शुभ्रा घर पहुंची तो देखा पति अग्रज टीवी में आँखें गड़ाए थे।टीवी पर ब्रेक आया तो, वहां से नजरें हटाकर, “तो कैसी रही शादी? तुम तो इतनी सजग हो अपनी सेहत को लेकर, कुछ खाया तो होगा नहीं?
शुभ्रा मुस्कुराकर, “जी,पर इसी बहाने पुरानी सहेलियों से मिल ली।” अग्रज, “अच्छा!!ऐसा कौन मिल गया तुम्हें?”
शुभ्रा, “सारंगी याद है?अग्रज, “कौन वो दूज बर?”
“जी,जब नया मकान बनाया तो ऊपर की मंजिल किराए चढ़ा दी। तभी मुलाकात हुई थी हमारी पहली किरायेदार, सारंगी से।जैसा नाम वैसी ही तो थी वो, हंसती खिलखिलाती। पति, तीन छोटे बच्चे साथ में नौकरी भी, पर फिर भी कभी थकी- रुआंसी नहीं दिखी।
मैं ऑफिस से थकी मांदी आती, फिर घर का काम – बच्चे तो मिलना-जुलना तो कम ही होता था, पर चूंकि सारंगी ऊपर की मंजिल पर रहती तो चढ़ते-उतरते बोलती जाती।समोसे, टिक्की तो कभी पिज़्ज़ा सब घर बनाती, देकर जाती।
बच्चे शौक से खाते कहते देखो न मम्मी सारंगी आंटी कितना अच्छा खाना बनाती, आप तो दाल-भात, रोटी बनाकर रख देती हैं। मुझे भी लगता, और नहीं तो क्या मैं हूं जो इस काम में ही टूटी रहती हूँ, जबकि बच्चे भी मेरे दो हैं। इसी तरह हमारे और सारंगी के बीच स्नेह के बंधन के तार जुड़ रहे थे।
दिन भाग-दौड़ में निकल रहे थे कि पड़ोस से रिश्ते में दूर की बुआ सास मिलने आई। उलाहना देते बोली, “अरे शुभ्रा! तुम तो भूल ही गए, यूं भी नहीं सासरे वाले पड़ोस में हैं, कम से कम जान पहचान तो रखें, कभी अड़ी-भीड़ में काम ही आयेंगे।”
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इतने में सारंगी ऑफिस से आते हुए बोली, “आज मैं बच्चों को लेकर बाहर जा रही हूं, लेट हो जाऊंगी। प्लीज़!! मेरा भी दूध ले लेंगी? मैं मुस्कुराते हुए, “ये भी कोई पूछने की बात है? तुम आराम से जाओ।” वह चली गई।
तभी बुआ सास, “अरे बहुरिया, ये दूजबर काहे रखी किराए पर?अग्रज को बिगाड़ना है क्या? इसके चाल-चरित्र कुछ ठीक नहीं हैं।मैं सकपका गई। बुआजी, ”इसका पहला पति अचानक मर गया था, भगवान जाने क्या हुआ था।इसने रिश्ते में दूर के देवर की चुनरी ओढ़ ली, क्या पता पहले से चक्कर था क्या? अब देखो क्या चटक मटक बनी घूमती है। बड़ी दो लड़कियां, पहले पति से हैं और लड़का दूसरे से। पहले मेरे पड़ोस में ही रहती थी। इसने घर के सामने कैमरा लगवा रखा था, पति पर नजर रखने को, उम्र में इससे 5-6 साल छोटा है। कुंवारा था, फंसा लिया।एक बार किरायेदार रखने से पहले पूछ तो लेती।”
कह बुआजी तो चलती बनी पर मेरे मन में शक के बीज बो गई। अग्रज आए तब तक मैंने अपने दिमाग के सारे घोड़े दौड़ा लिए। हां!! कितनी बार तो गेट पर लोग सामान पकड़ा कर जाते हैं। पति भी इसका देर रात ऑफिस से आता है। बड़ी तेज़ है, घर बाहर के सारे काम यही निपटाती है।बनी ठनी रहती है, कौन कह दे तीन बच्चों की मां है!
जैसे ही अग्रज आए, मैं बैठ गई अपनी दिमागी उथल पुथल की पोथी खोलकर। इनका कहना था, “मैं बुआजी को जानता हूँ, दो की चार करना उनकी आदत है, तभी मैंने ज्यादा मेल जोल नहीं बढ़ाया।जहां तक बात दूज बर होने की है, जब किसी आदमी की बीवी मर जाती है तो वो दूसरी शादी कर लेता है, तो औरत करे तो क्या प्रॉब्लेम है? तुम कबसे इतना दकियानूसी सोचने लगी?”
