मीनाक्षी की शादी को अभी छह महीने ही हुए थे, पर वह पहले ही “आदर्श बहू” की तमगा बटोर चुकी थी। सास सुशीला देवी का एक इशारा, और मीना उस पर पंख लगाकर उड़ चलती। पति राहुल की एक फरमाइश, और वह रात की रानी बन जाती। पड़ोस की चाची का एक आग्रह, और वह उनके घर की सफाई में जुट जाती। उसका मंत्र था: “हाँ जी, बिल्कुल जी, ठीक है जी।”
एक शाम, सुशीला देवी ने आवाज लगाई, “मीना बेटा, कल सुबह पांच बजे उठना। गौशाला की सफाई है। मेरी सास माँ आ रही हैं, उन्हें सब साफ-सुथरा दिखना चाहिए।”
मीना की आँखों में नींद के झटके थे, मन में थकान का पहाड़। पर जुबान से निकला, “जी मम्मी जी, बिल्कुल।” राहुल ने देखा उसका मुरझाया चेहरा।
“सच कहूँ मीना?” राहुल ने बेडरूम में पूछा, “कल तो तुम्हारा अपना डेंटिस्ट अपॉइंटमेंट है ना सुबह? और पांच बजे उठकर गौशाला? थक के गिर जाओगी।”
“अरे… कोई बात नहीं,” मीना ने जबरन मुस्कुराते हुए कहा, “मम्मी जी खुश रहें, बस।”
“खुशी का मतलब खुद को खत्म करना थोड़े ही है!” राहुल ने सिर पकड़ लिया।
अगली सुबह, गौशाला की सफाई के बाद, डेंटिस्ट के चक्कर में घूमते हुए, भूख-प्यास से बेहाल मीना घर लौटी तो पड़ोस वाली चाची जी ने उसे दरवाजे पर ही रोक लिया। “अरे वाह मीनू बेटा! आ गईं? चलो जल्दी से, मेरी लाड़ली बेटी का सैलून अपॉइंटमेंट है, तुम उसे ड्रॉप कर दो ना? मैं तो इस पापड़ बेलने में फँसी हूँ…”
मीना के पैरों में सूजन थी, पेट में चूहे कूद रहे थे। फिर भी उसके मुँह से निकला, “हाँ चाची जी, कोई बा… “
“ना, चाची जी।”
यह आवाज… यह शब्द… कहाँ से आया? सुनकर चाची जी भौंचक्की रह गईं। मीना खुद स्तब्ध। उसके मुँह से बिना सोचे-समझे, जैसे कोई अटका हुआ झरना फूट पड़ा हो, ‘ना’ निकल गया था!
“क…क्या?” चाची जी ने कानों पर विश्वास न करते हुए पूछा।
मीना के गले में एक अजीब सा हौसला उभरा। थोड़ा काँपते स्वर में, पर दृढ़ता से बोली, “माफ़ कीजिएगा चाची जी, पर अभी नहीं जा पाऊँगी। बहुत थक गई हूँ।” इतना कहकर वह अंदर चली गई, चाची जी का हैरान चेहरा पीछे छोड़कर।
अंदर जाकर उसने सीधे रसोई में जाकर सुशीला देवी से कहा, “मम्मी जी, आज शाम को मैं आराम करना चाहती हूँ। रात का खाना बनाने में थोड़ी देर हो जाएगी। क्या आप चाय-बिस्कुट से काम चला लेंगी?”
सुशीला देवी का चमचा हाथ से छूटकर गिरा। “क्या बोली तू? देर से बनेगा खाना? अरे मेरी सास माँ आ रही हैं कल सुबह…!”
“ना मम्मी जी,” मीना ने सीना तानकर कहा, अब आवाज़ में कंपकंपी नहीं थी, “सास दादी कल आ रही हैं, आज नहीं। और मैं बीमार नहीं पड़ना चाहती। थोड़ा आराम चाहिए।”
राहुल, जो दरवाजे पर खड़ा यह नज़ारा देख रहा था, उसकी जबान से बस यही निकला, “वाह! ओ लल्लू! ये कौन सी नई हेराफेरी है?”
