लालच के अंधे – विभा गुप्ता :  Moral Stories in Hindi

        हमेशा की तरह शाम के ठीक चार बजे मोहल्ले के ‘शांति पार्क’ में श्रीधर बाबू और श्यामलाल जी मिले।श्यामलाल जी का उदास चेहरा देखकर श्रीधर बाबू पूछने लगे,” क्या हुआ भाई..चेहरा क्यों उतरा हुआ है..भाभी जी से कुछ कहा-सुनी..।”

    ” नहीं भाई..इस उमर अब वो क्या कहेंगी..।बेटे ने ही कल…।” कहकर वो चुप हो गए।

   ” क्या बेटे ने..पूरी बात तो बताइये।” कहते हुए श्रीधर बाबू ने धीरे-से उनके हाथ पर अपना हाथ रखा तो श्यामलाल जी की आँखें भर आईं।भरे गले से बोले,” आप तो जानते ही हैं कि रिटायर होने के बाद पत्नी के कहने पर मैंने खून-पसीने से बनाया अपना घर बेटे के नाम कर दिया था।उसके कुछ दिनों बाद से ही बहू की आँखों में हम खटकने लगे थे।हम पर बेवजह की पाबंदियाँ लगाई जाने लगी जिसकी वजह से पत्नी का स्वास्थ्य गिरने लगा था।”

   ” हाँ..ये सब तो आप बता ही चुके हैं लेकिन आज क्या हुआ? ” 

   ” आज नहीं..कल रात में…।कनाडा से बहू का भाई आया हुआ है।खाने की टेबल पर उन लोगों में कुछ खुसर-पुसर हुई और फिर मेरे कमरे में आकर मनीष बोला,” पापा जी..मनु के मामा को एक अलग कमरा चाहिये..आप तो जानते ही हैं कि कनाडा में उसका कितना बड़ा मकान है..आप लोग कुछ दिनों के लिए स्टोर रूम में शिफ़्ट हो जाते तो ठीक रहता।माँ के बार-बार खाँसने से आपका पोता भी डिस्टर्ब होता है..।पोते का नाम सुनते ही पत्नी तो अपना कमरा छोड़ने के लिए तुरंत तैयार हो गई लेकिन मैं जानता हूँ कि स्टोर रूम के दमघोंटू वातावरण में वो दो दिन भी जी नहीं पाएगी..।अपना बसेरा बेटे के नाम करके भाई, हमने बहुत बड़ी गलती कर दी है..।”

    ” गलती ठीक भी तो की जा सकती है।बेटे पर केस करके अपना घर वापस ले लो।” 

    ” बेटे पर केस..हम ऐसा# कठोर कदम कैसे उठा सकते हैं..वो हमारा खून है..।” श्यामलाल जी की आवाज़ में क्रोध के साथ-साथ रोष भी था।तब श्रीधर बाबू व्यंग्य-से बोले,” भाई..लालच के अंधे को नाते-रिश्ते दिखाई नहीं देते..वो तो बस लेना जानते हैं।”

     ” आप तो कहेंगे ही..आप क्या जाने कि अपनों से लड़ना कितना मुश्किल है..।” 

   ” जानता हूँ भाई और समझता भी हूँ क्योंकि हम भी भुक्तभोगी हैं..।” कहते हुए श्रीधर बाबू की आँखों में दर्द उभर आया।

