गाँव के उस सिरे पर, जहाँ पीपल का एक बूढ़ा पेड़ खड़ा था, वहीं मिट्टी की टूटी झोपड़ी में सावित्री अपने दो बच्चों के साथ रहती थी। दिन भर खेतों में दूसरों की मजदूरी करना और रात को बच्चों को आधे पेट खिला कर सुला देना ही उसकी दिनचर्या बन चुकी थी। पति रमेश शहर कमाने गया था, लेकिन महीनों से उसकी कोई खबर न आई थी। धीरे-धीरे उसकी आँखों में इंतज़ार सूख गया और सवालों की जगह सिर्फ़ खामोशी रह गई।
गाँव वालों के लिए सावित्री एक मज़दूर औरत से ज़्यादा कुछ नहीं थी। लोग उसे काम के लिए पुकारते, मजदूरी देते, और फिर उसे भूल जाते। लेकिन बच्चे… वही उसकी जिंदगी का सहारा थे। आठ साल की बिटिया रानी और पाँच साल का बेटा गोपाल। उनकी मासूम मुस्कान ही उसकी थकी देह को जीने का हौसला देती।
उस दिन भी सावित्री थक कर लौटी थी। रानी ने दौड़कर माँ का आँचल थाम लिया – “माँ, आज स्कूल में मास्टर जी बोले थे कि कल फीस जमा न हुई तो हमें क्लास से निकाल देंगे।”
सावित्री के चेहरे पर एक भारीपन उतर आया। उसकी मजदूरी तो चूल्हा-चौका चलाने में ही खत्म हो जाती थी। लेकिन उसने बिटिया के सिर पर हाथ फेरा और बोली – “मत घबराना, माँ कुछ करेगी। पढ़ाई तुम्हारी कभी रुकेगी नहीं।”
रात गहरी हो चली थी। गाँव के ऊँचे घरों से दाल-पूरी की खुशबू आ रही थी, लेकिन सावित्री के घर में सिर्फ़ सूखी रोटियाँ थीं।
गोपाल ने नखरे में कहा – “माँ, आज मुझे दूध चाहिए।”
सावित्री ने आँसू छुपाते हुए कहा – “कल ला दूँगी बेटा, अभी यही खाकर सो जाओ।”
बच्चे तो सो गए, लेकिन सावित्री की आँखों से नींद कोसों दूर थी। वह सोच रही थी कि कहाँ से लाए फीस के पैसे? तभी बाहर से ठक – ठक की आवाज़ आई। झोपड़ी की दीवारों से झाँककर देखा तो गाँव का प्रधान, उसके दो साथी और चौकीदार खड़े थे।
प्रधान ने धीमी आवाज़ में कहा – “सावित्री, तेरे ऊपर बीस हज़ार का क़र्ज़ है। लेकिन तूने अब तक चुकाया नहीं। रोक के रोक ब्याज बढ़ता जा रहा है। अगर पैसा नहीं है, तो और तरीका भी है… समझ तो रही है न?”
उसकी आँखों में हवस का अँधेरा था।
सावित्री काँप उठी। उसने गिड़गिड़ाते हुए कहा – “मालिक, बस थोड़ा वक्त और दे दीजिए। मैं तो बस बच्चों के लिए जी रही हूँ। उन्हें देखकर ऐसा मत कहिए।”
लेकिन हवस से भरे वो लोग उसकी बेबसी पर हँस पड़े। प्रधान ने झोपड़ी की ओर कदम बढ़ाए। ये सब देख सावित्री का दिल दहल उठा।
बच्चों को अपनी गोद में समेटते हुए उसने चिल्लाकर कहा – “मेरे घर के दरवाज़े पर कदम मत रखना! मेरी गरीबी का मज़ाक उड़ाना है तो उड़ाओ, लेकिन एक औरत और माँ की इज़्ज़त को मत रौंदो, मैं हाथ जोड़ती हूँ तुम्हारे सामने।”
लेकिन उन पर कोई असर ना हुआ, उनकी गंदी हँसी कुछ देर और गूँजी, फिर वे धमकी देकर चले गए – “सोच ले, रात बहुत लंबी होती है… और अकेली औरत ज्यादा देर टिक नहीं पाती।”
उस रात सावित्री ने बच्चों को सीने से चिपटाए जागते-जागते एक फैसला लिया।
सुबह होते ही वह खेत के मालिक के पास गई और बोली – “मुझे मजदूरी से ज्यादा काम चाहिए। मैं दिन-रात काम करूँगी, लेकिन बच्चों की पढ़ाई नहीं रुकनी चाहिए।”
खेत मालिक ने दया कर उसे काम तो दे दिया, लेकिन दिहाड़ी वही रही।
दिन गुजरते गए। रानी स्कूल जाने लगी, गोपाल भी साथ में खेलने लगा। लेकिन कर्ज़ का बोझ सावित्री की हड्डियों को तोड़ने लगा था। गाँव वाले ताने कसते – “औरत अकेली है, ज़रूर कोई ना कोई सहारा होगा। नहीं तो कैसे जी रही है अब तक?”
