करीब दस साल पहले की बात है। नेहा अपने भाई की शादी अटेंड करने अंबाला आई थी। घर की बेटी थी, तो तीन-चार दिन चली हर रस्म में उसका मान-सम्मान अलग ही था। घड़ोली भरने की रस्म में माँ ने प्यार से एक कीमती सेट उसके हाथों में दिया और रिश्तेदारों ने भी कुछ कैश भेंट किया। इसके अलावा, जो गहने वह अपने ससुराल से पहनकर आई थी—चेन, मुद्रियाँ और हाथों के कड़े—वो भी उसने पहन रखे थे।
संयोग से, शादी में पहना हुआ एक और सेट उसने माँ के पास ही रखवा दिया था। मन में जाने क्यों ख्याल आया कि माँ के पास ज़्यादा सुरक्षित रहेगा।
क्यों कि उसकी उस दिन रात की ट्रेन में वापसी थी ।मगर भाई की शादी में मिला नया सेट उसने पर्स में रख लिया। उसे लगता था कि पर्स हमेशा पास में रहता है, अटैची की तुलना में सुरक्षित रहेगा। लेकिन किसे पता था कि वही सोच उसकी ज़िंदगी की सबसे काली रात की गवाह बनेगी।
फरवरी का महीना था—ठंडी रातें और शादियों का मौसम। अंबाला से रात को ट्रेन चली। शुरुआत में कोच में भीड़ और चहल-पहल थी, लेकिन धीरे-धीरे सब नींद में डूब गए। आधी रात गुजरते-गुज़रते माहौल बिल्कुल शांत हो गया। करीब दो से ढाई बजे, जब ट्रेन नाभा और धूरी के बीच उस सुनसान ट्रैक पर पहुँची जहाँ खेतों के सिवा और कुछ नहीं था, अचानक सब बदल गया।
करीब 20–25 डकैत ट्रेन में चढ़ आए। पूरी बोगी की बत्तियाँ पहले से बुझी हुई थी और हर यात्री नींद के आगोश में था और घुप्प अंधेरा तो था ही ।ऐसा लग रहा था मानो उन्हें सब पहले से मालूम हो—कौन-सी बोगी में औरतें हैं, किसके पास गहने हैं। शक हुआ कि शायद टी-टी भी मिलीभगत में था। उनके हाथ में छोटी-छोटी टॉर्च थीं, जिनकी रोशनी बस इतनी थी कि डर दिखा सके और गहने उतरवा सकें।
दो डकैत नेहा के पास पहुँचे। उन्होंने उसका गला इतनी जोर से दबोचा कि उसकी आवाज वहीं दब गई। मुँह पर हाथ कसकर रख दिया, आँखों में चाकू की नोंक चमकाई और धीरे से कहा अपना पर्स दो । नेहा घबरा गई ।और उसके सारे गहने उतरवा लिए गये ।उसके पर्स में रखा भाई की शादी का सेट और रिश्तेदारों का दिया कैश भी छीन लिया। बगल में सो रही एक आंटी ने जैसे ही करवट बदली, डकैतों ने उनकी भी सारी मालाएँ उतरवा लीं।
नेहा का पति भी उसी ट्रेन में था, लेकिन दूसरे कूपे में। उसे भनक तक नहीं लगी—डकैतों के कदम इतने धीमे और सधे हुए थे कि किसी को कुछ सुनाई ही नहीं दिया। नेहा मन ही मन उम्मीद करती रही कि शायद पति दौड़कर आएगा, पर उस रात उसकी उम्मीदें भी घुप्प अंधेरे में गुम हो गईं।
इसी बीच, वे दूसरे कूपे में पहुँचे। वहाँ साक्षी नाम की एक लड़की थी, जिसकी हाल ही में सगाई हुई थी। हाथ में मोटी हीरे की अंगूठी और भारी सोने का कड़ा था। डकैतों ने जब माँगा तो साक्षी का दिल काँप उठा। उसने सोचा—अगर ये दे दिया तो ससुराल वाले मानेंगे ही नहीं, यही कहेंगे कि मैंने बेच दिया । उसके इनकार पर डकैतों ने बेरहमी से थप्पड़ मारे, चाकू से धार लगा दी। उसकी चीखों ने अंधेरे को और भयावह बना दिया।
यही चीख थी जिसने तीन-चार बोगी दूर सो रहे एक आर्मी जवान की नींद तोड़ी। जवान ने हिम्मत दिखाई—शोर मचाया, डकैतों पर टूट पड़ा। अचानक हुई इस हलचल से बाकी यात्री भी जाग गए। डकैत घबराकर भाग खड़े हुए। लेकिन तब तक लाखों के गहने, नकदी और औरतों की आँखों का भरोसा जा चुका था।
उस रात नेहा का गला इतना दबा था कि पूरे एक दिन तक उसकी आवाज ही नहीं निकली। घर पहुँची तो ससुराल वाले घबरा उठे। उसने पूरी घटना बताई—कैसे सब कुछ लुट गया। लोकल अख़बार में खबर छपी, पुलिस आई, लेकिन सब औपचारिकता भर। पुलिस ने भरोसा दिलाया कि सब सामान मिल जाएगा, मगर कभी कुछ नहीं मिला।
नेहा और बाकी औरतों के लिए वह सिर्फ़ एक काली रात नहीं थी, बल्कि एक ऐसा ज़ख्म थी जो सालों तक हरा रहा। महीनों तक नेहा ट्रेन में बैठने से डरती रही। आँख बंद करते ही वही टॉर्च की रोशनी, वही गला दबाने वाले हाथ, वही घुटती हुई साँसें उसे याद आ जातीं।
उस हादसे ने सबको एक सीख दी—शादी-ब्याह में जितना हो सके नकली आभूषण पहनना ही बेहतर है। कैश भी कम या ना के बराबर रखना चाहिए खासकर ट्रेन या बस का रात का सफ़र हो ।असली गहनों से ज्यादा कीमती सुरक्षा और चैन की नींद है।
उस रात नेहा के गले पर पड़े नीले निशान तो कुछ दिनों में मिट गए, मगर मन पर पड़े डर के निशान सालों तक उसकी नींद चुराते रहे। अब, दस साल बाद, नेहा ने फिर से ट्रेन की यात्रा शुरू कर दी है। अब वह भयभीत नहीं होती—क्योंकि जिस भय को उसने प्रत्यक्ष झेला है, उसके बाद उसके मन में अजीब-सी निडरता आ गई है। मगर हर सफ़र में वह उस हादसे का वह सबक ज़रूर याद करती है—“सावधानी ही सबसे बड़ी सुरक्षा है।”
प्रिय पाठकों ये घटना वास्तविक जीवन की सच्चाई है जिसे कहानी के रूप में मैंने दर्शाया है ।
ज्योति आहूजा
#काली रात