विवाह एक ऐसी हृदय की आन्तरिक आनन्दानुभूति है जो प्रत्येक कन्याओं के हृदय में सुनहरे सपनों के संसार में विचरण कराती है। “अपना घर होगा,पति का साथ,उसका प्यार और मां की तरह वह भी गृहस्वामिनी बनेगी। घर के सदस्यों के साथ उसका भी वर्चस्व होगा ” इन्हीं सुनहरे सपनों की चादर नलिनी बुनती रहती थी।
नलिनी के विवाह की तिथि निश्चित हो गई थी। उसका मन मस्तिष्क भविष्य की सुंदर कल्पनाओं में गोते खा रहा था।
प्रथम मिलन में नलिनी अपने भावी पति मनोहर के स्वाभिमानी, गौरवशाली चेहरा और शान-शौकत से भरा वेशभूषा देखकर बहुत ही प्रभावित हुई। प्रतिष्ठित पद, और आकर्षक व्यक्तित्व वाले भावी पति को देखकर नलिनी स्वयं ही अपनी किस्मत को सराहने लगी थी कि ऐसे पति को पाना तो उसका सौभाग्य ही है।
विवाह का दिन आ गया। नलिनी का मन कुछ अन्यमनस्क सा हो उठा। जिस घर में उसका बचपन, दौड़ना -कूदना, रूठना मनाना सभी स्वतंत्रता से बीता, आज के बाद वह सब छूट जाएगा। ससुराल वाले उसके साथ कैसा व्यवहार करेंगे। इन्हीं प्रश्नों में उलझी हुई वह कुछ उदास सी हो गई।
मां ने नलिनी को उदास हुए देखा तो उसे अपने सीने से लगा लिया। मां नलिनी को समझाते हुए बोलीं ” बेटा, हर लड़की के जीवन में यह एक दिन अवश्य आता है जब उसे अपने मां-बाप का घर छोड़कर ससुराल जाना होता है। यही सामाजिक रीति-रिवाज है बेटा। दुखी मत हो। हम सब साथ हैं न! शादी हो जाने के बाद हम तुम्हें छोड़ देंगे क्या। तुम्हारा ख़याल हमेशा रखेंगे। मां ने बेटी को ढांढस बंधाया परन्तु उसकी विदाई की सोचकर उनकी आंखों से आंसू बह निकले।
बड़ी धूमधाम और सौम्यता से शादी संपन्न हो गई। नलिनी और मनोहर आजीवन के लिए परिणय सूत्र में बंध गए। नलिनी की मां शोभावती पुत्री को विदा करते हुए मनोहर से बोलीं -“बेटा, नलिनी बड़े लाड़-प्यार से पली है।अब यह तुम्हारी अर्धांगिनी है। इसे कोई दुःख न होने पाए । कभी कुछ ग़लती हो जाए तो माफ़ कर देना।” विनय पूर्वक कहकर बेटी को विदा किया।
ससुराल में बहू आगमन की सारी औपचारिकताएं पूरी की गई। सास ससुर नलिनी के व्यवहार और कर्तव्य परायणता से खुश थे और आश्वस्त हो गए कि बहू अच्छे से घर को संभालेंगी। नलिनी ने भी सास ससुर के व्यवहार में अपने मां पापाजी के जैसा प्यार महसूस किया। मनोहर ज़रा सख़्त मिज़ाज का प्रतीत हो रहा था। फिर भी उसने नलिनी से कभी कड़े शब्दों का प्रयोग नहीं किया। नलिनी के हृदय में यह भावना पनपने लगी कि भले ही मनोहर कम बोलते हैं और सख़्त मिज़ाज के हैं परन्तु दिल के अच्छे हैं। शीघ्र ही उसने सभी की पसंद नापसंद और उनकी ज़रुरतों को समझ लिया।
