सालों बाद जब गांव की तरफ लौटी तो मन बड़ा खिन्न था कि इतने ऐश आराम की जिंदगी के बीच कुछ समझौते के साथ रह पाऊंगी क्या? इसी जद्दोजहद के बीच विचारों ने भी पैर पसार लिए थे। कहते हैं कि सकारात्मक सोचें तो सबकुछ सही नजर आता है लेकिन नाकारात्मक विचार आ रहें हैं तो हम अपनी विचारधारा उसी के हिसाब से बना लेते हैं।
गाड़ी स्टेशन पर रुक चुकी थी और हमारा गांव रामपुर आ गया था। मैंने शहर से गांव की ओर मुड़ने का फैसला लिया था जहां मुझे गांव वालों के लिए कुछ करना था।
मेरी आंखों में अजीब सी चमक आ गई थी कि मैंने जो कुछ सोचा था उसके विपरित सबकुछ था। बहुत परिवर्तन आ चुका था। वहां शहरों जैसी सुविधाएं भले ही नहीं थीं पर टाऊन जैसा विकास हो चुका था।
ताऊजी का परिवार वहीं रहते थे,जिनका खेती – बाड़ी का काम था। छोटे भाई दिनेश ने पैर छुए और झट से सामान पकड़ लिया। दीदी कोई तकलीफ़ तो नहीं हुई ना रास्ते में?
सभी लोग बहुत खुश हैं जब से सुना है कि आप आ रहीं हैं।
अच्छा .. ..मुझे भी सब से मिलना है।जब गांव से गई थी सारे भाई बहन छोटे – छोटे थे।अब तो शादी व्याह भी हो गया है सब का उनके भी बच्चे बड़े हो गए हैं। अब तो घर नहीं कुनबा हो गया था।
स्टेशन से घर ज्यादा दूरी पर नहीं था तो हम भाई-बहन पैदल ही निकल पड़े। खेतों की पगडंडी पर चलते हुए पुरानी यादें ताजा हो रहीं थीं। यहीं तो बीता था बचपन और वो बरगद का पेड़ जो छोटा सा हुआ करता था बहुत ही बड़ा हो चुका था। उसके तने जड़ों से ज्यादा मजबूती से जमीन की मिट्टी को पकड़े हुए थे।
सचमुच ताऊ जी का परिवार भी ऐसा ही था जहां ताऊजी जड़ के समान अपनी मिट्टी को पकड़ने का फैसला लेते हुए गांव ना छोड़ने का निर्णय लिए थे और पिता जी को शहर जाने की इजाजत दे दिए थे क्योंकि पिता जी को बहुत अच्छी नौकरी लगी थी। बबुआ तू जा शहर मैं तो यहीं रहूंगा अपनी धरती के करीब। बरगद के तने की शाखाएं उनके बच्चे जिन्होंने भी अपनी खेती – बाड़ी को चुना था और भी मजबूती से वहां सब कुछ संभाला था उन्होंने।
घर आ चुका था,अब वहां मिट्टी का दलान और मकान नहीं बल्कि खूबसूरत सी हवेली खड़ी थी। भाभियों ने परात में पानी ला कर मेरा पैर धुलवाए और बड़े ही सम्मान के साथ अंदर बैठाया। दीदी आपके बारे में सभी से बहुत सुना था, बड़ी इच्छा थी की आपसे मुलाकात हो। देखिए ईश्वर ने आज वो पल ला दिया और हम सभी आपसे मिल पाए। सभी बच्चों ने बारी से अपना परिचय देते हुए प्रणाम किया और मैं ना जाने कब से सिर्फ मुस्कुरा रही थी और ये सोच रही थी कि हम कितनी बनाउटी जिंदगी जीते हैं। शायद अपने लिए कम औरों के लिए ज्यादा। दूसरे क्या सोचेंगे, सोसायटी में हमारी पहचान और रुतबा कैसे बरकरार रहे ना जाने क्या – क्या। यहां की सादगी भोलापन और निश्छल प्रेम ने तो जैसे कुछ ही पलों में जीवन भर की सारी खुशियां दे दी हो।
हांथ मुंह धोकर खाना खाने बैठ गई। बड़ा ही स्वादिष्ट भोजन एक बड़ी सी थाली में परोस कर लाया गया और ऊपर से घी की कटोरी और बड़ा गिलास छाछ का। ऐसा लग रहा था कि कहीं की रानी – महारानी हूं। इतने सम्मान के साथ एक – एक गरमागरम रोटी परोसी जा रही थी उससे भी ज्यादा भाव से भरा खिलाने वाले का मन। हमारे यहां तो कोई आ रहा है तो थोडा बहुत बनालो और कुछ बाहर से मंगवाया जाता था लेकिन खाना बनाने वाले का प्रेम और परोसते वक्त मनुहार करते हुए खिलाना सचमुच में अद्भुत ही था।
