महिम बाबू अपने बेटों की शिक्षा और उन्हें सुयोग्य बनाने के उद्देश्य से गांव छोड़कर शहर में आए। उनके दो अपने बेटे थे सुरेन्द्र और महेंद्र। तीसरा उन दोनों से छोटा वीरेंद्र,जो उनके भाई का था , उसके बाल्यकाल में ही उनका निधन हो गया था। जीवनयापन के उद्देश्य से उन्होंने गोलघर मार्केट में
एक मेडिकल स्टोर ‘ ब्रदर्स ‘ के नाम से खोला। महिम बाबू ने बच्चों की पढ़ाई के साथ साथ दुकान की देखभाल और हिसाब आदि का भार भी बेटों को सौंपा। धनोपार्जन का उद्देश्य तो था ही साथ ही उन्हें कार्य करने की कुशलता भी प्राप्त हो और वे ग़लत दिशा में न भटकें।
इण्टर करने के पश्चात् महेंद्र की रेलवे विभाग में नौकरी लग गई। सुरेन्द्र के साथ अब वीरेंद्र पर भी दुकान संभालने का जिम्मा आ गया। सुरेन्द्र दुकान खुलने के समय घर से निकल जाते थे और सुबह से शाम तक रहते थे। छोटे भाई वीरेंद्र दुकान बढ़ाने (बंद) करने के एक या दो घंटे पहले पहुंचते थे और
बड़े भाई सुरेन्द्र से दिनभर दवाओं से हुई बिक्री का हिसाब मांगने लगते थे। सुरेन्द्र को वीरेंद्र का यह बर्ताव अच्छा नहीं लगता था। वो सोचते थे कि दिनभर मैं परिश्रम करता हूँ और यह छोटा होकर मुझसे हिसाब मांगता है।
एक दिन बिगड़ (क्रोधित) गए, बोले – “क्या दवा का हिसाब रखना मुझे नहीं आता। दुकान बढ़ाते समय आते हो और छोटे होकर मुझसे हिसाब मांगते हो।”
” अरे! मुझे भी तो मालूम होना चाहिए कि दवाओं की कितनी बिक्री हुई है। छोटा हूँ बच्चा तो नहीं हूँ।” वीरेंद्र ने ढिठाई से ज़वाब दिया।
” तुम भी सुबह से बैठा करो। पूरा हिसाब मिल जाया करेगा।” सुरेन्द्र कहकर घर जाने के लिए दुकान से निकल गए। इस तरह अक्सर दोनों में झड़प हो जाती थी।
समय आहिस्ता आहिस्ता खिसकता गया । महिम बाबू ने
अपने दोनों बेटों की सुघड़ सुशील कन्याओं से शादी करा दी। चार वर्ष पश्चात् वीरेंद्र की भी शादी करके निवृत्त हो
गए । तदुपरांत वर्ष के भीतर ही परलोक सिधार गए।
मनुष्य जब जन्म लेता है तो उसमें कुछ पारिवारिक संस्कार होता हैं और कुछ उसका व्यक्तिगत संस्कार भी होता है। कौन सा संस्कार जीवन में प्रबल होता है, यह मनुष्य के स्वभाव से प्रकट होता है।
एक वर्ष वर्षा ऋतु में घर की छत से पानी टपकने लगा। सुरेन्द्र और महेंद्र उस स्थिति से उबरने की कोशिश में लगे हुए थे, और वीरेंद्र अपनी पत्नी के साथ ससुराल चले गए।
इसी बरसात में एक विडम्बना इतनी दुखदाई हुई कि एक परिवार उजड़ गया। सुरेन्द्र बीमार पड़े और उसी बीमारी में उनकी मृत्यु हो गई। शोकावस्था में नाते रिश्तेदार आए। रिश्तेदारों की तरह वीरेंद्र पत्नी के साथ आए। दोनों के चेहरे पर दुःख का भाव नहीं झलक रहा था। परन्तु रोने का अभिनय करते हुए
विलाप करने लगे। उन्हें देखकर कुछ लोग आपस में फुसफुसाने लगे ” इनका रोना तो * ‘एक आंख रोवे एक आंख हंसे’ जैसा दिखाई दे रहा है। दिल से रोना और दिखावटी रोना देखकर ही समझ में आ जाता है।
विषय # एक आंख से रोवे एक आंख से हंसे।
स्वरचित मौलिक –
गीता अस्थाना ,
बंगलुरू।