एक कदम – रश्मि प्रकाश  : Moral Stories in Hindi

“ कितनी अजीब बात है ना सुहास… कल तक मुझे चुप करवाने वाले को आज बोलने के लिए मेरी इजाज़त की ज़रूरत पड़ने लगी…।” दृष्टि सुहास को देखते हुए बोली 

सुहास चाह कर भी कुछ बोल ना पाया… बस एकटक दृष्टि को देखता रहा और आँखों से अविरल अश्रु धारा बहती जा रही थी…. चाहती तो दृष्टि भी थी आगे बढ़ कर इन आँसुओं को पोंछ दे पर अब बस … बहने देना था उन्हें… बहुत मुश्किल से उसने कठोर कदम उठाया था और उस पर फिर से अपने सरल स्वभाव थोपना नहीं चाहती थी 

दृष्टि हिक़ारत भरी नज़रों से सुहास को देख रही थी और सुहास चाह रहा था कि वो पास आकर बैठे… वो जो कुछ भी कहना चाहता है उसे दृष्टि सुने पर दृष्टि ना जाने अब कैसे कठोर हो गई है … फिर भी हिम्मत कर के सुहास ने दृष्टि की ओर अपने हाथ के इशारे से उसे बिस्तर पर बैठने का इशारा किया ।

“ बोलो क्या बोलना चाहते हो…।” दृष्टि पास आकर बैठते हुए बोली 

सुहास दृष्टि को छूकर महसूस करना चाहता था वो धीरे-धीरे अपना हाथ आगे बढ़ा कर उसके हथेली पर अपना हाथ रखना चाहता था पर दृष्टि को छूने के लिए भी आज वो उसकी ओर ताक रहा था 

“ बोलो भी मुझे यहाँ क्यों बुलाएँ हो?” दृष्टि ने पूछा 

“ मैं अपने हर किए की माफ़ी माँगना चाहता हूँ दृष्टि… तुम मुझे माफ़ कर दो तो इस जीवन से मुझे मुक्ति मिल जाएगी ।” अस्पष्ट शब्दों में धीरे-धीरे सुहास ने कहा 

” तुम्हें इतनी आसानी से माफ कर दूँ सुहास..?” दृष्टि सुहास की बात सुन घृणा से भर उठी 

“ मैडम अब इन्हें आराम करने दीजिए…फिर कभी आकर मिल लीजिएगा ।” नर्स ने आकर दृष्टि से कहा 

दृष्टि फिर एक बार फिर सुहास की ओर देखी और उसकी नज़रों से नज़रें मिलते ही मुँह फेर कर बाहर निकल गई 

“ चलो बेटा।” बाहर निकल कर अपने बेटे मयंक से बोली और उसका हाथ पकड़कर वहाँ से जल्दी से जल्दी निकल जाने को आतुर दिखी

“क्या कह रहे थे वो ?” कार में बैठते ही मयंक ने पूछा 

“ माफ़ी माँग रहे थे ।“अपने सिर को सीट पर पीछे टिकाते हुए आँखें बंद कर दृष्टि ने हौले से कहा

“ क्या आप ….? मयंक चाह कर भी कुछ कह ना पाया

दृष्टि ना जाने क्यों सब भुला कर आगे बढ़ना चाहती थी पर कहीं ना कहीं सुहास अभी भी उसकी ज़िन्दगी का हिस्सा बना हुआ था…

परिवार की मर्ज़ी के साथ अपनी मर्ज़ी का मोहर लगा कर वो सुहास की दुल्हन बन कर ससुराल आ गई… शुरू मे सब इतना अच्छा दिखाई दे रहा था कि दृष्टि अपने आपको सबसे ज़्यादा खुशनसीब समझ रही थी पर धीरे-धीरे बाहरी आवरण उतरते गए और असलियत सामने आने लगा…. 

दृष्टि पढ़ी लिखी तो थी ही दुनियादारी की भी समझ रखती थी…. सास ससुर खुद आपस में हमेशा लड़ते झगड़ते रहते थे और यही आदत सुहास में भी घर कर गई थी… उस एक घर में जो समझ सकती थी वो थी दृष्टि की ननद गरिमा जो हमेशा दृष्टि का साथ देती थी…. सुहास ऐसे ही किसी प्राइवेट कम्पनी में काम करता था जब मन करे नौकरी करता फिर छोड़ देता… सिगरेट शराब की लत वैसे ही उसको लगी हुई थी… दृष्टि पर हाथ पैर चलाने तक से परहेज़ ना करता …दृष्टि चाहती थी वो नौकरी कर ले पर एक सुर में सबने कह दिया घर से बाहर टांग निकाला तो टांगें तोड़ देंगे….वो दिन भर सबकी चाकरी करती…

