अनुपमा आंटी – अर्चना सिंह : Moral Stories in Hindi

“आज सत्रह साल बाद फिर से  मेरे पति का वहाँ  तबादला हुआ है । हाँ ! ये वही जगह है जहाँ हमारे और बच्चों की कितनी यादें जुड़ी हैं । अनुपमा  बैठे – बैठे बुदबुदा रही थीं । 

जैसे ही गाड़ी पर बैठी बीजपुर की मीठी  यादें मन में हिलोरे लेने लगीं । हालांकि कम लोग ही मुझे वहाँ पसन्द करते थे लेकिन कुछ लोगों से मन का मेल इस कदर हो गया था कि आते – आते मैं उनके गले लगकर रो दी थी । मेरा तरीका, रंग – ढंग सब अलग था । लंबी चौड़ी कद – काठी , कंधे तक बॉय कट बाल, स्लीवलेस साड़ी या वेस्टर्न ड्रेस ।

इसी तरीके से मेरा पहनावा रहा था । छोटी सी कॉलोनी थी बीजपुर । पर लोगों में आत्मीयता बहुत थी । सब लोग लगभग एक जैसी सोच वाले और एक तरह के पहनावे वाले थे  , लेकिन भीड़ में मैं अलग दिखती थी  । इसीलिए लोग मुझे ” पर कतरी” बोलते थे । कभी न कभी कहीं न कहीं मेरे लिए ये शब्द बच्चों और बड़ों के मुँह से निकल जाता ।

मेरे दो बेटे शुभम और शिवम थे । दोनों बच्चे बात तो बहुत मानते थे सबकी इसलिए मोहल्ले भर में प्रिय थे । हर इतवार की सुबह मोहल्ले के सभी बच्चे मेरे घर के पास क्रिकेट खेलते थे , घर मेरा सबसे नीचे था । कई बार गेंद टकराकर गाड़ी के शीशे में तो कभी मेरे धुले हुए साफ कपड़े पर तो कभी धूप में जहाँ गेहूँ सुखाती थी वहाँ पड़ जाता था ।

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किसी के घर जाता तो कोई अन्यथा नहीं लेता सिवाय मेरे क्योंकि मैं बहुत सफाई प्रिय और अनुशासन प्रिय थी । मैं बाहर निकलकर ज़ोर की फटकार लगाती थी तो बच्चे और चिढ़ाते थे । धीरे – धीरे लोगों को मैं बखूबी समझने लगी थी ।

गाड़ी उस वक़्त कम ही घरों में थी । ज्यादातर लोगों के पास बजाज स्कूटर या बुलेट होता था । मेरे कड़क स्वभाव होने का एक कारण मेरे पति भी थे  जो हमारे साथ बीजपुर में मुश्किल से साल भर रहे और उनको 3 घण्टे दूरी पर दूसरे शहर भेज दिया गया था और मैंने खुद से वादा किया था कि बच्चे बिगड़ेंगे नहीं और उनकी पढ़ाई पर भी जोर रहेगा

ताकि अविनाश वहाँ सुकून से रह सकें । मेरी पढ़ाई शिक्षा सब अलग थी । मुझसे कोई बच्चा गणित तो कोई इंग्लिश पूछने आता तो कोई पेंटिंग सीखता, सबका सहयोग करती थी मैं ।हर शनिवार की रात को अविनाश आते और सोमवार सुबह चले जाते ।

हम छह सहेलियों का समूह था । बच्चों के स्कूल जाने पर हम सब किसी न किसी के आँगन में बैठते, कुछ न कुछ खाते और ढेरों गपशप करते । उस दिन  मिसेज अस्थाना के यहाँ शाम को पूजा थी तो हम दिन में न बैठकर पूजा के बाद शाम को  पड़ोस वाली मिसेज भार्गव के यहाँ  बैठे थे ।  मिसेज भार्गव उम्र में मुझसे लगभग आठ साल बड़ी थीं ।

