कुछ लोगों की आदत होती है मस्करी करने की, किसी पर व्यंग्य कसने की, झूठ मूठ की बातें करने की और मज़ाक उड़ाने की। ऐसा ही एक परिवार था, जिसमें साठ बरस की औरत जानकी देवी अपने बेटे आनंद , बहू सुनीता और पोते–पोती के साथ रहती थी। उनके पूरे घर का यही मिज़ाज था—बात सीधी नहीं करनी, कहना कुछ और करना कुछ और तो और कभी कभी एक मुँह और दो बात वाली स्थिति भी होती ।यह आदत उनके स्वभाव में इस कदर घुल चुकी थी कि उन्हें लगता ही नहीं था कि यह किसी और के लिए कभी चुभन बन सकती है।
इसी आदत के चलते उन्होंने एक दिन ऐसी हरकत कर दी, जिसने रिश्तों में खटास भर दी थी।
वक़्त था 1997–98 का। सर्दियों का मौसम था और रविवार की सुबह। उस साठ बरस की औरत ने दूसरे शहर में रहने वाली अपनी ननद कौशल्या जी को फोन किया। जानकी देवी के पति इस दुनिया में नहीं रहे थे तो भाभी ननद ही रिश्ता निभा रही थी ।
जानकी देवी फ़ोन पर बोली—
“दीदी, बड़ा मन हो रहा है आप लोगों से मिलने का। हम सब आ रहे हैं—रात को आपके घर पहुँचेंगे, रात वहीँ रुकेंगे, और सुबह नाश्ता करके निकल जाएँगे। पूरा परिवार आएगा—बेटा, बहू, पोता, पोती और सुषमा ( कौशल्या जी की भतीजी) दामाद और बच्चों के साथ ससुराल से आई हुई है । वो भी आएगी ।
ये सुन ननद ने कहा “हाँ हाँ भाभी मैं तो इस उम्र में भी आप ही को अपना पीहर समझ कर रहने आ जाती थी।अब आप मेरे पास आ रहे हो तो स्वागत है।
उस ज़माने में रविवार को बाज़ार भी बंद रहते थे, दुकानों से सामान आसानी से नहीं मिलता था। फिर भी कौशल्या जी के आदेश पर उनकी बहू नीलम और उनके परिवार ने उत्साह से सारे इंतज़ाम करने शुरू कर दिए। कमरे सजाए गए, खेस–कंबल और रज़ाइयाँ निकाली गईं। सफ़ाई की गई। रसोई में तरह–तरह के व्यंजन बनने लगे। घर के बच्चे भी खुश थे कि आज चाचा चाची और भाई–बहन सब साथ रात गुज़ारेंगे।
लेकिन तभी कौशल्या जी का बेटा प्रकाश हल्का शक जताता हुआ बोला, माँ आप इतने पक्के विश्वास से मत मानो। आप जानती तो हैं, उनकी तो आदत है मज़ाक करने की। मुँह के पक्के नहीं हैं।”
माँ ने हँसकर कहा, “नहीं बेटा, उनका ख़ुद फ़ोन आया है ।साफ़ कहा है कि पूरा परिवार आएगा। देखो, हमने सब इंतज़ाम कर भी लिया है।”
दिन ढलता गया, ठंडी रात उतर आई। सबकी निगाहें दरवाज़े पर थीं। मगर कोई मेहमान नहीं आया। आठ बज गए, नौ बज गए। और उस वक्त छोटे शहरों के आठ मानो आज के ग्यारह के बराबर ।कोई मोबाइल तो होते नहीं थे की थोड़ी थोड़ी देर में लोकशन पता लग पाये ।
आखिरकार कौशल्या जी ने प्रकाश द्वारा लैंडलाइन से फोन करवाया ।दूसरी ओर से पूरे परिवार की बड़ी अजीब हँसी–ठिठोली सुनाई दी, जो सुनने वालों के कानों में जैसे कर्कश शोर बन गई।मानो व्यंग्य कर रहे हो ।उपहास कर रहें हो ।
तभी जानकी देवी और उनके बेटे आनंद ने जोर से हंसते हुए कहा “बहनजी, हम तो आज आ ही नहीं रहे। सुबह तो मज़ाक कर रहे थे। आप भी कितनी सीरियस हो जाती हो!”
इतना सुनते ही ननद का चेहरा उतर गया। उन्होंने धीमे स्वर में कहा, “मतलब सुबह कह रहे थे आएँगे और अब कह रहे हो नहीं आओगे? हमारा तो पूरा दिन बरबाद हो गया।”
रविवार था आज ।सारी दुकाने बंद होती है ।सामान नही मिलता आसानी से । घर में सौ चीजें कभी ख़त्म हो जाती है फिर भी मेहमान भगवान समान और वो भी भाभी का ये सोचकर पूरी शिद्दत से अपना फ़र्ज़ निभाने की कोशिश की ।
आपके लिए ये एक मुँह दो बात भले ही होगी । मज़ाक़ होगा पर हम ऐसी सोच नहीं रखते ना रखेंगे ।
ये तो बचकानी हरकत कर दी आपने ।ऐसा बच्चे करें तो फिर भी हल्का फुलका सहनीय है पर बुजुर्ग ये सब हरकत करते शोभा नहीं देते ।
जब आनंद को महसूस हुआ की माहौल थोड़ा गरम हो रहा है तब
तभी जानकी जी तुरंत बोल पड़ी मानो एक मुँह और दो बात कह रही हो “अरे दीदी हमने ऐसा थोड़े ही कहा था की हम आज आ रहे । मैंने कहा था जल्द ही मिलने आ रहे । बात ही पलट रही थी वो ।
तभी कौशल्या जी के मुँह से भी निकल पड़ा—“ऐसी एक मुँह दो बात तो रिश्तों में खटास ही छोड़ जाएगी।”
और सच यही था। उस मज़ाक ने रिश्तों के बीच की आत्मीयता को ठंडा कर दिया। कई महीनों तक दोनों परिवारों की बातचीत बंद सी रही। बाद में बहुत माफ़ी माँगी गई, रिश्तों को सँभालने की कोशिश हुई और धीरे–धीरे माहौल सुधरा भी। मगर उस घटना की चुभन, उस मज़ाक की कड़वाहट हमेशा दिल के किसी कोने में रह गई।
क्योंकि सच यही है—मज़ाक और व्यंग्य की भी एक सीमा होती है। जब वह सीमा पार हो जाए, तो हँसी रिश्तों को जोड़ने के बजाय तोड़ भी सकती है।
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ज्योति
#एक मुँह दो बात