अब मैं कटी कटी रहती ही उससे ।चूंकि रिश्ते दोतरफा निभते हैं, तो मकानमालिक – किरायेदार जितना ही रिश्ता रह गया था।
चंद दिन बाद करवा चौथ का व्रत था, पंडिताइन को बहुत बुलाने पर भी, वो व्यस्तता के कारण आई नहीं। रिवाजों के अनुसार, दिन में कहानी सुनकर हम चाय-पानी पी लेते थे, उसीकी आदत थी मुझे।दोपहर तक भी पंडिताइन नहीं आई तो मैं प्यास से बिलबिला गई।मेरी बेचैनी, सारंगी देख रही थी।आवाज़ लगाकर बोली, “भाभी ऊपर आ जाओ, मैं कहानी कह दूंगी।”
मैं यह सोचकर चली गई कि मकान मालकिन होकर भी आज तक इसके आने के बाद घर नहीं देखा है, इसी बहाने देख आऊंगी, घर कैसे रखती है? पहुंची तो साफ सुथरा, करीने से सजा घर। मुझे बिठा, चौकी लगा, कहानी कही, सूरज को अर्घ्य देकर, पानी पिलाया और चाय चढ़ा दी
फिर बोली भाभी, एक मिनट मैं बच्चों को देख लूं फोन में, बस से उतरे होंगे। मैंने कहा अरे छत से ही देख लो, निकल कर। कहने लगी, “भाभी आदत हो गई है न ऑफिस से बच्चों को ऐसे ही देखने की, इसीलिए कैमरा लगवा रखा है। एक बार निश्चिंत हो जाती हूं देखकर, बाकि तो बच्चे खुद कर ही लेते हैं।
चाय पीते मैंने बात शुरू की बुआजी बता रही थी कि तुम्हारे बारे में।मुस्कुराकर बोली, “हां!दूज बर कह रही थी न।मुझे आदत है सुनने की। मैं इन बातों को इतना दिल पर लेती भी नहीं,आज में जीती हूँ।”
मैंने कहा, “माफ करना, मैं तुम्हें दुखी नहीं करना चाहती थी।” फिर बोली , “भाभी! मैं तो घर की गृहलक्ष्मी हूं तो मेरा खुश रहना ज़रूरी है।” इतने में उसका बेटा रोने लगा, वह उसे देखने लगी।मैं भी यह कह आ गई कि आज तुमसे बातें कर अच्छा लगा।
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जीवन व्यस्त हो गया पर अब मेरी धारणा सारंगी को लेकर बदल गई थी।उसके कहने पर मैंने गाड़ी चलानी सीखी, इतवार साथ पार्क सैर को जाती। वो हमेशा कहती, भाभी सब ऐसे ही चलेगा। बताती, विधवा के रूप में, दो बेटियों के साथ जीवन सरल नहीं था, पहनने- ओढ़ने, बच्चों की जिम्मेदारियां उठाने तक में मेरे करने से भी सबको दिक्कत थी।परंतु दूसरे घर में अपने बच्चों के साथ शादी करके जाना भी सरल नहीं है। दूजबर होने की अपनी कीमत है। शादी के बाद, सिर्फ इनके नाम से ही चीज़ें सरल हो गई।परंतु इनके परिवार वालों की मुझसे बहुत सी आशाएं थी, जिनकी कीमत मेरी दोनों बेटियों की परवरिश अदा कर रही थी। इसीलिए मैंने यहां शहर में रहने की सोची ताकि मैं अपने तीनों बच्चों और ख़ुद के सारे फैसले खुद ले सकूं ।
दिन-ब-दिन मैं उसकी जिंदादिली और सूझबूझ भरे फैसलों की कायल हो जाती। उसकी तारीफ करती तो कहती, भाभी गृह लक्ष्मी का खुश रहना सबसे जरूरी है। फिर विचार खुद आने लगते हैं। फिर उसका तबादला हो गया हो गया और वह चली गई, स्नेह का बंधन बांधकर व मुझे ज़िंदगी जीने का सलीका सिखा कर।
आज इतने सालों बाद शादी में मिली तो, उसी जिंदादिल अंदाज़ में बोली कि भाभी मैं एकदम फिट हूँ और चूंकि गृहलक्ष्मी हूं, मेरा खुश रहना बहुत जरूरी है तो मैं आज भी अपनी खुशियां ढूंढ लेती हूं।
सच वही तो सिखाने वाली थी मुझे कि आज बच्चे चले गए, जो मेरी दुनिया थे, अपनी अपनी दुनिया बनाने। पति तो शुरू से ही व्यस्त थे, तब भी मैं खुश हूँ खुद से खुद के स्नेह के बंधन में बंधकर।
‘ऋतु यादव’
रेवाड़ी (हरियाणा)