रिश्ते दिल से बनते हैं, हैसियत से नहीं – ज्योति आहूजा : Moral stories in hindi

इंदौर की धूप उस दिन कुछ नरम थी, जैसे आसमान ने भी शहर पर अपना हाथ फेर दिया हो। छोटे मगर सलीके से सजे घर में रीना और अर्जुन की दुनिया बसी थी। शादी को सात साल हो चुके थे, दो प्यारे बच्चे, दोनों की अच्छी नौकरियां, और धीरे-धीरे बनाई हुई एक ऐसी ज़िंदगी जिसमें किसी चीज़ की कमी नहीं थी। घर में लेटेस्ट गैजेट्स, चमकते अप्लायंसेज़, महकते पर्दे, और मेहमानों के लिए चमचमाती क्रॉकरी — दरवाज़ा खोलते ही लगता मानो किसी होटल में आ गए हों।

रीना को मेहमाननवाज़ी का जुनून था। कोई भी आता, तो तीन-चार तरह की सब्ज़ियां, स्नैक्स, डेज़र्ट — सब कुछ तैयार। मेड के साथ-साथ वह खुद भी रसोई में लगी रहती। कई बार ऑफिस से छुट्टी लेकर मेहमानों को घुमाने-फिराने ले जाती, और जाते समय बच्चों के हाथों में प्यारे-प्यारे गिफ़्ट रख देती। अर्जुन अक्सर मुस्कुरा कर कहता, “तुम तो हर बार शाही दावत दे देती हो।” लेकिन कुछ महीनों से रीना के मन में एक अजीब सी खटास घर करने लगी थी — जितना वह दिल से करती है, उतना कभी उसे वापस क्यों नहीं मिलता?

उस शाम वह चुप बैठी थी, चाय का कप सामने रखा था। अर्जुन ने देखा और पूछा, “क्या सोच रही हो?”

रीना ने लंबी सांस ली, “बस ये कि मैं कितनी मेहनत और दिल से करती हूँ। मेहमान आए तो छुट्टी लेती हूँ, क्रॉकरी निकालती हूँ, अच्छे गिफ़्ट देती हूँ, घुमाने ले जाती हूँ… लेकिन हमें कभी वैसा क्यों नहीं मिलता? क्या किसी को दिखता नहीं कि हमने कितना अच्छा अटेंड किया?”

कुछ हफ़्ते पहले वह अर्जुन के साथ एक पुराने दोस्त के घर गई थी। वहाँ साधारण क्रॉकरी में खाना मिला, और विदाई में उनके बच्चों के लिए कोई गिफ़्ट नहीं था। रीना को खटक गया — “हमारे घर वे आए थे तो हमने कितने गिफ़्ट दिए थे, कम से कम एक चॉकलेट का डिब्बा ही दे देते।”

अर्जुन ने कप नीचे रखकर उसकी ओर देखा, “तुम अच्छा करती हो, और दिल से करती हो — ये सच है। क्यों कि तुम्हें शौक है और ये हमारी रोज़मर्रा की जिंदगी है इस लिए हमे कुछ अलग नहीं लगता और ये सब हम अपनी खुशी के लिए करते हैं, उन्होंने तो हमें कभी नहीं कहा कि हमारे लिए तीन-चार सब्ज़ी बनाओ या सबसे महंगी क्रॉकरी में खाना परोसो। तुम एक सब्ज़ी भी बनाओगी, तो भी वो खुश हो जाएंगे।”

रीना ने हल्की नाराज़गी से कहा, “तो क्या मैं उम्मीद भी न रखूँ? आखिर मैं भी इंसान हूँ।”

अर्जुन ने नरम स्वर में कहा, “देखो, उतना ही करो जितना बाद में दुख न हो, अगर सामने वाले ने तुम्हारी उम्मीद के मुताबिक आवभगत न की तो। हर इंसान का स्वभाव अलग होता है, हर किसी की क्षमता और टेस्ट अलग होता है। कोई अपने सामर्थ्य से बढ़कर करने की कोशिश करता है, तो कोई साधारण लेकिन सच्चे मन से।”

फिर वह मुस्कुराकर बोला, “याद है कुछ समय पहले हम अपने रिश्तेदारों के घर गए थे? उनका स्टैंडर्ड तो हमसे भी ऊँचा था, लेकिन वहाँ क्या तुम्हें मुझे अपनापन महसूस हुआ था? उनके बच्चे मिलने तक नहीं आए। समय बिताना मुश्किल हो गया था ।

और याद करो उस दोस्त का घर — वहाँ खाना सादा था, लेकिन बच्चों ने दिल से नमस्ते किया, ‘भाभीजी, और लीजिए न’ कहकर थाली में ज़बरदस्ती प्रेम से खिलाया, ताश खेली, बच्चों ने लूडो खेला। असली दावत तो वही थी जिसमे कोई औपचारिकता नहीं थी ।

कहते हैं, प्रेम से खिलाया हुआ साधा भोजन भी छप्पन भोग के समान होता है — जो पेट की भूख ही नहीं, मन का आंगन भी भर देता है।”

उस रात, कमरे में हल्की पीली रोशनी के बीच, रीना को सच में एहसास हुआ कि बात क्रॉकरी या व्यंजनों की नहीं, भावना की होती है। उसकी सोच में जैसे एक पन्ना पलट गया — जीवन का एक नया अध्याय शुरू हो गया। 

अब वह जान चुकी थी कि रिश्तों का स्वाद महंगे मसालों से नहीं, सच्ची भावना प्रेम एवं अपनत्व से बनता है।जो सीधे हृदय तक पहुँच कर आत्मा को तृप्त कर देता है ।

सच में रिश्ते दिल के होते है हैसियत के नहीं ।

#बोनस कहानी

प्रिय पाठकों,

उम्मीद है यह कहानी आपके दिल को भी छू गई होगी।

— ज्योति आहूजा

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