   ” क्या! आपने भी..कभी बताया नहीं..ये सब कैसे..।” श्यामलाल जी आश्चर्य-से उनकी तरफ़ देखने लगे।तब श्रीधर बाबू गंभीर स्वर में बोले,” कभी मेरा भी हँसता-खेलता परिवार हुआ करता था।दफ़्तर की नौ से पाँच तक की ड्यूटी बजाकर घर आता और पत्नी के हाथ की गरम रोटियाँ खाते हुए तीनों बच्चों से उनके स्कूल की बातें सुनता था।बच्चे सयाने होने लगे तब पत्नी बोली,” मुझे कपड़े-गहने का तो कोई शौक नहीं है..बस इतना चाहती हूँ बेटी को अपने घर से विदा करूँ..।मेरे कुछ परिचित इस काम में अपना हाथ लगा चुके थे, सो हमने भी उनके पीछे-पीछे बैंक से लोन लेकर ज़मीन ले ली।गाँव में पिताजी की थोड़ी बंजर ज़मीन थी,उसे बेचकर घर का काम शुरु करवा दिया।तनख्वाह से किश्त कटने लगी तब पत्नी नंदिनी ने अपने हाथ तंग कर लिये लेकिन बच्चों की ज़रूरतों में कोई कमी नहीं आने दी।कभी आर्थिक तंगी आई तो कभी मौसम की मार पड़ी ..लेकिन नंदिनी ने अपना धैर्य नहीं खोया।ईश्वर की कृपा से घर बन गया और जिस दिन दोनों बेटों ने इंजीनियरिंग की डिग्री ली,उसके अगले ही दिन हमने ‘ नंदिनी निवास’ में गृह-प्रवेश कर लिया।” उन दिनों की याद से श्रीधर बाबू का चेहरा चमक उठा था।

     ” फिर क्या हुआ?” श्यामलाल जी पूछने पर श्रीधर बाबू बोले,” बड़ा बेटा अजय मुंबई में नौकरी करने लगा और छोटा अभय मेरे साथ रह गया।उसे यहीं के एक कंपनी में नौकरी मिल गई।बेटी सयानी हो गई थी।खाता-पीता परिवार देखकर हमने बैंक में काम करने वाले प्रभात नाम के लड़के के साथ उसका विवाह करा दिया।बेटों ने अपनी-अपनी पसंद देख रखी थी, साल बीतने से पहले ही हमने एक ही मंडप में उनकी भी शादी करवा दी।

     अजय पत्नी को लेकर मुंबई चला गया और अभय हमारे साथ..।मैं और अभय अपने-अपने काम पर चले जाते..घर में सास-बहू रहतीं।समय के साथ बेटी ने एक एक बेटे को जनम दिया और दोनों बहुओं को भी दो-दो संतानें हुईं।”

   ” ये सब तो अच्छा-अच्छा ही हुआ ना..।”

   ” हाँ..।” कहते हुए श्रीधर बाबू ने एक ठंडी साँस ली और बोले,” मैं अस्वस्थ रहने लगा तो कुछ महीनों पहले ही रिटायरमेंट ले लिया।बैंक का लोन चुकता करने के बाद जो हाथ में आया वो हम दो प्राणी के लिए काफ़ी था।

     बेटे-बहू से हमने कोई उम्मीद नहीं रखी.. पत्नी हमारी देखभाल करती थी..बड़ा कभी-कभी आकर मिल लेता था।फिर एक दिन अभय अपनी माँ से बोला,” माँ..आप घर का बँटवारा कर देती तो अच्छा रहता।बाद में तो भईया ही पूरा हड़प लेंगे।” कुछ दिनों बाद यही बात अजय ने नंदिनी से कहा।मैंने उन दोनों को समझाया कि इतने उतावले क्यों हो रहे हो..हम लादकर तो ऊपर ले जाने से रहे..।लेकिन बार-बार यही बात होने लगी तो घर में तनाव होने लगा।तब मैंने कहा,” ठीक है..मैं ज़रा गाँव होकर आता हूँ, फिर..।” मैं चला गया और पीछे से एक ने अपनी माँ से घर के पेपर पर हस्ताक्षर करवा लिए और दूसरे ने मेरे हस्ताक्षर बना लिये।घर में बहू के रिश्तेदार बेधड़ल्ले से आने लगे तो हमने टोक दिया और तब हमें उनकी सारी ज़ालसाजी का पता चला।दोनों बेटों ने हमारे आशियाने से हमें ही बेदखल कर दिया था।हम बस उस घर में मेहमान बनकर रह गये थे।दुख तो इस बात का था कि बेटी-दामाद ने भी उनका ही साथ दिया।

    ” ओह! फिर?”

