जॉब हो सकती है तो वो है पुलिस की नौकरी. न समय का पता न जीवन की सुरक्षा. ऊपर से जिसकी आँखों में देखो अपने लिए नफ़रत ही दिखाई देती है.

रातभर चैन से सो रहे शहर की सुरक्षा में उल्लू की तरह जागकर सुबह चार बजे तनिक कमर सीधी की थी कि फोन के घंटी घनघनाने लगी. न जाने अब कौन सी आग लग गई शहर को.

रेडलाइट एरिया में एक वैश्या ने तीसरी मंजिल से छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली है. साली रंडियों को भी मरने का टाइम रात को ही मिलता है. अरे दिन में मरने को कौन मना करता है. वैसे मर तो तुम उसी दिन जाती हो जिस दिन इस बाजार में आती हो.

घटना स्थल पर कोई ख़ास भीड़ नहीं थी. दो चार दल्ले टाइप के लोग और कुछ औरतें ….. वैसे उन्हें औरत कहना तो औरत जात का अपमान ही है मगर ….. जो है सो है.

लाशों के चेहरों पर गौर करने का मुझे कभी शौक नहीं रहा. न जाने कितनी क्षत विक्षत, वीभत्स और विकृत मृत मानव देह देखते देखते सब कुछ सामान्य सा लगने लगा है …… मगर न जाने क्यूँ बार बार निगाह उस बालिका के चेहरे पर आकर ठहर जाती थी जिसकी उम्र मुश्किल से सत्रह अठारह साल रही होगी. घने काले बालों के बीच से लाल रक्त की धार मुंदी हुई आँख के ऊपर से बहकर चिबुक पर आकर ठहर गई थी. शक्ल पर ऐसी मासूमियत जैसे किसी उच्च माध्यमिक स्कूल की छात्रा हो. गोरा अर्ध मंगोलियन शैली का मुखमंडल,  होठों पर बेतरतीब सी घटिया लिपस्टिक और गालों पर कोई चमकने वाला परावर्तक पेंट लगाया गया था.

कैसे भयानक दानव हैं वो लोग जो जीते जागते भावनाओं से भरे एक संवेदनशील इंसान को केवल मांस का लोथड़ा समझते हैं और कामुक पुरुषों की हवस मिटाने का सामान. मगर … मगर क्या इस अमानवीय व्यापार के लिए इसमे जुटे हुए दलाल और बाजार सजाये बैठी खालायें जिम्मेदार हैं. और वो सफ़ेद पोष जिन्हे अपनी बेटी से भी कम उम्र की लड़की चाहिए, गरम गोश्त की भूख मिटाने को. और ……. और हम कानून के रखवाले. आज खुद पर शर्म आ रही थी और वर्दी के कंधे पर लगे सितारे एक भारी बोझ की तरह कंधों को तोड़े डाल रहे थे.   

उदास सा मन लेकर लाश का पंचनामा करके पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया. कुछ लोगों से हल्की फुल्की पूछताछ की और उसके कमरे की तलाशी लेने चल दिया. वैसे इसमें पूछने के लिए होता भी क्या है. ऐसे मुहल्लों में साल छह महीनों में एक आध मर्डर या सुसाइड होता ही रहता है. वैसे भी हमारा डिपार्टमेंट इनके लिए हमेशा फ्रैंडली ही रहता है. चोली दामन का साथ है भई. इसलिए आधे मामले फाइलों में बंद होकर दम तोड़ देते हैं। बाकी में छोटी मोटी औपचारिकता करके फाइनल रिपोर्ट लगा दी जाती है।

उसे कमरा कहूँ या दड़बा. अधिक से अधिक छह बाई आठ का प्लाई बोर्ड से पार्टीशन किया हुआ एक केबिन सा था जिसमे एक सिंगल बैड पर मैली सी चादर बिछी हुई थी. सारे वातावरण में फ़ैली सीलन की महक, सस्ते मेकअप की खुशबू के साथ अल्कोहल की बदबू मिलकर हवा में एक अजीब सी घुटन पैदा कर रही थीं. फर्श पर शराब की एक खाली बोतल लुढ़क रही थी. एक लकड़ी के फट्टे से बनाई रैक पर कई रंग की लिपस्टिक, क्रीम और लोशन रखे थे. बैड पर बिछाये हुए गद्दे को उलटकर देखा तो कुछ रुपये के छोटे बड़े नोट और सिक्के बिछाये हुए थे. सब मिलाकर बमुश्किल दो चार हजार रुपये रहे होंगे. वहीं एक पुरानी मटमैली सी हो गई स्कूल कॉपी जैसी डायरी दिखाई दे रही थी जिस में हर पन्ने पर कुछ न कुछ लिखा हुआ था.