उधर शादी के कुछ समय बाद ही पिता के गुजर जाने से दृष्टि का मायके जाना भी छूट गया…. भाभी को उसका आना रास ना आता… माँ खुद बेटा बहू पर आश्रित थी चाह कर भी बेटी को बुलाने में असमर्थ थी… दृष्टि की मजबूरी उसे इस घर में बाँधे रखी थी… ननद की पढ़ाई चल रही थी वो भी घर में सहमी सहमी ही रहती… माँ को भी हमेशा पिता से मार खाते देखती रही अब भाभी को… कभी कभी उसका जी करता वो इन सब का विरोध करें पर इतनी हिम्मत वो कभी जुटा नहीं पाती थी…. कभी माँ तो कभी भाभी के आँसू पोंछने भर ही वो उनकी सहायता कर पाती थी….. कुछ दिनों से दृष्टि की तबियत ख़राब चल रही थी…. ज़्यादा काम करो तो चक्कर आने लगता…… किसी तरह सुहास को कहा तो वो डॉक्टर के पास लेकर गया पता चला दृष्टि माँ बनने वाली है…. अब दृष्टि को बच्चे की फ़िक्र भी रहने लगी थी…. एक दिन सुहास उसे चाय बना कर लाने को बोला…दृष्टि चाय लेकर जा ही रही थी कि उसकी आँखों के आगे अंधेरा छाने लगा था…. जल्दी से ननद ने सँभाला और उसे कमरे में ले जाकर लिटा दी….

“ भाई भाभी को अब आराम की ज़रूरत है…. इनसे इतना काम नहीं होगा…. माँ भी हमेशा बीमार ही रहती है और मेरे कॉलेज की पढ़ाई होती … आप काम करने के लिए किसी को रख लो।” बहन ने सहमते हुए कहा 

“ तू चुप कर बड़ी आई मुझे सिखाने वाली….कौन सी औरत माँ नहीं बनती ….. सब काम भी करती रहती है…. ये भी करेगी।” सुहास ने डपटते हुए कहा 

“ चल ला इधर चाय पकड़ा ।” सुहास बेरहमी से बोला

गरिमा दृष्टि को एक नज़र देखी और कमरे से निकल गई ।

“ ये सब क्या नाटक लगा रखा है…. चक्कर आ रहा तो… कभी जी मचल रहा है….ये सब चोचले ना मेरे पास तो करो ही मत…।” कहता हुआ सुहास अपने पैरों से दृष्टि को धकेल कर उठाने की कोशिश करने लगा

दृष्टि पैर लगते नीचे गिर पड़ी और जोर से चीखी

गरिमा दौड़ते हुए कमरे में आ गई 

दृष्टि ज़मीन पर बैठी कराह रही थी….

“ अब बस भाभी….. कितना सहोगी…. ये लोग इस लायक़ नहीं है जो तुम इनकी सेवा में खुद को मार रही हो.. चली जाओ यहाँ से…नहीं तो मर जाओगी ।” गरिमा भाभी को भींचते हुए बोली 

“ कहाँ जाऊँगी इस हालत में…मायके का हाल तो तुम जानती ही हो…।” दृष्टि लाचारी से बोली

“ ऐ क्या पाठ पढ़ा रही है उसको… चल जा अपने कमरे में… नहीं तो टांगें तोड़ दूँगा ।” कहते हुए सुहास गरिमा की ओर लपका 

गरिमा को बचाने के चक्कर में दृष्टि को लग गया….“ अब बस भाभी…. चली जाओ यहाँ से एक बार हिम्मत कर लोगी तो सब ठीक हो जाएगा… जो सहती रहोगी तो नारकीय जीवन जीना पड़ेगा ।” पता नहीं गरिमा में इतना साहस कहाँ से आ गया था जो वो भाभी को जाने कह रही थी 

दृष्टि कुछ देर सोचती रही फिर धम्म कर वही बैठ गई…..,“ नहीं जा सकती …. माँ बनने वाली हूँ…. क्या होगा सब कैसे होगा….।”

सुहास दृष्टि को देख कुटिल मुस्कान दे कमरे से निकल गया ।

“ भाभी क्यों ज़िल्लत की ज़िन्दगी जीने को मजबूर हो…आपको पता है कोई आपका साथ कभी नहीं देगा…. ना माँ -पिता ना आपका पति…. और मैं यहाँ ज़्यादा दिन नहीं रहने वाली …. कॉलेज ख़त्म होते नौकरी कर इस नरक से दूर चली जाऊँगी…. मेरे माता-पिता को भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा।” गरिमा दृष्टि को देख कर बोली 