तभी बाहर अफरा – तफरी सी मचने लगी । सब बाहर निकल कर देखे तो देखा मिसेज गुप्ता के बेटे और मेरे शुभव ने  ऊपर रहने वाली एकता के बेटे को खेलते -खेलते झगड़े में बैट से उसका सिर फोड़ दिया था और इसमें मेरा बेटा शुभम भी पूरी तरह शामिल था ।

पहले तो मुझे विश्वास नहीं हुआ ।इतना सीधा शांत मेरा बेटा इतना ठोस कदम क्यों उठाया ? अंदर से सबसे पहले दिल में यही ख्याल आया…”क्या जवाब दूँगी अविनाश को ? वो तो सिर्फ यही सोचेंगे कि उनका जाना असफल रहा । मैं सिर्फ गप्पें लड़ाने में अपना समय बर्बाद की और बच्चों पर ध्यान नहीं दिया ।

किसी ने भीड़ में से ही पूछा मेरे बेटे को दिखाकर..”किसका बेटा है ये ? इस पर तो केस होना चाहिए ।बहुत हिम्मत से भीड़ को चीरती हुई मैं आयी और बोलने लगी ..

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“म..,म मेरा बेटा है , पर वो बहुत सरल है ऐसा नहीं कर सकता । तभी शुभम ने कहा..नहीं मम्मी ! मैंने मारा है पूरब को । उसने आपको बोला तेरी मम्मी छक्का लगती है और तू भी अपनी माँ जैसा है । तो मुझे गुस्सा आ गयी और मैंने गुस्से में मार दिया । पूरब ने जैसे ही अपने कारनामे की स्वीकृति दी मेरा तो सिर फटने लगा । 

लोग गाड़ी ढूंढ रहे थे उस बच्चे को अस्पताल ले जाने के लिए । मेरा तो दिमाग ही लगभग सुन्न हो गया था । तभी मिसेज भार्गव और सुधा जी ने मिलकर मुझे हिम्मत दिलाते हुए कहा…”अनुपमा ! तुम अपनी गाड़ी से पूरब को ले चलो न ! मैंने हांफते हुए कहा..”नहीं मिसेज भार्गव मेरा दिमाग अभी कुशलवत नहीं चल रहा , गाड़ी नहीं चला सकती, कोई और ले जाए । शिवम ने बोला..”चलिए मम्मी ! आपके अलावा कोई नहीं ले जा पाएगा , रिक्शे से जाने के हालात में नहीं है पूरब और कोई गाड़ी भी नहीं मिल रही ।

भीड़ में कुछ लोग बोलने लगे “बहुत खून बह रहा है ” । जल्दी से मैं चाभी निकालकर लायी और मिसेज गुप्ता के दोनो बच्चे और  पत्नी  गाड़ी में बैठ गए । साथ मे मिसेज भार्गव भी मुझे हिम्मत बंधाने के लिए अस्पताल आईं । मैं उनसे चिपक कर खूब रोई । फिर डॉक्टर ने बाहर आकर बताया कि “घबराने की कोई बात नहीं है । दस स्टिच लगे हैं, होश में नहीं है पूरब । इंतज़ार करिए, होश में आ जाएगा । 

अगले दिन अस्पताल से पूरब के होश में आने की खबर आई । मैं देखने ही जा रही थी कि मेरी सब  पडोसने (सहेलियाँ) मेरे साथ गाड़ी में बैठ गईं । पूरब के सामने गयी तो उसने नज़रें फेर लिया । उसके चेहरे के भाव से समझ आ रहा था वो शर्मिंदा है पर कुछ बोलना नहीं चाह रहा था । मैंने उसके सिर पर हाथ फेरा और वो पानी पीने के लिए उठा फिर आँखें बंद कर लिया ।