    ” फिर एक दिन अभय बोला,” पापा..माँ हरिद्वार जाना चाहतीं हैं तो आप उन्हें ले जाइये..।” हमने मना करना चाहा तो पत्नी बोली,” बेटा..भेज रहा है तो चलिये ना..।” पुत्र-मोह में फँसी माँ को समझाना व्यर्थ था, सो हम चले गये और वापस आये तो घर के दरवाज़े हमारे लिए बंद हो चुके थे।” कहते हुए श्रीधर बाबू फ़फक कर रो पड़े।

      श्यामलाल जी उनके आँसू पोंछे, तब श्रीधर बाबू बोले,” उस वक्त तो कुछ समझ नहीं आया, फिर हम अपने मित्र सुरेन्द्र के घर गये।उनका बेटा वकील था।हमारी व्यथा सुनकर उसने ही सलाह दी कि आप दोनों बेटों पर जबरदस्ती घर पर कब्जा करने का केस कीजिये।कोर्ट आपको घर दिलायेगी और भरण-पोषण के लिए खर्च भी..।पत्नी हमसे बोली कि अपने बेटों के खिलाफ़ इतना #कठोर कदम आप नहीं उठायेंगे।हमने उन्हें किसी तरह समझाया..।पहली तारीख में ही हमें घर में एक कमरा मिल गया जहाँ फैसला होने तक हम रहे।साल भर केस चला..काफ़ी परेशानियाँ आईं..ज़िल्लतें भी सहीं।अंततः घर हमें मिल गया।अभय अपनी मर्ज़ी से कहीं और शिफ्ट हो गया।उसके बाद उन्होंने खबर नहीं ली।हमने भी उन्हें पत्नी के निधन की सूचना नहीं दी।अब अकेला हूँ लेकिन खुश हूँ।इसीलिए आपको कह रहा हूँ कि…।”

   ” श्रीधर भाई..माफ़ी चाहता हूँ।आपको समझने में हमसे भूल हो गई।मैं पत्नी से बात करके कल आपको बताता हूँ।” कहकर दोनों अपने-अपने घर चले गएँ।

     बेटे से घर वापस लेने की बात पर श्यामलाल की पत्नी क्रोधित हो उठी,” कोर्ट-कचहरी में बेटे को बदनाम करने नहीं दूँगी।” तब श्यामलाल जी उन्हें समझाया कि ये लालच के अंधे हैं..इनके लिये पैसा ही रिश्ता है तो तुम क्यों इतना सोच रही हो।

      श्रीधर बाबू की मदद से श्यामलाल जी वकील से मिले और बेटे पर मुकदमा दायर किया।अदालत में जब बेटे के वकील ने उन पर आरोप लगाया तब उनकी पत्नी बोली,” आपने ठीक किया..।” महीनों केस चला..अड़चने भी आई लेकिन अंत में फ़ैसला उनके हक में हुआ।बेटे-बहू जाने लगे तो उन्होंने रोका नहीं।वे पत्नी संग अपने घर में आराम से ज़िंदगी बिताने लगे।

        श्रीधर बाबू और श्यामलाल जी हमेशा की तरह शांति पार्क में मिलते हैं..हँसते-बतियाते हैं और किसी बुजुर्ग के साथ अन्याय होता है तो उन्हें कानूनी कार्रवाई करने की सलाह देने के साथ-साथ मदद भी करते हैं।

                                  विभा गुप्ता

# कठोर कदम           स्वरचित, बैंगलुरु 

              कभी-कभी अपने हक के लिये अपनों के खिलाफ़ कठोर कदम उठाने ही पड़ते हैं।श्रीधर बाबू ने भी यही किया।

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