Moral Stories in Hindi
“मम्मा! मेरा हेडफोन कहाँ है?”
कृष्णा चिल्ला रहा था। उसने पूरा कमरा अस्त-व्यस्त कर दिया था।
तभी उसकी आवाज सुनकर माँ नीरा वहाँ आईं और बोलीं – “क्या हुआ कृष्णा? इतना शोर क्यों मचा रखा है?”
“ओह मम्मा! कितनी बार कहा है कि मुझे ‘कृष्णा’ मत बुलाया करो, ‘कृष’ बुलाओ, पर आप हैं कि समझती ही नहीं। मेरा वायरलेस हेडफोन कहाँ है?” कृष्णा ने तेज़ आवाज़ में पूछा।
“तुमने ही तो कल डाइनिंग टेबल पर फेंक दिया था। सुबह उठाया तो एक तरफ़ से टूटा पड़ा था। शायद रात में नीचे गिर गया होगा।”
कृष्णा झल्ला उठा — “जब आपने डाइनिंग टेबल पर देखा था तब ही उठा क्यों नहीं लिया? अगर आप उसे उसी वक्त उठा लेती, तो वह नहीं टूटता। एक हेडफोन तक नहीं संभाल सकतीं आप! दिनभर घर में करती क्या हैं?”
नीरा, कृष्णा के मुँह से ऐसी बातें सुनकर स्तब्ध रह गईं। “यह क्या हो गया है इस लड़के को? कितना बदतमीज हो गया है। हेडफोन जैसी छोटी सी बात के लिए इतना सब कुछ सुना दिया।”
तभी कृष्णा की दादी वहाँ आ गईं और गुस्से में बोलीं – “ये क्या तरीका है माँ से बात करने का? अभी एक थप्पड़ लगेगा तो दिमाग ठिकाने आ जाएगा।”
“हाॅं, हाॅं आप तो मुझे ही थप्पड़ लगाओगी। मम्मा को तो कुछ नहीं कहोगी।” यह कहकर वह पैर पटकता हुआ वहाँ से चला गया।
अब तो यह उसका रोज़ का नाटक बन चुका था – कभी खाने को लेकर, कभी कपड़ों को लेकर, या कभी किसी और बात पर वह नीरा से उलझ पड़ता, उससे बदतमीजी करता। उसका व्यवहार नीरा के प्रति दिन-ब-दिन बिगड़ता जा रहा था।
एक दिन नीरा ने उससे कहा – “कृष्णा, बेटा ज़रा दादी की दवाइयाँ मेडिकल से ला देना।”
ये सुनकर कृष्णा वीडियो गेम खेलते हुए बोला – “आपको दिख नहीं रहा कि मैं अभी बिजी हूॅं। मुझे परेशान मत किया करो। आप जाकर ले आओ। वैसे भी, आपको काम ही क्या है? सारा दिन खाली ही तो रहती हो। “
यह सब सुनकर नीरा भौंचक्की रह गई । उसने कुछ नहीं कहा, पर उसका मन अंदर ही अंदर दुख से भर गया। वह समझ नहीं पा रही थी कि कृष्णा ऐसा क्यों होता जा रहा है?
वह सोचने लगी – क्या मैं वाकई इतनी बेकार हूँ जितना मेरा बेटा मुझे समझने लगा है? जब उसे कुछ समझ में नहीं आया तो वह फूट-फूट कर रोने लगी।
उसकी हालत देखकर उसकी सास ने उसे शांत किया और प्यार से समझाया –”नीरा, मैं समझ रही हूँ तुम्हारे दिल पर क्या बीत रही है। लेकिन, कहीं ना कहीं कृष्णा के इस व्यवहार के लिए तुम और सुमित (कृष्णा के पिता) ही जिम्मेवार हो। सुमित, मेरा बेटा है, मैं जानती हूँ उसे। वो मेहनती है, जिम्मेदार भी है। लेकिन, हमेशा बाहर रहकर वो ये भूल गया है कि बेटे के लिए सिर्फ पैसे देना ही काफी नहीं होता। बच्चे को बाप की मौजूदगी भी चाहिए होती है — उसकी बातें, उसकी डाँट, उसकी छाया।”
“और तुम… तुमने अपने प्यार में कोई कमी नहीं छोड़ी, पर शायद वही प्यार कृष्णा के लिए एक छूट बन गया। उसकी हर गलती पर चुप रहकर तुमने उसे सिखा दिया कि माँ हमेशा माफ़ कर देगी, चाहे बेटा कुछ भी करे। ममता की भी एक हद होती है नीरा। और जब वो हद पार हो जाती है, तो बच्चा ममता को ही हल्के में लेने लगता है।
“तो, अब मैं क्या करूॅं माॅं? कृष्णा को इस तरह बिगड़ते हुए नहीं देख सकती।”
