बिटिया का घर बसने दो -डॉ० मनीषा भारद्वाज :

 Moral Stories in Hindi

शाम की सुनहरी धूप ने शालिनी के कमरे की खिड़की पर सोना उंडेला था। वह अपनी नोटबुक में कुछ गणित के सूत्रों में खोई हुई थी, जब उसकी माँ, सुधा, दरवाजे पर आईं। उनके चेहरे पर एक विचित्र-सी मिश्रित चमक थी – खुशी के नीचे छिपी एक गहरी चिंता।

“बेटा,” सुधा ने कोमल स्वर में कहा, “पापा तुमसे बात करना चाहते हैं। वो ड्राइंग रूम में बैठे हैं।”

शालिनी ने पेन रखा। माँ की आँखों में छिपे उस भाव को पढ़ना उसके लिए सूत्रों से कहीं ज्यादा कठिन था। “ठीक है, मम्मी।”

ड्राइंग रूम में उसके पिता, रविन्द्र जी, अखबार पढ़ रहे थे, पर नज़रें शब्दों पर टिकी नहीं थीं। वह आते ही उन्होंने अखबार नीचे रख दिया। उनका चेहरा गंभीर था।

“बैठो, शालू,” उन्होंने कहा, आवाज़ में एक अजीब सी भारीपन।

शालिनी सोफे के किनारे बैठ गई। सुधा भी चुपचाप एक कुर्सी पर आ बैठीं, हाथ बाँधे।

“देखो बेटा,” रविन्द्र जी ने सीधा साधा शुरू किया, “आज शर्मा जी आए थे। उनके बेटे, रोहन का… तुम्हारे लिए… प्रस्ताव है।”

एक सन्नाटा छा गया। पंखे की आवाज़ अचानक बहुत तेज़ लगने लगी। शालिनी ने माँ की तरफ देखा, जो नज़रें झुकाए हुए थीं। फिर पिता की ओर।

“पापा…” शालिनी का स्वर थोड़ा काँपा, पर दृढ़ था, “रोहन मैं जानती हूँ। अच्छा लड़का है। पर… अभी नहीं। मेरा एम.टेक का आखिरी सेमेस्टर चल रहा है। मुझे अपनी नौकरी, अपना कैरियर…”

रविन्द्र जी की भौंहें तन गईं। “कैरियर? नौकरी? बेटा, ये सब तो ठीक है, पर हमारी बेटी पराया धन है। उसका असली घर तो वही है जहाँ उसका पति होगा। वहीं उसका जीवन सार्थक होगा। यहाँ कितना भी पढ़ लो, ये घर तो तुम्हारा स्थायी ठिकाना नहीं।”

शब्द कटार की तरह चुभे। शालिनी की आँखों में आँसू आ गए, पर उसने उन्हें रोक लिया।

“पराया धन? पराया क्यों, पापा?” उसकी आवाज़ में एक दर्द था जो सवाल बन गया। “क्या यह घर, ये दीवारें, ये यादें… क्या ये सब पराई हैं? क्या मैं सिर्फ एक सामान हूँ जो एक घर से दूसरे घर ‘ट्रान्सफर’ हो जाएगी?”

“शालू!” सुधा ने हस्तक्षेप किया, पर उनकी आवाज़ भी कमज़ोर थी।

रविन्द्र जी ने आँखें चढ़ाईं। “अरे, ये कैसी बातें करती हो? हम तुम्हारा भला चाहते हैं। लड़का अच्छा है, परिवार अच्छा है। उम्र हो गई है तुम्हारी। समय रहते सब ठीक कर लो।”

“पापा,” शालिनी ने गहरी साँस ली, अपने भावों को संयत किया, “मेरी उम्र सिर्फ चौबीस है। और ‘ठीक’ करने का मतलब? क्या मेरे सपने, मेरे लक्ष्य, मेरी पहचान… क्या ये सब मेरे अपने घर बसाने में बाधक हैं? क्या एक लड़की का घर सिर्फ उसका वैवाहिक घर ही हो सकता है? क्या मैं अपना घर खुद नहीं बना सकती – अपनी मेहनत से, अपनी पहचान से?”

“घर बनाना?” रविन्द्र जी का स्वर ऊँचा हुआ, “घर तो पति बनाता है, बेटा! तुम्हारा काम है उसे संभालना। ये नौकरी-वौकरी, ये सब तो बाद में भी हो सकता है। पहले तो अपना स्थायी ठिकाना बनाओ।”

“स्थायी ठिकाना…” शालिनी ने धीरे से दोहराया, उसकी नज़रें खिड़की के बाहर सुनहरे आकाश पर टिक गईं, जहाँ एक पतंग बिना डोर के उड़ने का सपना देखती प्रतीत हो रही थी। “पापा, क्या कोई ठिकाना सच में स्थायी होता है? जीवन तो एक नदी है। क्या मैं अपनी धारा खुद नहीं बहा सकती? क्या मेरे लिए ‘घर’ का मतलब सिर्फ चार दीवारी नहीं, बल्कि वो जगह भी हो सकती है जहाँ मेरी आत्मा को शांति मिले, जहाँ मेरे सपने पंख फैला सकें? चाहे वह इसी छत के नीचे हो, या मेरे खुद के बनाए हुए संसार में?”