न जाने क्या सोचकर डायरी मैंने अपनी जेब के हवाले की.

तभी एक मोटी सी महिला आई और बिना एक शब्द भी बोले नोटों की एक मोटी सी गड्डी मेरी जेब में ठूंसकर चुपचाप चली गई.

कुछ दिनों में बात आई गई हो गई. पंद्रह साल की पुलिस की नौकरी में इतने वीभत्स, क्रूर, हृदयविदारक, जघन्य और अकल्पनीय मामले देखे हैं कि किसी एक को लिए बैठे रहे तो हो ली पुलिस की नौकरी. मन पर लिपट गई स्याही को घर जाकर एल्कोहल के दो पैग से धोना पड़ता है तब नींद आती है वार्ना यहाँ इंसान पागल हो जायेगा.

इस बार तीन महीने बाद घर जाने की छुट्टी मिली. कभी साम्प्रदाइक तनाव कभी वीआईपी ड्यूटी तो कभी इलेक्शन.

बच्चों में पहुंचकर बड़ा अच्छा लगता है. कुछ दिनों के लिए नौकरी के झंझटों से मुक्ति मिल जाती है.

एक दिन बाथरूम से नहाकर निकला तो बड़ी बिटिया एक मैली सी डायरी को उलट पलट रही थी. दिमाग में बिजली सी कौंध गई. अरे ये तो वही है. एक वेश्या की डायरी. न जाने क्या क्या वाहियात अश्लील बातें लिखी होंगी. मैंने तुरंत बेटी के हाथ से डायरी झपट ली और अलमारी में बंद कर दी. एक बार फिर सड़क पर पड़ी उस लड़की का मासूम चेहर आँखों के सामने घूम गया था.

जिज्ञासा शांत करने को एक दिन फुर्सत में डायरी खोलकर बैठ गया .

पहला पन्ना – मुम्मा तू बहुत याद आती है.

दूसरा पन्ना – मुम्मा तुझे पता है तेरी छोरी कहाँ है. कहाँ नौकरी कर रही है. वो एक नर्क में है और रोज मर रही है. माँ मैं तेरी लाडली. क्या गुनाह किया था मैंने. रूखी रोटी खाकर तेरी दहलीज पर पड़ी रहती. क्यों भेज दिया मुझे मरने को इस नर्क में.

तीसरा पन्ना – मुम्मा , पूछेगी नहीं कि परदेस में कौन सी नौकरी करती है तेरी बेटी. तेरी बेटी रंडी बन गई है माँ. रंडी.

चौथा पन्ना – मुम्मा , यहाँ एक खाला है. सब उसे खाला कहकर ही पुकारते हैं. वो ही मुझे रोटी देती है. बुखार हो जाय तो इलाज कराती है. बड़ा मीठा मीठा बोलती है लेकिन ग्राहक आ जाये तो … तो डायन बन जाती है. बूढा हो, खुजली का मरीज हो, चार दिन से न नहाया हुआ सड़ा इंसान हो, एक बार खाला की गांठ में पैसे गए, फिर कोई भी लौंडिया हो, उसकी कितनी भी चहेती हो, झोटा पकड़कर कमरे में ढलेल देती है.

अगला पन्ना – मुम्मा , मैं तेरी लाडली बेटी. क्या कहती थी तू. कलक्टर बनाएगी मुझे. पूरी क्लास में सबसे ज्यादा नंबर जो आते थे मेरे. दस रुपिया ही तो फीस थी मेरी. मैं मजदूरी करके कमा लेती. भीख मांग लेती मगर इस नर्क में तो नहीं आती. मैं तो बच्ची थी माँ. तू तो समझ जाती कि नौकरी के नाम पर ये लोग लड़कियों को कहाँ ले जाते हैं. मैं मर रही हूँ माँ. हर दिन हर पल मर रही हूँ. कुत्ते जैसे सड़े हुए मुँह वाले जंगली मर्द जिन्होंने चार दिन से कुल्ला भी नहीं किया होता तेरी बेटी के ऊपर टूट पड़ते हैं. नौचते हैं, काठते और न जाने क्या क्या करते हैं. क्या एक बेटी अपनी माँ को ये सब बता सकती है. मुझे उल्टी होने लगती है माँ, तो ग्राहक खाला से शिकायत कर देता है. फिर खाला मारती है. बहुत मारती है..। कभी कभी वहाँ पल रहे मर्दों से भी पिटवाती है.