“तुम्हें, कुछ करने की जरूरत नहीं है। बस मैं जो करूॅं, उसमें तुम्हें मेरा साथ देना है। याद रखो — कभी-कभी बच्चों को सुधारने के लिए कठोर कदम भी उठाने पड़ते हैं। अब समय आ गया है कि कृष्णा को माँ और घर की अहमियत का एहसास दिलाया जाए।”
शाम को कृष्णा घर आया और आते ही हमेशा की तरह बिस्तर पर लेट कर मोबाइल में गेम खेलने लगा तो दादी ने उसके पास जाकर बड़े ही प्यार से कहा –
“कृष, तुम सही कहते हो। अब तुम बड़े हो गए हो। तुम्हें अपनी आज़ादी मिलनी चाहिए। हम सब तुम्हारी ज़िंदगी में अब दखल नहीं देंगे। आज से तुम अपने सारे काम अपने हिसाब से और खुद ही करोगे।”
यह सुनकर कृष बहुत खुश हो गया। “थैंक यू दादी थैंक यू वेरी मच। आपके मुॅंह से कृष सुनकर कितना अच्छा लग रहा है, नहीं तो वही बोरिंग कृष्ण सुन सुनकर तो मैं इरिटेट हो गया था।” यह सुनकर दादी मुस्कुराते हुए बाहर चली गई।
रात का खाना बन चुका था, पर किसी ने भी उसे नहीं बुलाया। रोज़ जिसे मनाकर खाना खिलाया जाता था, आज उसकी माँ ने भी कुछ नहीं कहा। भूख से परेशान होकर जब वह बाहर आया, तो देखा सब खा चुके हैं।
दादी ने मुस्कराते हुए कहा
“कृष, अब तुम्हें घर का ये टेस्टलेस खाना खाने की ज़रूरत नहीं। तुम अपने स्वाद के हिसाब से कुछ टेस्टी बना सकते हो या मंगा सकते हो। कोई कुछ नहीं कहेगा। है ना नीरा?”
“जी बिल्कुल माॅंजी, इसकी जो इच्छा हो वो खाए, वो पिए। वैसे ही रहे। आखिर, बड़ा जो हो गया है।
यह सुनते ही कृष ने खुशी-खुशी डोमिनोज का पिज़्ज़ा मॅंगा कर बहुत ही चाव से खाया।
अगले दिन न तो नीरा ने उसे उठाया, न चाय-नाश्ता दिया, और न ही उसका टिफिन बनाया। उठने में लेट होने के कारण किसी तरह भागते, दौड़ते खाली पेट कॉलेज पहुॅंचा। एग्जाम होने के कारण कॉलेज जाना जरूरी था।
शाम को थका-हारा लौटा, तो खुद ही चाय बनाई, अपने कपड़े धोए, कमरा साफ़ किया और रात को भूखा ही सो गया।
यह देखकर नीरा का दिल रो पड़ा। “माॅंजी, अभी भी भूखे पेट सो गया। आज सुबह भी घर से कुछ खाकर नहीं गया था। मैं उसे उठाकर कुछ खिला देती हूॅं।”
“नहीं नीरा, तू उसे कुछ नहीं खिलाएगी। याद रखो, हम यह जो कुछ भी कर रहे हैं उसकी बेहतरी के लिए कर रहे हैं।”
अब तो यह सिलसिला ही बन गया। न ढंग का खाना, न साफ कपड़े, न समय पर कॉलेज। शुरू शुरू में तो उसने ‘स्विग्गी, जोमैटो और डोमिनोज’ से बाहर से खाना मंगा कर खूब चाव से खाया। लेकिन, रोज-रोज बाहर का खाकर उसकी तबीयत भी खराब रहने लगी और दूसरी उसकी पॉकेट मनी भी खत्म हो गई। उसकी ऐसी हालत देखकर दोस्तों ने भी दूरी बना ली।
हफ्ते भर में ही उसकी हालत पस्त हो गई। अब उसे समझ आने लगा था कि माँ का प्यार, देखभाल और उपस्थिति कितनी अनमोल थी। वह दौड़कर नीरा के पास गया और बोला –
“माँ, मुझे माफ़ कर दो। मैंने बहुत बुरा व्यवहार किया।”
नीरा ने उसे गले से लगा लिया। उसकी आँखों में खुशी के आँसू थे, वह मुस्कुरा रही थीं।
तभी दादी ने मुस्कराते हुए कहा –
“क्यों कृष, आज मम्मा, माँ कैसे बन गईं?”
कृष्णा ने कान पकड़ते हुए कहा –
“दादी, कृष नहीं… कृष्णा। ये मेरी माँ और आप मेरी प्यारी दादी माॅं हैं, मुझे माफ कर दीजिए।”
दादी ने उसे गले लगाते हुए कहा –
“कोई बात नहीं बेटा, जब जागो तभी सवेरा।”
धन्यवाद
लेखिका-श्वेता अग्रवाल, धनबाद झारखंड
साप्ताहिक विषय प्रतियोगिता -कठोर कदम
शीर्षक- ‘जब जागो तभी सवेरा’