एक खट्ठी-मीठी गुंजाइश – डॉ० मनीषा भारद्वाज :

 Moral Stories in Hindi

सोफे पर अधलेटा अंशु स्मार्टफोन की स्क्रीन पर अंगुलियाँ चलाता हुआ, एक गहरी सुख-साँस ले रहा था। सप्ताहांत की वह सुनहरी दोपहर थी जब समय शहद की तरह गाढ़ा और मीठा बहता है। तभी मनू, हाथों में धूल झाड़ने का कपड़ा लिए, ड्राइंग रूम में प्रविष्ट हुई। उसकी नज़र अंशु के आराम-फराम के पोज़ पर पड़ी और उसके अधरों पर एक खटास भरी मुस्कान खिंच गई।

“अरे भगवान्!” उसकी आवाज़ में एक तीखा मिठास था, जैसे नींबू शर्बत में नमक की चुटकी। “क्या बात है सुविधा महोदय? आज तो फुरसत के सागर में गोते लगा रहे हैं? सप्ताह भर की थकान उतारने का नाटक चल रहा है या नई दुनिया जीतने की तैयारी?”

अंशु ने फोन थोड़ा नीचे किया, आँखों में एक किंचित् चिढ़ और मजाकिया चमक। “मनूजी, यह ‘फुरसत’ शब्द आपके मुख से सुनकर ऐसा लगता है जैसे मैं कोई राष्ट्रघातक अपराध कर रहा हूँ। क्या विश्राम भी अब अनुशासनहीनता की श्रेणी में आ गया है?”

मनू ने टेबल पर पड़ी किताबों को व्यवस्थित करते हुए, एक ठंडी हँसी हँसी। “विश्राम? अरे नहीं महाशय! मैं तो आपके इस ‘सक्रिय निष्क्रियता’ के कौशल पर मुग्ध हूँ। देखिए न,” उसने कमरे का एक चक्कर लगाते हुए इशारा किया, “यह पड़ी हुई पत्रिकाएँ? यह टीवी रिमोट का अकेलापन? यह बालकनी में सूख रहे बरसाती छाते? सब तो आपकी प्रतीक्षा में तरस रहे हैं। पर आप तो… अहोभाग्य! डिजिटल युग के ध्यानी बन बैठे हैं।”

अंशु बैठ गया, थोड़ा बचाव की मुद्रा में। “मनू, थोड़ा तर्क तो करो। क्या मैं हमेशा ऐसा ही रहता हूँ? सप्ताह भर दफ्तर की भागदौड़, प्रोजेक्ट्स का दबाव… क्या छुट्टी की यह छोटी सी गुंजाइश भी अब गुनाह है? क्या आराम करना भी अब ‘करियर’ की मांग करता है?” उसके स्वर में वास्तविक थकान थी, जो व्यंग्य के पीछे छिपी हुई थी।

मनू का चेहरा गंभीर हो गया। “अंशु, यह ‘गुनाह’ वाली बात नहीं है। पर देखो न, जब मैं सोफे पर बैठती हूँ, तो मेरी नज़रें अपने आप उन जगहों पर चली जाती हैं जहाँ धूल जमी है, जहाँ चीजें बिखरी पड़ी हैं। मेरा मन विश्राम को भी ‘अधूरा काम’ का पर्याय बना देता है। तुम्हारी यह ‘फुरसत’… मेरे लिए तो कभी-कभी एक ऐसी विलासिता लगती है जिसका मोल मैं नहीं चुका पाती।” उसकी आवाज़ में खटास कम, एक कसक ज्यादा थी।

अगले दिन का दृश्य। अब बारी बदली हुई थी। रविवार की दोपहर। मनू, सप्ताह भर के घर के कामकाज की थकान से चूर, आँखें मूंदे सोफे पर विश्राम कर रही थी। उसके चेहरे पर एक शांत, निश्चिंत भाव था। तभी अंशु कमरे में आया, उसकी नज़र सोई हुई मनू पर पड़ी। एक पल के लिए वह ठिठका। फिर, एक अजीब सी उलझन उसके चेहरे पर आई। वह मनू के पास बैठ गया, धीरे से उसका हाथ थामा।

मनू की आँखें खुलीं। अंशु ने मुस्कुराते हुए, किंतु थोड़ा अनिश्चित स्वर में कहा: “क्या हाल है, विश्राम रानी? आज तो आप भी ‘फुरसत की तानों’ का राग अलाप रही हैं?”

