“संध्या भाभी, आज फिर वही पुरानी सूती साड़ी? अरे त्योहार पर तो कुछ नया पहन लिया करो। मैं देखो ना, आपकी पसंद का साड़ी और भैया के लिए, कुर्ता लेकर आई थी ।
रीमा ने अपने चिर-परिचित चुलबुले अंदाज़ में बात शुरू की, लेकिन उसका स्वर में छिपा तंज संध्या भाभी को सुनाई दे गया।
संध्या मुस्कुरा दी, “रीमा, कपड़े नए हों या पुराने, त्यौहार का रंग मन से आता है। तुम सब खुश रहो, यही मेरे लिए सबसे बड़ी खुशी है।”
रीमा को उनका जवाब हमेशा की तरह “बुज़ुर्गों वाली सोच” लगा। नई-नवेली बहू थी, महंगे ब्रांड्स, गिफ्ट्स और सोशल मीडिया की तस्वीरों में ही त्योहार की रौनक देखती थी।
रीमा हर महीने मायके जाकर अपने लिए कुछ ना कुछ लेकर आती, और हर बार घर लौटते हुए भाभी को कुछ न कुछ खरी-खोटी सुना देती।
रीमा ने कुछ दिन पहले अपनी ननद नंदिनी के लिए एक साड़ी खरीदी थी, जो उसे खास पसंद आई थी।
वो सोच रही थी कि अगली बार जब परिवार इकट्ठा होगा, वो सबके सामने नंदिनी को गिफ्ट देगी, और अपनी जेठानी संध्या को देखेगी कि उनकी आँखें कैसे जलती हैं।
पर जब उसने सबके सामने साड़ी निकाल कर नंदिनी को दी और कहा—”इस साड़ी मे बिलकुल नई दुल्हन लगोगी ननंद रानी “, तब भी संध्या कुछ नहीं बोली।
बस हल्के से मुस्कुरा दी।
उनकी यही चुप्पी, रीमा को सबसे ज्यादा चुभती थी।
अगले हफ्ते संध्या की तबीयत अचानक बिगड़ गई। हाइ ब्लड प्रेशर और चक्कर आने के कारण उन्हें हॉस्पिटल में भर्ती करवाना पड़ा।
पूरा घर हड़बड़ा गया।
रीमा भी साथ अस्पताल गई, लेकिन अंदर से वो सोच रही थी— “अब देखती हूं, कौन क्या करता है? जो हमेशा खुद को देवी समझती हैं, उन्हें भी दूसरों की ज़रूरत पड़ती है।”
डॉक्टर ने कहा—”इन्हें आराम की सख़्त ज़रूरत है, मानसिक तनाव और कमजोरी की वजह से ये हालत हुई है।”
नंदिनी चुपचाप बैठी थी। तभी उसने धीमे से रीमा को बताया कि पिछले तीन महीने से संध्या भाभी घर का खर्च अपनी बचत से चला रही थीं। पिताजी की पेंशन में देरी हो रही थी और बड़े भैया की सैलरी से लोन कटता था।
रीमा हतप्रभ रह गई।
“लेकिन भाभी ने कभी कुछ बताया क्यों नहीं?”
नंदिनी ने कहा,
“क्योंकि संध्या भाभी दिखावा नहीं करतीं रीमा भाभी , वो रिश्ता निभाना जानती हैं। जितना हो सके सबके लिए करती हैं, बिना किसी को बताये। तुमने जो गिफ्ट दिखाने के लिए लाया, वैसी साड़ी भाभी ने दो महीने पहले मुझे दी थी… लेकिन कभी जताया नहीं।”
घर लौटते समय रीमा का मन बहुत भारी था। वो सीधे भाभी के कमरे में गई, जहाँ संध्या दीवार की ओर करवट लेकर लेटी थीं।
“भाभी…” रीमा की आवाज़ भर्राई हुई थी।
संध्या ने धीरे से मुड़कर देखा। रीमा उनके पैरों के पास बैठ गई।
“भाभी, मुझे माफ़ कर दीजिए। मैं हर बार आपको गलत समझती रही। आपको छोटा दिखाने के लिए कभी तंज कसे, कभी खुद को ऊँचा दिखाया… आपने तो कभी कुछ नहीं कहा। आपने सब कुछ सहा, सिर्फ इस परिवार के लिए।”
संध्या ने रीमा का हाथ थाम लिया।
“रीमा, रिश्ते तभी चलते हैं जब कोई एक झुकना सीखे… और मैं बड़ी हूं, इसलिए मैंने झुकना सीखा। पर आज जो तुमने सीखा, वो तुम्हें और बड़ा बना गया।”
रीमा रोती रही, और अबकी बार… वो आँसू सिर्फ शर्म के नहीं थे—वो थे एक सच्चे रिश्ते की शुरुआत के।