मिसेज गुप्ता के चेहरे पर भी संतोषजनक मुस्कान दिख रही थी ।चार दिन बाद मेरे पति अविनाश आए और उनसे बात करके मैंने सब घटना बताया ।और उन्होंने मुझे बताया कि उनका तबादला हो गया है और हम दस दिनों के अंदर शिफ्ट कर रहे हैं पीलीभीत शहर । अचानक सुनकर झटका लगा ।

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मानो उत्साह, साथ, गपशप सब रंग अचानक से फीके पड़ने लगे ।धीरे – धीरे पैकिंग शुरू हुआ और मोहल्ले में जाने से तीन – चार दिन पहले पता लगा । ज्यों ही मिसेज गुप्ता को पता लगा तुरंत मेरे घर आई और गले लगकर बोलने लगी ..”अनुपमा ! तुमने इतना कठोर निर्णय कैसे लिया ?माना उस वक़्त मुझे नाराजगी थी

पर मेरी जगह खुद को रखकर सोचो । अरे..उस वक़्त थोड़ी चिंतित हो गयी थी , बच्चे तो ऐसा ही करेंगे , अब बड़े हो रहे हैं । गलती तो मेरे बेटे की है , मैं उसे समझाऊंगी । फिर पीछे – पीछे सब आकर मेरे गले से लग गईं । मानो बेटी विदा हो रही हो । मेरी आँखों से भी अथाह शैलाब फूट पड़े । बड़ा मुश्किल था खुद को अलग करना ।एकता और सुधा की बेटी नीतिका और श्रेया भी मुझसे मिलकर बोलने आईं , जो कॉलोनी में सबसे कम बोलती थीं ।

“नीतिका ने मेरा हाथ अपने कंधे पर रखते हुए कहा..”अनुपमा  आंटी ! अब तो सब ठीक हो गया ।खुद को भी और हम सबको भी इतनी बड़ी सजा क्यों दे रहे हो ? श्रेया ने एकदम बिंदास कहा..”रह नहीं पाओगे आप कहीं भी आंटी ! प्लीज मत जाओ न ।

मैंने भी अपनी नम आँखें पोछते हुए कहा…”ईश्वर की यही मर्जी है, शौक से नहीं जा रहे । पेट की खातिर जाना पड़ता  है । अंकल का तबादला हो गया इसलिए जा रहे । अगर ईश्वर ने चाहा तो फिर मिलेंगे । तीन दिन तो कैसे बीते पता ही नहीं चला । कभी किसी के घर खाना, कभी किसी के घर नाश्ता आदि । और फिर निकलने की बेला आ गयी ।

मेरे गले मे बाहें डाले सब सहेलियाँ खड़ी थीं ।उनके पति बच्चे सब नम आँखों से  गाड़ी में बिठाने के लिए खड़े थे । फिर मैं भी अपने आँखों से आँसुओं को समेटते हुए बाय कहकर सबकी ओर निहारते हुए चली गयी ।

गाड़ी के तेज झटके से जैसे मैं अतीत में लौटी । अब गाड़ी पहुँच चुकी थी पीलीभीत से बीजपुर ।सब कुछ बिल्कुल अलग सा था । पहले जैसा चहल – पहल तो नहीं था । बच्चे भी सबके बड़े हो गए थे । पास के होटल में हमलोग रुकने के लिए अंदर गए ।सामान आने में वक़्त था , सोचा थोड़ा कॉलोनी घूम आएँ ।

कॉलोनी का एक मेन गेट था जहाँ से सबके घर शुरू थे ।कुछ लोग आना – जाना कर रहे थे , पर उनमें से किसी को नहीं पहचान पाई । बहुत देर तक मुझे खड़ा पाया किसी ने तो एक शादीशुदा लड़की ने गोद मे छः महीने का बच्चा लिए धीरे से पूछा..”क्या मैं आपको जानती हूँ ? बड़ा पहचाना सा चेहरा लग रहा है ।