उस दिन के बाद से मीना के जीवन में एक ‘ना’-मय क्रांति आ गई। पहले तो घर में भूचाल आ गया।
“मीना, कल तेरे पापा के रिश्तेदार आ रहे हैं, सुबह से पाँच प्रकार के पकवान बनाने हैं।” सुशीला देवी ने मीना को कहा।
“ना मम्मी जी, तीन ही काफी होंगे। मैं आपके साथ मिलकर बनाऊँगी।” मीना बोली
“अरी वाह! तुम्हारी सिलाई बहुत अच्छी है! मेरी इन तीन साड़ियों के ब्लाउज सिल दो ना जल्दी?” पड़ोस की भाभी ने कहा ।
ना भाभी, इस हफ्ते वक्त नहीं है। अगले हफ्ते पूछ लेना।” मीना बोली
“ओये! राहुल! तेरी बीवी को क्या हो गया है?” भाभी ने बाद में राहुल से शिकायत की, “बोलती कुछ है, तो बस ‘ना’ ‘ना’ ‘ना’! हो गई जैसे चटनी में मिर्च!”
राहुल मुस्कुराया। “भाभी, शायद उसने पाया है कि ‘ना’ भी एक पूरा वाक्य हो सकता है।”
धीरे-धीरे एक अजीब सी बात हुई। मीना के ‘ना’ कहने के बाद भी लोग उससे कम नाराज़ हुए, बल्कि ज्यादा सम्मान देने लगे। उसकी थकान कम हुई। चेहरे पर रौनक लौटी। उसने पेंटिंग क्लास ज्वाइन की – क्योंकि अब वक्त था। सुशीला देवी, जो पहले हैरान थीं, अब कभी-कभी मीना को देखकर मुस्कुरा देतीं। एक दिन उन्होंने खुद ही कहा, “बेटा, आज तू आराम कर। खाना मैं बना लूँगी। तू तो बहुत दिनों से बिना रुके चल रही थी।”
राहुल ने एक शाम चाय के समय पूछा, “सच बताओ, ये ‘ना’ का जादू कहाँ से सीखा? किसी गुरु के पास गई थी क्या?”
मीना ने चुस्की लेते हुए कहा, हँसती हुई, “गुरु तो तुम ही थे, जिसने कहा था – खुशी का मतलब खुद को खत्म करना नहीं होता। एक दिन थकान ने इतना थप्पड़ मारा कि मेरा ‘हाँ’ का ताला टूट गया। ‘ना’ तो अंदर ही छिपा था, बस ज़रूरत थी उसे बोलने की हिम्मत की।”
उसने गंभीर होकर आगे कहा, “पहले लगता था, ‘ना’ बोलने से रिश्ते टूट जाएँगे। पर असलियत तो ये है कि ‘ना’ बोलकर ही असली ‘हाँ’ की कीमत पता चलती है। वो ‘हाँ’ जो मेरी मर्ज़ी से आती है, मेरे दिल से। बिना सीमाओं के प्यार, सिर्फ़ गुलामी होती है। और गुलामी में न तो प्रेम रहता है, न सम्मान।”
राहुल ने उसका हाथ थाम लिया। “तो अब मेरी जिगरी बहू, ‘ना’ बोलना तुम्हारा सुपरपावर बन गया है?”
मीना की आँखों में चमक थी। “नहीं जी। ‘ना’ बोलना सिर्फ़ इंसान होने की निशानी है। और ये सीख,” उसने मुस्कुराते हुए कहा, “ज़िंदगी के हर पाठ से ज़रूरी थी। क्योंकि खुद से प्यार किए बिना, दूसरों से सच्चा प्यार करना… असंभव है।”
और उस दिन से, घर में मीना की हाँ भी मीठी लगने लगी… क्योंकि वह अब उसकी पसंद थी, मजबूरी नहीं। ‘ना’ का नगीना पहनकर, उसने खुद को, और अपने प्यार को, असली चमक दिखाई थी।
डॉ० मनीषा भारद्वाज
ब्याड़ा (पंचरुखी ) पालमपुर
हिमाचल प्रदेश ।
# बहु ने ना बोलना सीख लिया