“गरिमा मैं नहीं जा सकती नहीं हिम्मत मुझमें….अब बस जैसे चल रहा चलने देना है…।” कह कर दृष्टि खुद को सँभालती हुई उठी और ससुर की आवाज़ सुन उन्हें पानी देने जाने लगी 

“ भाभी आप रूको मैं दे देती हूँ।” गरिमा ने कहा 

“ नहीं नहीं आप जाएगी तो फिर भी मुझे ही डाँट पड़ेगी…आपसे काम करवाती हूँ कह कर।” दृष्टि किसी तरह खुद  को सँभाल कर कमरे से निकल गई

समय गुजरने लगा और दृष्टि इस ज़िन्दगी में खुद को ढालने लगी …. गरिमा लाख चाह कर भी दृष्टि को मना नहीं पाई… वो भी नौकरी कर अपनी अलग गृहस्थी बसा मग्न हो गई… देखते देखते दृष्टि एक और बच्चे की माँ बन गई…बेटा मयंक और बेटी माही भी उसी हाल में बड़े हो रहे थे…एक दिन सुहास ने ग़ुस्से में माही को डाँटते हुए उस पर हाथ उठा दिया… सिर जाकर दरवाज़े की कुंडी से जा टकराया..माही कराह उठी सिर फट गया था… खून बह रहा था… जिसे देख पहली बार दृष्टि तिलमिला गई…. 

“ अब बस सुहास…. खुद पर सब झेलती रही हूँ पर अब मेरी बेटी पर हाथ उठाने लगे…ये मुझसे बर्दाश्त नहीं होगा।” खा जाने वाली नज़रों से दृष्टि ने सुहास की ओर देखा

“ ज़्यादा ज़बान चलाने लगी है… मेरी बेटी है हाथ उठाया तो क्या हुआ… देख नहीं रही पानी गिरा दिया उसने मेरा पैर फिसला… चोट लगता या कमर टूट जाता फिर।” सुहास तमतमाते हुए बोला

पता नहीं आज पहली बार दृष्टि को गरिमा की बहुत याद आ रही थी….सोच रही थी पहले ही चले जाना चाहिए था…. सास ससुर तो अब रहे नहीं थे…बच्चों की ख़ातिर जैसे तैसे इसके साथ रह रही थी पर अब बस… एक कठोर कदम मुझे इन बच्चों की ख़ातिर उठाना ही होगा नहीं तो कल को मयंक भी ऐसा ही बन जाएगा ।

अपने और बच्चों के सामान बाँध कर वो घर से कदम बढ़ा दी…. आज टांगें टूटने का डर नहीं था…..

बाहर निकल कर रहने का सोच ही रही थी कि सामने से गरिमा को आते देखी

“ चलिए भाभी हमारे साथ… मयंक ने फोन कर मुझे सब कुछ बता दिया था….भाई भी हद करता है छोटी सी बच्ची पर भी हाथ उठा दिया ।” कहते हुए गरिमा ने ऑटो पर सबको बिठाया और अपने साथ ले गई 

अब दृष्टि के लिए दोनों बच्चों की परवरिश और रहने खाने की चिंता होना लाज़िमी था….

“ भाभी ये रहा आपका घर…।” गरिमा एक कमरे का दरवाज़ा खोलते हुए बोली 

“ पर हम इसका किराया…?” दृष्टि ने पूछा 

“ भाभी इसकी कोई ज़रूरत नहीं है…. अब जब आप खुद का सोचने लगी हो तो इस बारे में बात कल करते हैं…. खाना रखा है आप सब खा लेना ।” कह गरिमा दरवाज़ा बंद करने को कह कर चली गई 

दूसरे दिन गरिमा दृष्टि के लिए एक सिलाई मशीन और कुछ कपड़े लेकर आ गई ।

“ भाभी आप जो काम घर में सुई धागे से करती रही हो  अब मशीन पर करना है और यही आपकी आमदनी का ज़रिया होगा और मैं हर कदम पर साथ दूँगी पर इसके लिए आपको पहले खुद को मज़बूत करना होगा ।” गरिमा दृष्टि को समझाते हुए बोली 

दृष्टि जिसने पहले कभी ऐसे घर से बाहर कदम ना रखा था आज अपनी ननद का साथ पाकर कुछ करने जा रही थी….

सुहास अपने में अकेले में मस्त रहने लगा था…. अब किसी की ना परवाह करनी थी ना पैसे खर्च करने की चिंता थी…

इधर दृष्टि के काम की शुरुआत हो चुकी थी…. अब दृष्टि बुटीक के नाम से उसका बढ़िया काम चल पड़ा था… बच्चे बड़े हो गए थे… बस शादी ही तो करनी थी….