थोड़ी देर बाद आँखों पर मोटा चश्मा लगाए , हाथ में छड़ी लिये एक महिला दिखी…”उम्र ने अपनी पहचान चेहरे पर छोड़ दी थी । मिसेज भार्गव थीं ये, कमजोर सी दिख रही थीं, शायद कुछ बीमार लग रही थीं । 

अनोखा सारथी – डॉ पारुल अग्रवाल

काफी देर बाद देखा एक जोड़ी आँखें मुझे घूर रही हैं । सोलह साल के लगभग दो लड़के मुझे देखे और आकर पैर छूने लगे । बड़े ने चुहलबाज़ी में पूछा..”आप पर…ओह..सॉरी ।

बड़े ने छोटे की हाथ पर धीरे से चुटकी काटते हुए कहा । अनुपमा आंटी हैं आप क्या ? मैंने उसको पुचकारते हुए कहा. हाँ सही कहा..पर कतरी ” लेकिन देखो मेरे बाल कितने बड़े हो गए । .”मुझे कैसे जानते हो बेटा ?  मुस्कुराते हुए दोनों ने कहा…हाँ आंटी ! यहाँ आपके बहुत चर्चे हैं । सब बहुत आपकी तारीफ करते हैं । आपको गोलू और अंशु याद हैं ? हम दोनों वही भाई हैं । मेरी मम्मी को आपने पेंटिंग सिखाया था , आपकी फोटो भी सबके घर में मैंने देखा है ।

किसी के घर से बहुत अच्छी खुशबू आ रही थी और बधाई की स्वर लहरी सुनाई दे रही थी । फिर से वही लड़की अपने बच्चे व बुजुर्ग महिला के साथ आई । लड़की के हाथों में पानी की बोतल थी , उसने मेरे हाथों में देते हुए कहा…”अनुपमा आंटी ..मैं नीतिका ! मेरी शादी को दो साल होने वाले हैं, ये मेरी बेटी है । मम्मी के घर आई हूँ अभी । मिसेज भार्गव ने कंधे पर हाथ रखते हुए कहा..”बहुत समय हो गए थे तुम्हें देखे अनुपमा ? तुमने तो सबसे मुँह मोड़ कर खुद को सबसे अलग ही कर लिया था । 

सफाई देते हुए मैंने कहा..”आप सबकी कमी सबकी यादें मुझे बहुत खली मिसेज भार्गव , पर मेरा फोन ही गुम हो गया था और सारे सम्पर्क सूत्र ही खत्म हो गए थे ।

मैंने छोटी बच्ची को गोद में लिया और मिसेज भार्गव ने हाथ पकड़ कर खींचते हुए कहा…”#स्नेह का बंधन तुम्हें यहाँ खींच ही लाया अनुपमा । आज नीतिका की बेटी का अन्नप्राशन है , बड़े अच्छे समय पर आई हो ।

“हाँ मिसेज भार्गव ! ये हमारे #स्नेह का बंधन ही तो है जिसकी वजह से आज आपलोग के साथ खड़ी हूँ , वरना कौन किसी से इस तरह मिल पाता है । अंदर जैसे ही गयी सबकी सब सहेलियाँ मिल गईं , वो भी एक ही जगह । कुछ देर तो अवाक हुए सब अचानक देखकर ।फिर सबको थोड़ा देर लगा लेकिन हम सबने एक दूसरे को पहचान लिया । सबके चेहरे मेरे आने से खिल गए । सुधा ने कहा..”पार्टी में जान डाल दिया तुमने अनुपमा 

। हम सब दृढ़ता से एक दूसरे के गले मिलीं ।

सच ! कितना अद्भुत समय था, ऐसा सिर्फ कहानियों में पढ़ा था लेकिन इतने करीब से एहसास पहली बार हो रहा था । ये स्नेह का बंधन इतना सुखद होगा सोचा न था ।

 

मौलिक, स्वरचित

अर्चना सिंह

#स्नेह का बंधन

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