विश्वास की डोर – दीपा माथुर : Moral Stories in Hindi

दरवाज़े की कुंडी लगाकर वो धीमे-धीमे कमरे में आई।

ऑफिस से लौटे हुए सिर्फ एक घंटा बीता था, मगर ऐसा लग रहा था जैसे एक युग बीत गया हो।

बैग को टेबल पर रखने के बजाय वो फर्श पर सरका दिया।

जूते वहीँ पड़े थे, एक उल्टा… एक सीधा, जैसे उसके भीतर का संतुलन।

कमरे में हल्की-सी बत्ती जल रही थी, पर अंधेरा मन पर भारी था।

वो सीधे खिड़की के पास गई, पर्दे हटाए और बाहर अंधेरे आसमान को देखा।

काले बादलों के पीछे चाँद कहीं छुपा हुआ था —

जैसे उसकी मुस्कान पिछले कुछ महीनों से।

वो कुर्सी पर बैठी,

हाथ की कलाई पर बँधी घड़ी की ओर देखा —

रात के 10:35।

एक गहरी साँस भरी और टेबल की दराज से अपनी पुरानी डायरी निकाली।

सफ़ेद पन्ने अब थोड़े पीले पड़ चुके थे, किनारों पर झुर्रियाँ,

जैसे उसकी आत्मा पर लगे बीते सालों के निशान।

एक पन्ना खोला।

ऊपर लिखा था —

“मैं जो हूँ, वही काफ़ी है।”

हँसी आ गई… हल्की, टूटती-सी।

“क्या वाक़ई?” उसने खुद से पूछा।

तभी…

मन में एक अजीब-सी खामोश दस्तक हुई —

जैसे अतीत के किसी बंद कमरे का दरवाज़ा धीमे-से खुल गया हो।

धुँधले से दृश्य उभरे।

वो छोटी-सी थी, शायद 13 की।

बाजार से लौटते वक्त उसने अपनी सहेली की तरह झूठ बोला था —

माँ को बताया कि स्कूल में देर हो गई।

मगर माँ ने उसकी आँखें पढ़ ली थीं।

“झूठ बोला?” माँ का स्वर कड़ा था।

“अगर तुझसे किसी दिन बड़ा सच पूछा जाए, तू क्या करेगी?”

तब उसे माँ की बात पर गुस्सा आया था।

वो सिसकते हुए सोचती रही — “इतना क्या बड़ा कर दिया मैंने?”

आज वो दृश्य उसकी आंखों में एकदम साफ़ था।

आज वो माँ की आँखों में वो डर देख पा रही थी —

डर कि कहीं उसकी बेटी किसी दिन खुद से ही दूर न हो जाए।

फिर पापा का चेहरा —

जब वो गणित में कम अंक लाई थी।

उन्होंने जोर से कहा था,

“ये आँसू तेरी कमजोरी हैं या बहाना?”

तब लगा था — वो प्यार नहीं करते।

आज समझ आया —

वो चाहते थे कि मैं खुद को आँसुओं में न बहाऊँ।

वो कुर्सी से उठी और आईने के सामने आ खड़ी हुई।

आईना…

जिसे देखने से वो महीनों से बचती रही थी।

क्योंकि हर बार उसे वही सवाल नज़र आता था —

“क्या मैं वाकई कुछ हूं?”

आज पहली बार, उसने बिना झुके अपनी आंखों में देखा।

उन्हीं आँखों में जो एक ज़माने में डर से भर जाती थीं।

आज उसमें अजीब-सी स्थिरता थी।

उसने अपना चेहरा नहीं बदला था —

पर नज़रिया बदल गया था।

उसे माँ की वो थपकी याद आई —

“हमेशा सबसे पहले खुद से वादा करना।”

उसे पापा की वो नज़रें याद आईं —

“जब दुनिया पीठ फेर ले, तू ख़ुद की तरफ़ देखना मत छोड़ना।”

उसने अपनी आँखें बंद कीं।

ठंडी हवा खिड़की से आ रही थी —

पर भीतर कुछ गर्म हो रहा था।

हिम्मत।

उसने अपनी डायरी के उस पन्ने पर फिर कलम चलाई —

जहाँ पहले लिखा था “मैं जो हूँ, वही काफ़ी है।”

अब उसने नीचे जोड़ा —

“…और जो मैं बन रही हूँ, वो अद्भुत है।”