अगला पन्ना. मुम्मा आज यहाँ बरसात हो रही है. ठंडी हवा चल रही है. मेरे नेपाल के पहाड़ो जैसी ठंडी हवा. मेरी खिड़की के सामने एक बड़ा सा बरगद का पेड़ है. उसके पत्तों पर टपकती हुई बारिश की बूँदें संगीत का स्वर उत्पन्न करती हैं. घंटों अपने उम्र भर के कैदखाने की खिड़की पर बैठकर अपने घर लौट जाने के सपने देखती हूँ. बाहर आजादी है, भागते दौड़ते लोग है, स्कूल जाते बच्चे हैं, काम पर जाती लड़कियां हैं और भीगा भीगा सा सुहाना मौसम है … और मेरे पीछे … वहां सड़े हुए बदबू मारते बिस्तर और उनपर रेंगते वासना के कीड़े हैं. घुट घुटकर मरती जवानियाँ हैं, दरकते सपने हैं और पिघलते शरीर हैं.

मुम्मा एक दिन एक पुलिस वाला आया था. सफेद मूछों वाला बूढा, शक्ल से बिलकुल मेरे बाबा जैसा दिखता था. मैंने उसके पांव पकड़ लिए और खूब रो रोकर कहा “काका मुझे यहाँ से बाहर ले चलो. मैं तुम्हारी बेटी जैसी हूँ”.

उसने खाला से मेरी शिकायत कर दी. उस दिन मुझे खूब मार पड़ी. मैं रात भर रोती रही मगर यहाँ आंसू पोंछने वाला कोई नहीं हैं. दाज्यू को भेजकर मुझे बचा ले माँ.

अगला पन्ना – मुम्मा कल एक आदमी आया था. आदमी क्या था, गोश्त का लोथड़ा था. इतना मोटा कि उस के शरीर से चार आदमी बन जांय. उसके बदन से मरी हुई मछली जैसी पसीने की सड़ांध आ रही थी. मुम्मा उसका मुँह ऐसा था जैसे राक्षस का मुखौटा हम नेपाल में नजर उतारने के लिए दरवाजे पर लगाते हैं. पेट इतना बड़ा कि करवट भी नहीं ले सकता था. मैं तो बुरी तरह डर गई थी. उसने अपने गंदे दांत मेरे शरीर में गड़ा दिए. मेरी तो चीख निकल गई थी. जितना मैं चीख़ती उतनी ही और ज्यादा कुत्ते की तरह मेरे शरीर पर टूट पड़ता. फिर हांफने लगता और धड़ाम से बैठ जाता. वो … वो अपना बालों से भरा हुआ बदबूदार शरीर का हिस्सा मेरे मुँह में घुसेड़ देना चाहता था माँ. मैं चिल्लाने लगी. रोने लगी तो उसने खाला को आवाज दी. मुझे उलटी आ रही थीं और वो चिल्ला रहा था. उसकी आवाज ऐसी थी जैसे कोई सूअर गंदी नाली में मुँह घुसाकर सांस के बबूले छोड़ता हैं.

खाला भागती हुई आई. मोटे राक्षस ने चिल्लाकर कहा “मूड खराब कर दिया साली ने. कल फिर आऊंगा … और यही लड़की चाहिए यही. तैयार करके रखना इसे”.

मुम्मा वो कल फिर आएगा. पेशाब में भीगा हुआ अपना गन्दा शरीर मेरे मुँह में डालेगा. मुझे बचा ले माँ. मैं ये सब बर्दाश्त नहीं कर सकती . (इस पृष्ठ पर अनेक आंसुओं की बूंदों के निशान थे)

अगला और आखिरी पन्ना सबसे अलग था .

मैं आ रही हूँ माँ. अपनी पहाड़ियों की ठंडी हवाओं में तेरे हाथ की माखन रोटी खाने. दाज्यू से कहना मेरे स्कूल में मेरा नाम लिखवा दे. मैं पढ़ने जाउंगी. अपनी सहेलियों के साथ खूब खेलूंगी. हवाओं से बातें करूंगी. पेड़ों की पत्तियों से घर बनाउंगी. नदिया का संगीत सुनूंगी और झरनों की नन्ही नन्ही बूंदों में भीग भीग जाउंगी. आजादी. आज की रात आजादी. मुम्मा आज की रात तेरी सोन चिरईया उड़ जाएगी पिंजरे की सलाखें तोड़कर, सतरंगी पंख फैलाकर सातवें आसमान पर… मुक्ति … हवा …. रेल … पहाड़ … मेरे परमात्मा …

पुलिस की नौकरी में जाने के बाद उस दिन पहली बार मैं अपनी बिटिया को गले लगाकर खूब रोया. सारे घर के लोग पूछते रहे कि क्या हुआ मगर मैं बताता तो क्या बताता. बस मैं रोता रहा.

रवीद्र कान्त त्यागी

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