मनू ने आँखें मलीं, एक गहरी साँस ली। “हाँ अंशु… आज सचमुच बहुत थकान है। सोचा, बस पाँच मिनट…”

अंशु ने उसका हाथ दबाया, उसकी आवाज़ में पिछले दिन के व्यंग्य का हल्का सा स्वर था, पर अब वह नरम और समझदारी भरा था: “पाँच मिनट? अरे, इतनी बड़ी फुरसत? देखो न,” उसने नकली गंभीरता से इधर-उधर इशारा किया, “यह फूलदान? उस पर धूल की परत? रसोई में सुबह के बर्तन? सब तुम्हारी दृष्टि की प्रतीक्षा में तरस रहे हैं! क्या यह ‘सक्रिय विश्राम’ नहीं है?” उसकी आँखों में चमक थी।

मनू चौंकी, फिर उसके चेहरे पर एक ठंडी हवा सी बह गई। वह समझ गई। उसने अंशु की ओर देखा, एक लाजवाब मुस्कान उसके होठों पर खेलने लगी। “तो… यह बदला लेने का तरीका है, श्रीमान जी?”

अंशु गंभीर हो गया, उसका हाथ थामे रखा। “बदला नहीं मनू… एक सबक। सुना है, दूसरों के जूते में चलकर ही उनके पैरों के छालों का अहसास होता है।” उसने मनू की ओर देखा, उसकी आँखों में सच्चाई झलक रही थी। “कल मेरे विश्राम पर तुम्हारी टिप्पणी सुनकर मैंने सोचा था कि तुम जरा कठोर हो रही हो। पर आज… जब तुम्हें इस तरह थका हुआ देखा, और मेरे मन में भी वही प्रश्न उठे जो कल तुम्हारे थे… तब समझ आया।”

मनू सोफे पर सीधी बैठ गई। “समझा क्या?”

“यह कि हम दोनों ही उस ‘करतब’ के शिकार हैं,” अंशु ने कहा, उसकी आवाज़ में एक नई गहराई थी। “वह करतब जिसमें हम अपने लिए तो थकान का बहाना ढूँढ़ लेते हैं, पर साथी की थकान को ‘आलस्य’ का नाम दे देते हैं। अपने विश्राम को ‘अर्जित अवकाश’ समझते हैं, दूसरे के आराम को ‘फुरसत की तानें’।”

कमरे में सन्नाटा छा गया। बाहर से आती चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई दे रही थी।

मनू ने अंशु का हाथ दबाया। “सच कहूँ अंशु? कल जो कहा, वह शायद मेरी अपनी अतृप्ति का प्रतिबिंब था। तुम्हें आराम करते देखकर ऐसा लगा जैसे मैं वह विलासिता खुद नहीं ले पा रही, इसलिए तुम्हें भी न लेने दूँ।”

“और आज,” अंशु ने कहा, “मैंने महसूस किया कि तुम्हारी थकान को ‘फुरसत’ समझने की मेरी प्रवृत्ति भी उसी अहंकार से उपजी थी।”

दोनों एक पल के लिए चुप रहे। फिर मनू ने मुस्कुराते हुए कहा: “तो… क्या यह मान लें कि यह सोफा, यह दोपहर, यह आकाश… यह सब ‘फुरसत’ नहीं, बल्कि जीवन का एक आवश्यक अंग है? एक ऐसी गुंजाइश जिसमें सांसें अपनी लय पाती हैं?”

“हाँ,” अंशु ने उसके कंधे पर हाथ रखा, “और यह गुंजाइश सिर्फ़ एक के लिए नहीं, हम दोनों के लिए समान रूप से पवित्र है। बिना किसी ‘तान’ के।”

उस दिन दोपहर बाद का काम थोड़ा बचा रहा। फूलदान पर धूल की एक बारीक परत चमकती रही। रसोई के कुछ बर्तन सिंक में धूप खेलते रहे। पर सोफे पर दो सिर, दो हृदय, एक सामंजस्य में झुके हुए थे। उन्होंने सीख लिया था कि जीवन की सच्चाई केवल कर्म में नहीं, बल्कि उस विराम में भी बसी है जहाँ प्रेम बिना शर्त के स्वीकार करता है – बिना किसी खट्ठी तान के। फुरसत, उस दिन, एक साझा उत्सव बन गई थी।

डॉ० मनीषा भारद्वाज

ब्याड़ा (पंचरुखी) पालमपुर

हिमाचल प्रदेश

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