आत्मसम्मान की जीत – डॉ० मनीषा भारद्वाज : Moral Stories in Hindi

मीरा की उंगलियाँ चाय के खाली कप को घूमा रही थीं, जैसे उसका जीवन बार-बार उसी खालीपन के चक्कर में घूम रहा हो। सास का कर्कश स्वर अभी भी कानों में गूंज रहा था, “अरे, तू चुपचाप सहन क्यों नहीं कर लेती? घर की शांति के लिए थोड़ा समझौता तो हर औरत को करना पड़ता है।”

“समझौता”। यह शब्द मीरा के जीवन की पृष्ठभूमि बन चुका था। पढ़ाई छोड़ने का समझौता (पिता ने कहा था, “लड़की है, ज्यादा पढ़-लिखक क्या करेगी?”)। शादी के बाद पेंटिंग छोड़ने का समझौता (पति राजीव ने कहा था, “अब जिम्मेदारियाँ हैं, ये बचकाने शौक छोड़ो”)।

फिर नौकरी छोड़ने का समझौता (सास ने कहा था, “बहू कमाने जाएगी, तो लोग क्या कहेंगे? घर की इज्जत का ख्याल करो”)। हर बार, “घर की शांति”, “सामाजिक मर्यादा”, “पति का सम्मान” – ये शब्द उसके सपनों और इच्छाओं पर पत्थर की तरह गिरे थे।

उसने सह लिया था। विरोध की आवाज को गले के नीचे दबा लिया था। कुंठा उसकी आँखों में बस गई थी, जिसे वह सुबह का काजल समझकर छुपा लेती थी।

आज का विवाद फिर छोटी सी बात पर था। उसकी बारह साल की बेटी आद्या ने स्कूल में विज्ञान प्रतियोगिता जीती थी। उसका सपना था – आईआईटी जाने का। मीरा की खुशी फूट पड़ी थी। उसने राजीव से कहा, “आद्या को अच्छे कोचिंग सेंटर में दाखिला दिलवाते हैं। उसकी प्रतिभा को निखारना चाहिए।”

राजीव ने अखबार नीचे रखा, बिना उत्साह के बोला, “पढ़-लिखकर भी तो घर ही संभालना है। इतना पैसा खर्च करने की क्या जरूरत? सरकारी स्कूल की पढ़ाई काफी है। फालतू में लड़की के दिमाग में उच्चाटन भरने की जरूरत नहीं।”

मीरा ने हिम्मत जुटाई, “पर… यह उसका सपना है। वह काबिल है…”

तभी सास आ गईं, आवाज कर्कश, “अब तू भी पढ़-लिखकर बदगुमान हो गई है क्या? हमारे जमाने में तो लड़कियाँ बिना स्कूल गए भी घर अच्छा चलाती थीं! तुम्हारी वजह से आद्या भी सिर चढ़कर बोलने लगी है। समझौता करना सीखो, बहू। सब चलता है।”

“समझौता करना सीखो।”

यह वाक्य, जैसे कोई चिंगारी, मीरा के भीतर सुलगते हुए दर्द और कुंठा के भंडार में गिरा। उसने देखा – आद्या दरवाजे के पीछे खड़ी थी, उसकी आँखों में सपनों के टूटने का डर और माँ से उम्मीद की चमक। वह क्षण था जब मीरा के भीतर का ज्वालामुखी फटा। उसका शरीर काँप रहा था, पर आवाज़ में एक अभूतपूर्व दृढ़ता थी, जैसे लोहे पर पड़ी हुई हथौड़े की चोट:

“नहीं।”

सब चौंक गए। मीरा ने सीधे राजीव की आँखों में देखा, “नहीं, राजीव। अब और समझौता नहीं। न अपने लिए, न अपनी बेटी के लिए। मैंने अपना जीवन, अपने सपने इस ‘समझौते’ की भेंट चढ़ा दिए। आद्या के सपनों को मैं कुचलने नहीं दूँगी।”

सास चीखी, “तो क्या करेगी? अकेली? तेरा न तो पैसा है, न घर!”

