आज कलाकृति जी की बहू सच्शमिता, अपने भाई की शादी के बाद मायके से आई है। कलाकृति जी आते ही पोते को गोद में लेते हुए बोली, हाय!! एकांश मेरा लाडला, मेरा तो बिल्कुल मन नहीं लग रहा था तेरे बिना। एकांश भी अपनी तोतली आवाज़ में बोला दादी मुझे भी आपकी बहुत याद आई।
कलाकृति जी हंसते हुए, “मैं बलिहारी जाऊं, मेरे पोते पर। दादी की जान है तू।” तभी सच्शमिता, “लीजिए मम्मीजी आपका नेग पूरे इक्यावन सौ रुपए हैं, इस बार मेरी मां ने खास नेग दिया है आपका और लेन देन के कपड़े भी हैं। मां का तो मन ही नहीं था मुझे और अपने नवासे को भेजने का पर मुखर नहीं माने।”
मुखर और सच्शमिता एक दूसरे को पसंद करते थे, रिश्ता आया तो कलाकृति जी ने बिना कोई न नुकूर या पूछताछ ही बेटे की खुशी में ही अपनी खुशी मान शादी करा दी। पर बहू बस अपने पहनने ओढ़ने, मायके की तारीफ और किट्टी में ही व्यस्त रहती।
कलाकृति जी ने आते ही कुछ कहना ठीक नहीं समझा। बहू भी बिना पैर छूए और कोई बात किए ही अंदर चली गई। तभी बेटा सामान उतारते हुए, “मम्मी मुझे ऑफिस से जरूरी कॉल आया है, मैं जाकर आता हूँ।”
कलाकृति जी वहीं पोते को किचन गार्डन में खिलाने लगी। पता ही नहीं चला इस दौरान कब आधा घंटा निकल गया। तभी सामने से पड़ोसन नेहा और मिताली आती नजर आई। दोनों ही सच्शमिता की किट्टी की सहेलियां थी। कलाकृति जी समझ गई, आते ही बहू का दिखावा शुरू हो गया। नेहा, “नमस्ते आंटी! सच्शमिता आ गई?” कलाकृति जी कुछ कहती उस से पहले ही सच्शमिता, “अरे आओ न!
कब से इंतेज़ार कर रही हूँ तुम्हारा। इस बार तो भाई की शादी में मां ने मुझे पांच तौले का हार दिया है, इक्कीस सूट साड़ियां, इक्यावन हजार नकद और घर में सबके कपड़े और नेग अलग हैं। इक्यावन सौ तो मम्मीजी का ही नेग है, है न मम्मीजी और मम्मीजी की साड़ी तो तीन हजार की है,
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खासतौर से सूरत से मंगाई है ज़री की। यहां तो और भी महंगी होगी।” कलाकृति जी बस मुस्कुरा भर दी। बमुश्किल चुप्पी खींच रही थी। उन्हें पता था उनके बोलते ही बहू तमाशा करने में देर नहीं लगाएगी। पड़ोसियों के सामने क्यों जग हंसाई करानी।
पिछली बार जब उनकी बेटी आई तो क्या ही बात थी, बच्चों की छोटी मोटी लड़ाई। बहू ने तो घर सिर पर उठा लिया था, “मम्मीजी नहीं ध्यान रखा जाता तो बता दीजिए मैं मेरे मायके चली जाती हूँ, हमारे तो इतना किराया आता है कि मैं कोई भारी नहीं हो जाऊंगी उन्हें।”
कलाकृति जी एकांश को लेकर यह कहकर उठ गई, बेटा तुम लोग बातें करो, संध्या आरती का समय हो रहा है, मैं मंदिर होकर आती हूँ।
वहां से लौटी तो बहू बेटे के कमरे से तेज़ तेज़ आवाजें आ रही थीं। कलाकृति जी सोची,आते ही इनके फिर झगड़े शुरू हो गए।मै बीच में बोली तो, तो ये सारी बात ले देकर मुझपर डाल देगी, चुप रहने में ही भलाई है।
तभी सच्शमिता की आवाज़ आई, “इतना तो लेन देन करते हैं मेरे मायके वाले, फिर भी तुम मां बेटे का मुंह ही सूजा रहता है।”अब बेटे मुखर की आवाज़ थी, “ क्योंकि हमारे खानदान में लेने देने की जगह रिश्तों में प्रेम और अपनापन हो इस पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है और क्या ये तुम बार बार मायके जाने की धमकी देती हो? जाओ तुम, मैं भी देखता हूँ कितने दिन रखते हैं तुम्हें।” यह कहकर ज़ोर से दरवाजा खोल बाहर आ गया।
कलाकृति जी ने छह साल की शादी में अपने बेटे मुखर को पहली बार इतना मुखर होकर सटीक बात कहते सुना। वरना पहले मुखर की चुप्पी देखकर सच्शमिता सारी बात उस पर डाल हंगामा कर देती। रही सही कसर कलाकृति जी बीच में बोल पूरी कर देती, जिस से बहू का रोना धोना कर रूठकर मायके चली जाती।आज पहली बार सच्शमिता चुप हुई है।
कलाकृति जी सोच रही थी कि बहू में कितना बदलाव आता है ये तो वक्त ही बताएगा,पर उसे ये एहसास दिलाना जरूरी था कि लेन देन से ज्यादा महत्वपूर्ण है आपसी प्रेम, सहयोग और सामंजस्य।
ऋतु यादव
रेवाड़ी (हरियाणा)
#हमारे खानदान में लेने देने की जगह रिश्तों में प्रेम और अपनापन हो इस पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है