पापा-ससुर की ,आंगन से आती हुई, झल्लाहट-भरी आवाज सुनकर अचानक कविता की गहरी नींद टूट गई । आज सुबह-सुबह ही वे सासूमां पर चिल्ला रहे थे,
‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझसे पूछे बिना राधा-बाई की पगार बढ़ाने की ? पैसे क्या अब पेड़ पर उगने लगे हैं ? सर्विस से मेरी रिटायरमेंट के बाद क्या तुम मुझे घर से भी रिटायर करने की तैयारी में जुट गई हो कि स्वयं निर्णय लेने लगी हो ?’
‘नहीं जी, ऐसा कुछ भी नहीं है। असल में….’
‘असल-वसल कुछ नहीं। तुम उसे आज आते ही बोल दोगी कि उसे उसी तनख्वाह में काम करना है तो ठीक, नहीं तो हम किसी और से काम करवा लेंगे। कामगारों की कमी नहीं है हमें।’
मां की बात को बीच में ही काट कर पापा गुस्से से बड़बड़ाते हुए अपने कमरे में चले गए।
कविता झटपट अपने कमरे से बाहर निकल आई। ऐसे एकाएक अपनी बहू को कमरे से बाहर आते देख कर शर्मिंदगी महसूस करते हुए उसकी सासूमां ने मुड़कर अपने आंसू पोंछे और अपने को सहज दिखाने का प्रयास करते हुए बड़े प्यार से उसके देर से उठने का कारण पूछा।
कविता ने उन्हें प्रणाम किया और सहजता का अहसास कराने के अंदाज में याद कराया,
‘आप शायद भूल गईं हैं मां ? कल रात मैंने आपको बताया था न कि आज हम दोनों को अपना टिफिन नहीं ले कर जाना है। आज दोनों के आफिस में पार्टी है। सो, सोचा दस मिनट और सो लूं। वैसे अब तो अरुण भी उठ चुके हैं।’
‘ओह ! मैं सचमुच भूल गई थी। चलो अब दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर किचन में आ जाओ।’ कहकर सहज होने का नाटक करते हुए सासूमां ने स्वयं किचन का रुख कर लिया।
किंतु इस दौरान कविता सहज नहीं हो पाई। दरअसल उसके विवाह को छः महीने बीत चुके हैं। वह ससुराल में सबके साथ पूरी तरह सामंजस्य बिठा चुकी है, लेकिन समय-असमय पापा का यूं सासूमां पर झल्लाना उसे बहुत पीड़ा पहुंचाता है। उसने अपने मायके में ,अपने पापा को हर छोटा-बड़ा निर्णय लेने से पहले, अपनी मां की राय लेते हुए देखा है। कभी-कभी तो उसे लगता था कि उसके पापा सिर्फ मां का मान बनाए रखने के लिए अमुक निर्णय ले रहे हैं।
परंतु यहां ,ससुराल में पापा की सासूमां पर सदैव हावी रहने की प्रवृत्ति ने सासू मां की अस्मिता को ही समाप्त प्रायः कर दिया है। खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना, घूमना-फिरना, घर की साज-सज्जा, खरीददारी सब में पापा की सहमति मायने रखती है। अपनी मर्ज़ी से सासूमां कहीं आ-जा नही सकतीं , कोई खर्च नहीं कर सकतीं हैं । यह सब देख कर उसे बहुत कोफ्त होती है।
एक बार इस विषय पर उसने अरुण से भी बात की थी, किंतु उसने
सिर्फ इतना कहकर बात टाल दी थी कि पापा शुरू से ही ऐसे हैं। मां को अपेक्षाकृत कम शिक्षित मानते हुए उन्होंने हमेशा घर में अपना ‘दबदबा’ बनाए रखा है। घर के सारे निर्णय वे स्वयं ही लेते हैं। इस मामले में अब मैं भी असमर्थ हूं क्योंकि उन्हें मुझे सुनना भी गवारा नहीं है और अब तो पापा के सामने डरे-सहमे रहना और अपनी पीड़ा को छिपा कर जीना मां की आदत बन चुकी है। हां, मैं अपनी तरफ से मां को प्रसन्न रखने का भरसक प्रयास अवश्य करता हूं।
अतः आज के परिदृश्य से कविता बहुत बेचैन हो उठी थी। नहीं, यह बिल्कुल ठीक नहीं है और ठीक का आगाज़ तो कभी भी, कहीं से भी किया जा सकता है। सासूमां अत्यंत सरल और सौम्य हैं । संभवतः इसीलिए वे कभी पापा का विरोध करने का साहस नहीं कर पाईं, किंतु उन्हें एक ‘गृहिणी के सम्मान का हक’ मिलना ही चाहिए। इसके लिए मुझे कदम उठाना होगा। मुझे उनके अस्तित्व को संबल देना ही होगा। सहसा मन ही मन में एक अद्भुत संकल्प लेकर कविता दैनिक कार्यों में व्यस्त हो गई।
रात को सभी डिनर के लिए एकत्रित थे। तभी डाइनिंग टेबल पर करेले की सब्जी देखकर पापा फिर उसकी सासूमां पर झल्ला उठे,
‘तुम्हें अच्छी तरह पता है कि करेलों की सब्जी की कड़वाहट मुझे पसंद नहीं है। फिर आज किस से पूछ कर करेले की सब्जी बनाई है ?’
पापा का गुस्से से बड़बड़ाना अभी शुरू ही हुआ था कि कविता तपाक से बोल पड़ी,
‘पापा ! आप तो जानते है कि रात के खाने की व्यवस्था मैं ही करती हूं । दरअसल एक दिन बातों-बातों में मां ने मुझे बताया था कि उन्हें करेले की सब्जी बहुत पसंद हैं। सो आज मैं मां को सरप्राइज देना चाहती थी। वैसे भी उनकी डायबिटीज के लिए करेले की सब्जी बहुत फायदेमंद है। यह देखिए, करेलों के साथ-साथ मैंने आपके पसंद की ‘भरवां शिमला’ मिर्च भी बनाई है।”
पापा सकपका कर हैरान किंतु शांत थे और मां अपनी बहू को गर्व से निहार रही थीं। अरुण भी मुस्कुराते हुए कविता को निहार रहा था क्योंकि घर के वातावरण से अब ‘सहम और घुटन’ की ‘काली रात’ के अवसान से हल्का-हल्का उजास दिखना शुरू हो गया था।
उमा महाजन
कपूरथला
पंजाब ।
#काली रात