बस करिए बड़ी भाभी दो वक्त का खाना आपने एक वक्त में ही खिला दिया। खाना बहुत ही स्वादिष्ट बना था पेट भर गया पर मन नहीं भरा। कितनी मिठास और शुद्धता थी भोजन में। ऐसा लग रहा था कि पहली बार कुछ इतना अच्छा खाने को मिल रहा है। हमारे यहां के बड़े – बड़े होटलों को भी मात दे दिया था यहां के खाने ने।
एक कमरें में साफ नई चादर बिछा कर बिस्तर लगा दिया गया था और सभी बच्चे और भाभियां इकट्ठा हो गईं थीं शहर के बारे में जानने के लिए। ये बात सच है कि हमें हमेशा वही चीज आकर्षित करती है जो हमारे पास नहीं होती है। मैं गांव आकर बेहद खुश थी और यहां सभी को शहर के रहन सहन और चकाचौंध भरी जिंदगी के बारे में जानना था।शहर जो रोज ही एक नया बदलाव ले कर आता है और हम शहरी लोग उसके पीछे सिर्फ भागते रहते हैं।
मैं उन्हें अपने शहर की बातें बताती और वो अनेकों जिज्ञासा भरे प्रश्न पूछतीं जैसे की वहां के रहन सहन पहनावा और मेट्रो ट्रेन में बैठने का अनुभव, बड़े – बड़े माॅल, शापिंग सेंटर।ना जाने कितने सपने थे उनकी आंखों में उस दुनिया के बारे में और सभी चहकते हुए सबकुछ थोड़े ही समय में जानना चाहते थे। बातचीत के सिलसिले के बीच बड़े भइया ने बाहर से आवाज लगाई कि सोने दो बुआ को थकी हारी आई है कितनी दूर से , बाकी बातें कल कर लेना। एक आवाज क्या आई की सब अपने – अपने कमरे में जाने की तैयारी करने लगे।कितना डिसिप्लिन था बच्चों में, बहुत ही अच्छे संस्कार दिया था।
गांव की सुबह इतनी खूबसूरत थी कि मैंने सोचा ही नहीं था। कहां तो हम देर से सोकर उठा करते थे, कभी भी उगते को नहीं देखा था। यहां तो सुबह-सुबह सूरज और सुनहरी सी धूप, शीतलता भरी हवाओं के साथ बहुत ही खूबसूरत थी। थोड़ी दूर पर नदी थी मैं उठकर टहलते – टहलते जाकर वहीं बैठ गई थी। सचमुच कितना कुछ है यहां, इतना मनमोहक दृश्य, कितनी शुद्ध हवा। ऐसा लग रहा था की किसी दूसरी धरती पर आई हूं।
मन में उठने वाले तूफान शांत हो चुके थे और जो मैंने निर्णय लिया था कि गांव में रह कर मुझे यहां के बच्चों के लिए एक स्कूल खोलना है और बहुत कुछ करना है वो मेरा निर्णय सही था। सचमुच बहुत कुछ करने और सीखने को है यहां।
अपने पुराने घर को सबसे पहले सुधरवाने का निर्णय लिया और अपने स्कूल के बारे में भी बड़े भइया से बात की। सभी बहुत खुश थे क्योंकि गांव में स्कूल की कमी थी और जो थे भी बहुत दूर थे। जितना कठिन सोचा था उतना था नहीं क्योंकि बहुत ही मददगार लोग थे और सभी सहायता के लिए तैयार खड़े रहते थे।
मेरा सपना कुछ महीनों की मेहनत के बाद सफल हो रहा था। सरकारी दस्तावेज पूरे हो गए थे और जुनियर काॅलेज की इजाजत मिल गई थी। जहां नई तकनीक के साथ स्कूल चलाने की मेरी योजना रंग लाई थी।
शहर से गांव की तरफ मुड़ने का फैसला मेरा सही था और अब मैं संतुष्ट भी थी क्योंकि यहां भी बहुत ही टैलेंट था बस सुविधाओं की कमी थी।हांथ से हांथ मिलाकर हमारे सपने साकार होने लगे थे। स्कूल में बच्चों का दाखिला शुरू हो गया था अब मेरे लिए चुनौती थी की मैं सबकुछ अच्छी तरह से कर पाऊं और यहां के बच्चों के मन में आने वाले सपनों को नई उड़ान देनी है जिससे वो अपनी मंजिल को छू कर अपने लक्ष्य को हासिल कर सकें। जहां चाह है वहां राह भी होती है।
प्रतिमा श्रीवास्तव
नोएडा यूपी