जाहिल, मूर्ख, गंवार, बेवकूफ, ऐसा कोई भी संबोधन आप उसके लिए इस्तेमाल कर सकते हैं । इन संबोधनों में उसका नाम पाखी कहां खो गया, उसे खुद भी नहीं पता। वह अकेली भी नहीं थी स्कूल जाती तो उसके रास्ते में आने वाले सारे कुत्ते उसके पीछे चल रहे होते और पक्षी उसके आगे। घर से स्कूल के लिए निकलते हुए चिड़िया का दाना, गाय की रोटी बूरा मिला आता चींटियों को, कुत्तों
को,गाय को और पक्षियों के लिए दाना डालती हुई जाती। स्कूल तक कभी पहुंची कभी गांव के तालाब के पास ही समय बीत जाता और अपने घर लौट जाती। एक दिन स्कूल से भी नाम कट गया। सिर्फ एक मां ही तो थी जो उसके लिए परेशान होती परंतु इससे अधिक मां भी उसके लिए कुछ भी नहीं कर सकती थी। सुबह से शाम तक चक्करघिन्नी के जैसे पिसने वाली मां चाह कर भी उसका ख्याल नहीं रख पाती थी।
पाखी तब साल भर की ही थी जबकि उसके पिता का देहांत हो गया और मां को ससुराल वालों ने घर से निकाल दिया। भाई भाभी भी पाखी की मां सुमित्रा का और पाखी का बोझ उठाने के लिए तैयार कहां थे? यह तो भला हो जमीदार बाबू का जिन्होंने कि पाखी की मां सुमित्रा से दूसरा ब्याह करने की इच्छा जताई। उनके चार लड़के थे जिनमें कि एक विवाहित भी था और उसके भी दो बेटे
थे। जमींदार थे तो घर में भैंस खेती-बाड़ी संभालने के लिए कोई औरत आ जाए तो बहुत अच्छा हो जाए। एक बहू दूसरे जमीदार की बेटी भी उनके घर में थी परंतु वह अपना साज सिंगार पूरा कर ले वही बहुत है फिर तीन देवर का और एक ससुर का बोझ बहू भला क्यों कर उठाए?
कुछ यही सोचकर जमींदार ने सुमित्रा से शादी की हां कर दी और साथ ही पाखी की भी अच्छे घर में शादी करवाने का वादा कर दिया। उनके घर में कोई लड़की तो थी नहीं विवाह के पश्चात बाकी भी सुमित्रा के साथ ही आ गई। जहां सुमित्रा सारा दिन घर में व्यस्त रहती थी वही पाखी सुमित्रा के साथ पूरे दिन तो पटरे पर नहीं बैठ सकती थी, इतनी बड़ी हवेली में घूमती तो गुस्से में भरी हुई जमीदार के बच्चों की आंखें उसे घूरती हुई प्रतीत होती थी। भले ही पाखी बच्चा थी परंतु प्रेम तो वह तब भी
समझती थी। पाखी ने घर से बाहर घूमना शुरू किया तो वहां उसके गली के कुत्ते और छोटे-मोटे जानवर दोस्त बन चुके थे। फूलों के साथ बैठकर वह खुद भी फूलों सी खिल जाती थी। हालांकि कुछ दिन तो मां के बिना अकेले सोने में भी उसे बहुत डर लगा पर धीरे-धीरे उसे मां के बाहर वाले कमरे में ही जमीन पर बोरी बिछा देती और चूहों को ही गणपति का रूप मानकर निडर होकर सो जाती थी।
समय बीता पाखी बड़ी हुई। भले ही वह बड़ी हो गई हो परंतु उसका सम्मान दिन प्रतिदिन कम ही हुआ रोज एक नए नाम से उसका संबोधन होता था। सारा दिन बेवजह गांव में भटकने वाली पाखी की मां को जब बहुत चिंता हुई तो उसने जमींदार जी से अपना वादा पूरा करने के लिए कहा। जमींदार ने साथ वाले गांव के ही दूसरे जमीदार के बेटे से उसका विवाह करना तय किया।पाखी के दहेज में