मनोहर आर्मी में लेफ्टिनेंट था। दो महीने की छुट्टी समाप्त हो रही थी। बस एक हफ्ते का समय ही शेष रह गया था। ड्यूटी पर जाने की तैयारी शुरू हो गई थी। एक रात को नलिनी ने मनोहर से पूछा “मुझे भी साथ ले चलेंगे न। मैं भी तैयारी कर लूं”। ” नहीं, तुम मम्मी पापा के साथ ही रहो।”मनोहर ने ज़वाब दिया। “इस बार नहीं,अगली बार तो ले चलेंगे। हमारी शादी हुई है। हमें साथ तो रहना चाहिए।” ” शादी होने से क्या मतलब, यहां हम एक साथ नहीं रहे हैं। मैं हर साल एक बार आता तो हूँ। मनोहर के ऐसे ज़वाब सुनकर नलिनी चुप हो गई।
मनोहर के जाने का दिन आ गया। एयरपोर्ट जाने के लिए कैब आ गई थी। सामान लेकर जैसे ही वह बैठने लगा, नलिनी ने धीरे से कहा ” फोन करते रहना” “ठीक है करुंगा। मम्मी-पापा का ध्यान रखना।” कहकर मनोहर ने उसपर उत्तरदायित्व सौंपकर चला गया।
दूसरे साल मनोहर दो महीने की छुट्टियों में पुनः आया और बिना नलिनी को लिए वापस चला गया। इस बार मनोहर के जाते समय नलिनी ने कहा ” आप पापा बनने वाले हो”मनोहर दबी हुई मुस्कान बिखेरी और चला गया। मनोहर कभी कभी ही पापा से फोन पर बात कर लेता था। नलिनी उम्मींद लगाए बैठी रहती कि मुझसे भी बात करेंगे, लेकिन निराशा ही हाथ लगी। पापा ने एकाध बार कहा कि बहू से बात कर लो। “अरे! आप से हालचाल मिल गया और क्या बात करनी है” कहकर फोन रख देता था।
नलिनी मां बन गई। सुंदर मुखाकृति आकर्षित हाव-भाव वाली कन्या उसकी गोद में खेलने लगी। चंद्रमुखी चंचल नेत्रों वाली पोती का नाम ससुर ने मीनाक्षी रखा। मीनाक्षी जब दो साल की हुई तब मनोहर आया और एक महीने बाद ही वापस चला गया। उसके बाद कई साल तक वह न घर आया और न ही नलिनी से बात किया।जब कभी नलिनी ख़ुद फ़ोन करती थी तो वह संक्षिप्त बात करके फ़ोन काट देता था।
समय की रफ़्तार हवा की तरह बहती रही। एक ऐसा समय आया जब नलिनी अकेली रह गई। एक ट्रेन एक्सीडेंट में सास ससुर परलोक सिधार गए। उस समय मनोहर आया और क्रिया कर्म करके वापस लौट गया। नलिनी और बेटी मीनाक्षी जहां थीं, वहीं रह गईं। नलिनी की मां पापा ने उससे अपने घर चलने के लिए कहा तो मना कर दिया।कहा -“मेरे जीवन का संघर्ष मुझे स्वयं ही करना है।”
नलिनी ने मन ही मन संकल्प लिया कि वह अब अपने जीवन में # कठोर कदम उठाएगी। अब और नहीं सहना है। उसने बुटीक की शाप खोली और अपने नए जीवन की शुरुआत की। मनोहर को पत्र लिखा -” मैं अपना और अपनी बेटी का जीवन अच्छी तरह गुजारने में पूर्णतः सक्षम हूँ ।अब कभी यहां आने की मत सोचना। तुम जहां हो, जिसके साथ हो, मुझे अब कोई फर्क नहीं पड़ता। मैंने तुम्हें अपने जीवन से, अपने हृदय से निकाल दिया है। यह मेरा पहला और आखिरी # कठोर कदम है जो मैंने उठा लिया है,अब पीछे नहीं हटेगा।”
स्वलिखित, मौलिक रचना ,
गीता अस्थाना,
बंगलुरू।
गीता अस्थाना,