कमरे में चारों ओर फूलों की सुगंध फैली थी । बेड के सामने रखी मेज पर लाल गुलाब के बुके रखे थे । आज बत्तीस साल की नौकरी के बाद पवित्रा रिटायर हुई थी । उसने हाथ में पकड़ा गर्म दूध का गिलास बराबर की साइड टेबल पर रखा और आराम से अधलेटी हो गई । वह दस- ग्यारह साल की थी जब माँ ने बुआ को बुलवाया था —-
ननदजी! अम्मा तो पवित्रा को स्कूल भेजने से मना कर रही है, तुम बोलो ना …. ननदोई जी तो इतने बड़े ओहदे पर लगे हैं । उन्हें तो शिक्षा की क़ीमत का पता है । दोनों छोरों के पीछे लगी रहती हैं खिलाने- पिलाने और पढ़ाने को ….. पर ये छोरी , पढ़ना चाहती है, दर्जे में अव्वल आती है तो इसे आगे पढ़ाना ना चाहती । तुम्हारे भैया भी कुछ ना बोलते ….
अम्मा! ये क्या सुन रही हूँ मैं ? पवित्रा की पढ़ाई बंद करने को कह रही हो ? आपने यही मेरे साथ किया था, ज़बरदस्ती मेरी पढ़ाई बंद करवा दी थी । मेरा ज़माना तो अलग था पर अम्मा आगे तो अनपढ़ लड़कियों की कोई शादी भी नहीं करेगा ।
अनपढ़ कहाँ है ? पाँचवीं पास कर ली ….. चिट्ठी-पत्री पढ़ लेवे और क्या चाहिए ? तुझे भी तो पाँचवीं करवाई थी । बता ! तेरे ठाठ में क्या कमी है? महारानी बनके राज करे है ।
वो तो तुम्हारे दामाद समझदार थे कि शादी के बाद इधर-उधर से आठवीं करवाई , फिर दसवीं….बारहवीं और धीरे-धीरे एम०ए० कर लिया । बच्चे भी पलते रहे और प्राइवेट ही सही पर , डिग्री तो ले ली ….नहीं तो, इनके साथ खड़ी होने लायक़ भी नहीं थी मैं ।
फूफाजी ने भी बहुत समझाया । उस समय दादी केवल इस बात पर राज़ी हुई कि आठवीं के बाद हरगिज़ स्कूल नहीं भेजेंगी । बुआ और फूफा जी ने माँ से जाते समय कहा —-
भाभी, आठवीं तो करने दो …. बाद की बाद में देखेंगे ।
सरकारी स्कूल में कितनी सी फ़ीस लगती थी उन दिनों …. पर पवित्रा को याद है कि किसान पिता के लिए लड़की की फ़ीस देनी भी मुश्किल पड़ रही थी । बेटों के लिए तो क़र्ज़दार होना भी क़बूल था पर बेटी के लिए फ़ीस …..वो तो केवल बहन के हुक्म को मानने की मजबूरी थी ।
जब भी बुआ आती । माँ से गले लगने के बहाने कुछ रुपये मुट्ठी में इस तरह पकड़ा जाती कि दादी और पिता को भनक भी ना लगती —-
रख लो , पवित्रा को किसी चीज़ की ज़रूरत पड़े तो दिलवा देना ।
बुआ जानती थी कि मामा – मामी की तरफ़ से भी माँ को कोई सहारा नहीं था ।
मायके से वापस लौटती बुआ से हमेशा माँ कहती ——
ननदजी ! जाके भूल मत जाइयो , चक्कर लगा दिया करो महीने में एक बार …..