एक गहरा सन्नाटा पसर गया। रविन्द्र जी के चेहरे पर आक्रोश और भ्रम की लकीरें उभर आईं। वर्षों की पुरानी मान्यताएँ, समाज का दबाव, और बेटी के सपनों के बीच वह फँसा हुआ महसूस कर रहे थे। सुधा ने आँखों से एक अनकहा अनुरोध किया।

“तो क्या तुम… इस प्रस्ताव को ठुकरा दोगी?” रविन्द्र जी का स्वर भारी था, जैसे हार मान लेने का भाव उसमें घुल गया हो।

“नहीं पापा, ठुकराना नहीं,” शालिनी ने आँखों में स्पष्टता लिए कहा, “लेकिन अभी स्वीकार भी नहीं। मुझे वक़्त चाहिए। रोहन को जानने का, उसके सपनों को समझने का, और यह देखने का कि क्या हमारे सपने एक दूसरे के साथ मिलकर उड़ सकते हैं, या किसी एक को कुर्बान करने पड़ेंगे। मैं शादी करना चाहती हूँ, पापा, पर एक बराबरी के साझे में, जहाँ मेरा ‘घर’ सिर्फ मेरे पति का नहीं, हम दोनों का हो। जहाँ मैं सिर्फ एक ‘बहू’ नहीं, शालिनी भी बनी रह सकूँ – इंजीनियर शालिनी।”

रविन्द्र जी कुछ देर चुप रहे। उनकी नज़रें उस तस्वीर पर टिक गईं जहाँ छोटी सी शालिनी उनके कंधे पर बैठी हँस रही थी। फिर उन्होंने धीरे से सिर हिलाया, एक लंबी, थकी हुई साँस ली। उस साँस में वर्षों की जकड़न ढीली होती प्रतीत हुई।

“वक़्त…” उन्होंने धीरे से कहा, जैसे खुद से बात कर रहे हों, “हमने भी तो कभी सोचा था कि तुम्हें हर सपना पूरा करवाएँगे। फिर कब ये सपने… हमारी अपनी सोच की दीवारों में कैद हो गए, पता ही नहीं चला।” उन्होंने शालिनी की ओर देखा, आँखों में एक नई समझदारी के साथ। “ठीक है, बेटा। जितना वक़्त चाहिए, लो। शर्मा जी से बात करूँगा।”

“धन्यवाद, पापा,” शालिनी का स्वर भावुक हो उठा, “सिर्फ इस प्रस्ताव के लिए नहीं… बल्कि… बिटिया का घर बसने देने के लिए।”

रविन्द्र जी ने एक क्षण के लिए आँखें मूँद लीं। जब खोलीं, तो उनमें एक अलग ही चमक थी। “हाँ… बिटिया का घर। शायद तुम सही कहती हो। असली घर… वो चार दीवारी नहीं होता। वो तो… उसकी अपनी पहचान से बसता है। उसकी आज़ाद साँसों से।” उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, “जाओ, अपनी नोटबुक पूरी करो। और… ये सूत्र,” उन्होंने खिड़की की ओर इशारा किया जहाँ सूरज डूब रहा था, “सिर्फ किताबों में नहीं, जीवन में भी बहुत काम आते हैं।”

शालिनी के कमरे में लौटते हुए, उसके कदम हल्के थे। खिड़की के बाहर अब सूरज डूब चुका था, पर आकाश में पहले तारे टिमटिमा रहे थे – छोटे-छोटे दीपक, जैसे संभावनाओं के असंख्य घर। उसने पेन उठाया। इस बार नोटबुक में सिर्फ गणित के सूत्र नहीं, उसके अपने भविष्य के नक्शे भी उभर रहे थे। जीवन की सच्चाई यही थी – घर बसाने का अधिकार, सच्चा घर, पहले अपने भीतर बसता है। उसके बाद ही वह दूसरे के साथ मिलकर किसी और स्थान को ‘घर’ बना पाता है। और यह अधिकार, यह स्वायत्तता, हर बेटी का जन्मसिद्ध अधिकार है।। उसे सिर्फ बसने देना है।

डॉ० मनीषा भारद्वाज

ब्याड़ा (पंचरुखी) पालमपुर

हिमाचल प्रदेश

 

Leave a Comment

error: Content is protected !!