उन तानों का ज़हर उसके कानों में हर रोज़ घुलता। मगर उसने ठान लिया था कि बच्चों को पढ़ाकर ही दम लेगी।
लेकिन किस्मत इतनी आसान कहाँ थी। एक रात, सावित्री खेत से देर से लौटी। उसने देखा कि झोपड़ी के पास भीड़ लगी थी। उसका दिल धक से रह गया। अंदर घुसते ही उसने देखा उसकी बिटिया रानी खून से लथपथ पड़ी थी। गोपाल डर से कोने में दुबका था।
गाँव वालों की फुसफुसाहट ने सब राज खोल दिया, प्रधान के बेटे और उसके दोस्तों ने रानी के साथ दरिंदगी की थी।
सावित्री की दुनिया उजड़ गई। उसकी चीख पूरे गाँव में गूँजी –
“हे भगवान, मेरी मासूम बच्ची को क्यों…?”
लेकिन गाँव वाले चुप रहे। कोई गवाही देने को तैयार नहीं। प्रधान का डर सब पर भारी था। पुलिस आई भी तो पैसे खाकर केस दबा दिया गया।
सावित्री ने थाने के बाहर फूट-फूटकर रोते हुए कहा – “क्या मेरी बेटी की इज़्ज़त की कीमत सिर्फ़ नोटों में है? इंसाफ़ कहाँ मिलेगा?”
लेकिन दरवाजे उसके लिए हर जगह बंद हो गए।
रानी कई दिनों तक ज़िंदगी और मौत के बीच झूलती रही। सावित्री अस्पताल के बरामदे में जमीन पर सोती, भगवान से दुआ करती –
“मेरे प्राण ले लो, पर मेरी बच्ची को बचा लो।”
लेकिन एक काली रात भी आई जब उसने दम तोड़ दिया। उस रात आसमान से जैसे सितारे भी बुझ गए। सावित्री ने बेटी के निर्जीव शरीर को सीने से लगाकर कहा – “रानी, तूने हार मान ली, लेकिन तेरी माँ नहीं मानेगी।” उसकी आँखों में अब एक आग थी।
उसके बाद सावित्री बदल गई। अब उसके चेहरे पर आँसू नहीं, सिर्फ़ आग थी। वह गाँव-गाँव गई , औरतों को समझाया कि समाज की घिनौने सच से कैसे लड़ा जाए , धरना दिया, अखबारों को खबर दी। महीनों की लड़ाई के बाद मामला कोर्ट पहुँचा।
प्रधान और उसका बेटा ताक़तवर थे, वकील महँगे थे, लेकिन सावित्री ने हार नहीं मानी। उसने खेतों में दिन-रात काम कर पैसे जुटाए, और खुद गवाही दी। और फिर गाँव वाले भी धीरे-धीरे उसका साथ देने लगे।
लंबी लड़ाई के बाद कोर्ट ने फैसला सुनाया – दोषियों को उम्रकैद की सज़ा।
सावित्री ने अदालत के बाहर आँसू पोंछे और मुस्कुरा कर कहा –
“आज मेरी रानी की आत्मा को शांति मिलेगी। इंसाफ़ देर से मिला, लेकिन मिला ज़रूर। ये काली रात मेरी जिंदगी से कभी नहीं जाएगी, मगर अब मेरी कोशिश यही रहेगी कि दूसरी रानियाँ ऐसी रात का शिकार नहीं हों।”
आज सावित्री जीत गई थी, लेकिन अपनी बेटी को तो उसने हमेशा के लिए खो दिया था। लेकिन अब शायद बहुत सी रानियां ऐसी रात और दिनों का शिकार नहीं होंगी।
खैर ये तो महज एक कहानी थी, जिसमें हर भाव को हम अपने हिसाब से मोड़ लेते है, लेकिन क्या असलियत में सावित्री जैसे लोग है? जो इन्साफ पा कर दम लें, क्योंकि हमारे यहां तो कुछ दिन बड़ी – बड़ी डींगे और फिर सब शांत।
निशब्द हूँ मैं इसके आगे!
तृप्ति सिंह…
#काली रात