इतना पैसा और सामान देने का जमींदार जी जो वादा कर आए थे, इसके विरुद्ध घर के प्रत्येक लड़के और सबने अपना विरोध प्रकट किया। उनके हिसाब से इन मां बेटी को रखना ही काफी था विवाह में भला इतना ताम झाम करने की क्या जरूरत है। परन्तु जमीदार जी तो वादा कर आए थे।
सुमित्रा को भी लग रहा था कि अब उसकी तपस्या सफल हुई शायद उनकी बेटी अपना आगे का जीवन अच्छे से गुजार पाएगी यही बात उसके मन को संतुष्टि दे रही थी परंतु पाखी अभी भी सुबह से शाम तक बाहर ही रहती। सुमित्रा के डांटने पर कि अब विवाह में एक महीना भी नहीं रह गया है विवाह तक तुम कहीं नहीं जाओगी वह नहीं मानी और उस दिन भी सुबह घर से निकली और शाम
तक भी नहीं आई, जब पता करा और सारे में पाखी को ढूंढा तो पाखी तालाब के पीछे वाले सैनिक के घर में मिली। जम्मू के इलाके में जब सैनिक मनीष की ड्यूटी लगी थी तो एक आतंकवादी हमले में उसे काफी चोटें आई थी वह बच तो गया था परंतु उसके दोनों पैर कट चुके थे और एक हाथ भी काफी कमजोर हो चुका था। तालाब के उस पार पाखी मनीष की मां राधिका चाची के घर के कामों
में सहायता करती रहती थी। मनीष को सरकारी पेंशन तो मिलती ही थी। मनीष के भी काफी काम पाखी ही करती रहती थी। वह दोनों उसे जाहिल, पगली, मूर्ख ना कहकर उसे पाखी ही बुलाते थे। उनके द्वारा दिए गए सम्मान ने पाखी को खुद से ही मिला दिया था और वह उनकी जरूरत नहीं बनी थी बल्कि पाखी को ही उस परिवार की जरूरत थी। उसे ढूंढते हुए जब जमीदार के बेटे उसे लेने को
आए तो उसने स्पष्ट मना कर दिया और कहा कि मैं तो मनीष से ही शादी करना चाहती हूं। थोड़ा बहुत विरोध के बाद जमीदार के घर के तो सब लोग बहुत खुश थे कि चलो बिना पैसों के ही यह बला टल जाएगी। यह जाहिल और मूर्ख तो है ही, तभी तो इसने ऐसा फैसला लिया। अंततः वह भी इस विवाह को मान गए।
जमींदार ने जब उन मां बेटे को अपनी हवेली में ही पाखी से विवाह करने के लिए बुलाया तो उस विवाह के समय सब खुश थे, सिवाय सावित्री के। विदा होते हुए पाखी ने सावित्री से कहा मां दुखी ना होना सम्मान बहुत बड़ी चीज होती है यहां सबको मेरी जरूरत है और शायद ईश्वर ने यह घर मेरे लिए ही बनाया है। आप भी चिंता मत करना कभी आप भी इस कैद से छूटना चाहे तो मेरे पास आ जाना
हम सब एक प्रेम भरा संसार बसाएंगे मैं सच में बहुत खुश हूं। मनीष और उसकी मां भी सावित्री का हाथ पकड़ कर पाखी के विदा के समय उन्हें सांत्वना ही नहीं दे रही थी अपितु इस वक्त यह विश्वास भी दे रही थी कि उनकी बेटी अपने घर में बहुत सुख से रहेगी।
पाठकगण वास्तव में ही आपको क्या लगता है पाखी ने सही करा ना? वह उसके बाद अपने घर में रानी के जैसे रही और बहुत सुखी रही।
मधु वशिष्ठ, फरीदाबाद, हरियाणा
जाहिल शब्द प्रतियोगिता के अंतर्गत लिखी गई कहानी।