उसने बल्ब बंद किया।

कमरे में अँधेरा था,

मगर खिड़की से चाँद की हल्की रौशनी अब चेहरे पर पड़ रही थी।

और वो मुस्कुरा दी।

क्योंकि आज वो टूटी नहीं थी।

बल्कि खुद से जुड़ी थी।

और उस रात, जब दुनिया सो रही थी —

एक बेटी अपने माँ-बाप की डाँट में छिपे प्रेम को महसूस कर,

ख़ुद पर भरोसा करना फिर से सीख रही थी।

सुबह की हल्की धूप कमरे में दस्तक दे रही थी।

खिड़की के पार खिले हुए गुलमोहर के पेड़ की शाखों से झांकती रोशनी उसके चेहरे पर पड़ रही थी।

आंखें खुलीं तो लगा — जैसे कोई बोझ उतर गया हो।

अलार्म बंद किया, लेकिन आज वो पहले से जागी हुई थी।

आंखें लाल नहीं थीं —

रात जागने के बावजूद पहली बार मन थका नहीं था, हल्का था।

चाय का पानी चढ़ाया और साथ ही मोबाइल उठाया।

कुछ पल ठिठकी।

“क्या कहूँगी? माँ कुछ पूछेंगी तो…?”

लेकिन आज जवाब तैयार था —

अब कोई बहाना नहीं, कोई दिखावा नहीं।

बस सच।

नंबरों में उंगलियाँ चलीं…

“माँ” स्क्रीन पर चमक उठा।

घंटी बजी,

और दूसरी ही घंटी में माँ की आवाज़ आई —

“हां बेटी?”

वो चुप रह गई कुछ पल।

फिर धीमे से बोली —

“माँ… एक बात कहनी है।”

“क्या हुआ? सब ठीक है ना?”

माँ की आवाज़ में घबराहट आ गई।

“सब ठीक है माँ, अब ठीक है।

बस… बीती रात तुम्हारी बहुत याद आई।

तुम्हारी वो डाँट, जो कभी ज़हर सी लगती थी —

आज अमृत सी लगी।”

फोन के उस पार चुप्पी।

फिर माँ की धीमी आवाज़ —

“इतनी दूर चली गई है तू, कि तुझे खुद की पहचान भी अब हमारी डाँट से मिल रही है?”

वो हँस दी —

“हाँ माँ।

तुमने जो बोला था —

‘बाहर की दुनिया सख़्त है’,

आज वो हर लफ्ज़ सच लगा।”

“तो अब लौट आ… कुछ दिन आ जा।”

माँ ने सहजता से कहा।

“नहीं माँ,” वो बोली,

“अब कहीं नहीं जाना।

अब मैं वही रहूँगी — जहाँ हूँ।

क्योंकि अब जो आत्मबल आया है ना…

वो भागने से नहीं, रुककर खुद को समझने से मिला है।

और ये मैं आपकी बेटी नहीं —

आपकी दी हुई सीख कह रही है।”

फोन के दूसरी तरफ़ अब पिताजी की आवाज़ आई।

“बेटा, माँ ने फोन स्पीकर पर कर दिया है।

हम दोनों सुन रहे हैं।”

वो चौंकी… फिर मुस्कराई।

पापा बोले —

“मुझे आज भी याद है तेरा चेहरा, जब मैंने पहली बार तुझ पर चिल्लाया था।

बहुत बुरा लगा था, है ना?”

“हाँ पापा, बहुत।

पर अब समझ गई हूँ —

वो मेरी हार के लिए नहीं,

मेरे उठने के लिए था।”

पापा चुप हो गए।

फिर बस एक वाक्य बोले —

“आज तू अपनी सबसे अच्छी दोस्त बन गई है। इससे बड़ी जीत कोई नहीं।”

फिर माँ बोली —

“अब तुझे देखना है, अपनी बेटी की तरह नहीं —

एक औरत की तरह जो खड़ी है, टूटी नहीं।”

फोन कट हुआ…

मगर दिल भर गया।

वो चाय की ट्रे लेकर बालकनी में आई।

सामने वही गुलमोहर का पेड़,

जो हर साल की तरह फिर से फूलों से लद चुका था।

उसने एक चाय की चुस्की ली —

हल्की-सी धूप उसके हाथों पर पड़ी।

उसने देखा — वही हाथ, जिन्हें कभी कमजोर मानती थी,

आज उसी हाथों ने खुद को फिर से थामा था।

अब उसे खुद से कोई शिकायत नहीं थी।

माँ-बाप से कोई उलाहना नहीं था।

और सबसे बड़ी बात —

अब उसे किसी और से साबित करने की ज़रूरत नहीं थी।

क्योंकि आज…

वो खुद पर यक़ीन करना सीख चुकी थी।

और यही उसकी सबसे बड़ी पूंजी थी —

विश्वास की डोर — वो भी खुद पर।

दीपा माथुर

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