मीरा ने गहरी सांस ली। उसके मन में डर था, अंधेरे का भय था, पर आद्या की निराश आँखों ने उसे साहस दिया। “मैं काम करूँगी। कुछ भी करूँगी। पर अब मैं आद्या को यह नहीं सिखाऊँगी कि औरत होने का मतलब है अपनी इच्छाओं का गला घोंटकर जीना।”

उस रात, मीरा ने आद्या का सामान एक छोटे से सूटकेस में पैक किया। उसके पास सिर्फ थोड़ी सी निजी बचत थी और एक हुनर – छिपी हुई दर्जी की कला, जिसे उसने कभी-कभी घरवालों से छिपकर सीखा और अभ्यास किया था। वह सरकारी आश्रय गृह में रहने लगी।

शुरुआत अकल्पनीय कठिन थी। रातों की नींद हराम, दिन की थकान, और मन का डर। पर आद्या के चेहरे पर लौटती चमक और उसकी पढ़ाई में लगन उसकी ताकत बनी।

मीरा ने छोटे-छोटे काम शुरू किए – घरों में कपड़े सिलना, मरम्मत करना। उसकी बारीक कढ़ाई और ईमानदारी धीरे-धीरे चर्चा का विषय बनी। फिर उसने एक छोटी सी रेंटल की दुकान ली – “मीरा स्टिचिंग सेंटर”।

उंगलियों में सुई के निशान, आँखों में नींद की कमी, पर चेहरे पर एक नया आत्मविश्वास। उसने आद्या को अच्छे कोचिंग में दाखिला दिलवाया। हर कमाई का हिसाब वह खुद रखती। अब कोई उसे बताने नहीं आता था कि उसकी मेहनत का पैसा कहाँ लगे।

दो साल बीते। मीरा की छोटी सी दुकान अब एक जाना-माना बुटीक बन चुकी थी। उसकी खुद की डिजाइन की साड़ियाँ चर्चा में थीं। एक दिन, दुकान में राजीव खड़ा था। उसके चेहरे पर हार और पछतावे के भाव थे। आद्या अच्छे स्कूल में पढ़ रही थी, उसका आत्मविश्वास देखते ही बनता था।

“मीरा,” राजीव ने हिचकिचाते हुए कहा, “मैं… गलत था। घर वीरान सा लगता है। तुम वापस आ जाओ। तुम्हारी शर्तों पर।”

मीरा ने एक साड़ी पर बारीकी से कढ़ाई करते हुए, बिना ऊपर देखे, जवाब दिया। उसकी आवाज़ में कोमलता थी, पर दृढ़ता कम नहीं थी:

“राजीव, मैं तुमसे नफरत नहीं करती। तुम आद्या के पिता हो। तुमसे मिल सकती है। पर… वापस नहीं आऊँगी। ‘समझौता’ अब मेरे शब्दकोश से हट चुका है। यहाँ, इस दुकान में, इस आत्मनिर्भरता में, मुझे वह शांति मिली है जो कभी उस घर में नहीं मिली। आद्या को अपने सपने जीने का अधिकार है, और अब मुझे भी है।”

राजीव चला गया। मीरा दुकान के शटर लगाने के बाद बाहर निकली। उसने अपनी छोटी सी कार खोली, जिसे उसने अपनी कमाई से खरीदा था। आद्या को कोचिंग से लेने जाना था। स्टेयरिंग व्हील पकड़ते हुए उसने पीछे मुड़कर अपनी दुकान को देखा। उसके नियान साइनबोर्ड की रोशनी शाम के अंधेरे में टिमटिमा रही थी – “मीरा स्टिचिंग सेंटर: क्राफ्टिंग ड्रीम्स, स्टिच बाय स्टिच”।

उसके चेहरे पर एक शांत मुस्कान थी। जीवन की कड़वी सच्चाई यह थी कि कभी-कभी आपको सब कुछ खोकर ही खुद को पाना पड़ता है। सबसे कठिन समझौता वह होता है जो आप खुद से करते हैं – अपनी आवाज़ दबाने का, अपने सपनों को कुचलने का। उसने वह समझौता तोड़ दिया था। सुखद अंत यह नहीं था कि राजीव वापस आ गया।

सुखद अंत यह था कि मीरा ने खुद को पा लिया था। उसकी दुकान सिर्फ कपड़े नहीं सिलती थी; वह उसकी आजादी की निशानी थी, उसके आत्मसम्मान का प्रतीक थी। कभी-कभी, ‘ना’ कहना ही सबसे बड़ी जीत होती है – खुद के लिए, और उन सपनों के लिए जो आपकी आँखों में जीवित रहते हैं।

आद्या के सपनों की रक्षा करके, उसने अपने टूटे हुए सपनों को भी सिल दिया था, टांका-टांका कर। और इस बार, वह टांका उसके अपने हाथों का था।

डॉ० मनीषा भारद्वाज

ब्याड़ा (पालमपुर )

हिमाचल प्रदेश ।

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