एक दिन अचानक किसी नम्बर से फ़ोन आया…. ,“दृष्टि  जी सुहास जी आपसे मिलना चाहते है…आप यहाँ सरकारी अस्पताल में आकर उन्हें मिल लीजिए ।”

बहुत सोच कर ही वो एक बार सुहास को देखने की हिम्मत कर के मयंक के साथ आई थी…

दृष्टि अभी भी ख़्यालों में ही खोई रहती अगर कार तेज ब्रेक पर ना रूकती

“ क्या हुआ बेटा ?” दृष्टि ने पूछा 

“ माँ वो सामने एक कुत्ता आ गया था…. आप रो रही है…?” दृष्टि की आँखों की ओर देखते हुए मयंक ने पूछा 

“ बस पुरानी बातें याद आ गई थी ।” दृष्टि ने कहा 

“ माँ भूल जाओ सब…..जब से होश सँभाला कभी बाप का प्यार ना मिला…उन्हें हमसे कभी मतलब भी ना रहा…. बस अपने हिसाब से जीना चाहते थे अब जी रहे हैं ।” मयंक नफ़रत से बोला

 घर पहुँच कर दृष्टि ने गरिमा को फोन कर के  सब बता दिया…

“ भाभी क्या आप भाई को माफ कर पाएँगी?” गरिमा ने पूछा 

“ पता नहीं गरिमा बस आज ऐसा लगा जैसे दिल पर एक  बोझ सा था सुहास को लेकर अब उससे भी मुक्त हो गई…. ज़्यादा वक़्त नहीं है उनके पास…. खुद ही बीमारी का घर बन गए हैं…. अस्पताल में मर जाएँगे ऐसे ही लावारिस…. सोच कर दिल कांप रहा है…सुहास को घर ले आऊँ?” दृष्टि ने काँपती आवाज़ में पूछा 

“ भाभी आप अभी भी भाई के लिए सोच रही है… जिसने कभी आपको समझा ही नहीं?” गरिमा आश्चर्य से पूछी 

“ हाँ गरिमा… वो जानवर हैं पर  मैं तो नहीं….जब पहली बार एक कठोर कदम उठा कर घर छोड़कर निकली उसके साथ ही सुहास को भी छोड़ कर आई थी…. आज जिस सुहास को मिली असहाय इंसान मिला जिसके आगे पीछे कोई नहीं….ना आज उसमें अकड़ थी ना ही हाथ उठाने की ताकत…. बस तुम साथ दो तो बच्चों को भी मना कर सुहास को अंतिम समय तक घर पर रखना चाहती हूँ…. कम से कम उसकी आत्मा को मुक्ति तो मिल जाएगी।” दृष्टि सुहास के लिए फ़िक्रमंद सी लगी

“ ठीक है भाभी आप मयंक और माही को पूछकर भाई को घर ले आइए 

दृष्टि के फ़ैसले के आगे बच्चे कुछ बोल ना पाए…. अगले दिन सुहास घर आ गया…. अपना घर तो वो कब का बेच चुका था….बीमारी में सब पैसे भी फूंक दिए… मुश्किल से सप्ताह भर सुहास साँसें ले सका….

अंतिम संस्कार के लिए मयंक को जब दृष्टि ने कहा तो वो आश्चर्य से देखने लगा

“ बेटा उसने जो किया उसके कर्म अब तू अपना कर्म कर…उन्हें मुक्ति दे।” कह दृष्टि बरबस रो पड़ी

गरिमा उसका पति और उसकी एक बेटी दृष्टि के साथ खड़े थे… मयंक पिता की जलती चिता देख रहा था….और माही वो तो कभी पिता क्या होता है समझी ही नहीं तो उसे उसके जाने का कोई दुख नहीं था।

दोस्तों बहुत मर्द अपने बड़े के पदचिह्नों पर यूँ ही चल पड़ते है… बीबी को जागीर समझने लगते हैं… उसकी भावनाओं की परवाह तक नहीं करते… ऐसे में कुछ तो तुरंत फ़ैसला ले लेती है कुछ दृष्टि की तरह मजबूर होती है क्योंकि बाहर कोई आसरा समझ नहीं आता… पर जब समझ आता है देर हो चुकी होती है… फिर भी कभी-कभी एक कठोर कदम अपने लिए ज़रूर आगे बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए बस अपने स्वाभिमान के लिए……

मेरी रचना पर आपकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा… मेरी रचना पढ़ने के लिए आपका धन्यवाद ।

रश्मि प्रकाश 

# कठोर कदम

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