पवित्रा अक्सर माँ को छेड़ती थी —-
माँ, बुआ को ननदजी क्यों कहती हो ? चाची की तरह जीजी कहा करो ना ।
चल हट …. मुझे ना फ़ैशन में बोलना । लाडो ! तू पढलिखकर अपनी बुआ जैसी हिम्मती बनना । बड़ी पुलिस वाली …. सरकारी गाड़ी में आया करना अपने माँ- बाबा से मिलने ।
जिस दिन आठवीं कक्षा का पवित्रा का आख़िरी पेपर था । वह आते ही माँ से बोली थी —-
माँ! बुआ को बुलवा लो ना ….. मेरा स्कूल तो आठवीं तक का ही था ।
सचमुच माँ के चेहरे पर उभरी चिंता की लकीरें आज भी पवित्रा के ज़ेहन में ज्यों की त्यों अंकित थी । बुलावे के लिए तो कोई आदमी नहीं मिला इसबार…. बस इंतज़ार और प्रार्थना करती रही । कहते हैं ना कि सच्चे और निःस्वार्थ भाव से की गई प्रार्थना ज़रूर स्वीकार होती है । हफ़्ते के अंदर ही बुआ ड्राइवर के साथ मायके आ पहुँची —-
कई दिन से भाभी सपने में आ रही थी…. मन बेचैन हो रहा था । साहब जी के पास तो टाइम नहीं था इसलिए ड्राइवर को लेकर आ गई ।
माँ की मन चाही मुराद पूरी हो गई । रात को अम्मा के सोने के बाद माँ बुआ का हाथ पकड़ कर अलग ले जाकर बोली —-
ननदजी ! आठवीं तो हो गई पवित्रा की , अब क्या करुँ? आगे तो स्कूल नहीं…. मेरी बेटी का तो तुम्हें ही सोचना है ननदजी! तुम्हारे भैया ने तो पहले ही हाथ खड़े किए हुए हैं । साल की दो फसल बेचकर घर के खाने/ पीने का ही खर्च निकलता है…..
भाभी! दरअसल तुम्हारे ननदोई और मैंने फ़ैसला किया है कि मैं पवित्रा को अपने साथ ले जाऊँगी….रह लोगी उसके बिना ?
पर ननदजी , खर्चा ? फिर अम्मा को क्या कहोगी?
उसे मेरे ऊपर छोड़ दो ….. बस तुम ख़ुद को तैयार कर लो कि तुम्हें पवित्रा के बिना रहना पड़ेगा । हर महीने उसके यहाँ आने की आस मत करना क्योंकि साहब जी का तबादला कोलकाता हो गया है और हम लोग अगले महीने तक वहाँ चले जाएँगे । मधुर और मुस्कान का एडमिशन दिल्ली के होस्टल में करवा रहे हैं ।
अम्मा! तुम्हारे दामाद का तबादला हो गया है , वहाँ जाने से पहले मिलने आ गई । बच्चे तो दिल्ली में ही रहेंगे…..
मतलब छोरी को भी तू दिल्ली छोड़ के जावेगी? मेरी समझ से बाहर है तेरी बात । बता … बालकों के बिना क्या करेगी ?
अम्मा ने बेटी को बीच में ही टोकते हुए नाराज़गी से कहा ।
अम्मा, मुस्कान डॉक्टरी की पढ़ाई कर रही है । अच्छा…. फिर समझाऊँगी …. पवित्रा की परीक्षा हो चुकी है । उसे मेरे साथ भेज दो …. अकेली का जी ना लगेगा वहाँ ।
पर …. जवान छोरी को कैसे भेज दूँ? कुछ ऊँच-नीच हो गई तो ? दूर का मामला है । अपने भाई- भाभी से बातचीत की?
ना अम्मा, जब तक तुम बैठी हो …. मैं तो तुमसे पूछूँगी । तुम्हारी पोती है । मेरे पास रहेगी तो शहर में उठने – बैठने , बोलने – बतियाने के ढंग सीख लेगी ।
हाँ, बात तो सही है । फिर कब तक छोड़ जावेगी ?
यहाँ भी क्या करना है उसे …. रसोई के काम धंधे सीख लेगी ।
हाँ…. करना तो यहाँ भी कुछ ऐसा ना पर अपनी माँ के साथ हाथ बँटा देवेगी ।
देख लो अम्मा….. बहू का सोचोगी या बेटी का ?
बुआ ने बड़ी चालाकी से पवित्रा को अपने साथ ले जाने की भूमिका तैयार कर ली और माँ मन ही मन ननद के रूप में बहन
पाकर ईश्वर को धन्यवाद दे रही थी ।
पवित्रा को विदा करते समय माँ कीं हिचकियाँ थमने का नाम नहीं ले रही थी क्योंकि बेटी हमेशा के लिए इस दहलीज़ से विदाई ले रही थी …… उसे पता था कि अपनी भतीजी के सुंदर भविष्य को ध्यान में रखते हुए ननदजी अब पता नहीं उसे कब लाएँगीं और पति तथा सास की इतनी हिम्मत कभी नहीं कि ननद-ननदोई को नाराज़ करें ।
दो साल बाद पवित्रा दसवीं की परीक्षा देकर बुआ के साथ माँ से मिलने आई पर इस दफ़ा बुआ को कुछ नहीं कहना पड़ा क्योंकि दो साल में पवित्रा ने पूरे आत्मविश्वास के साथ अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर लिया था । हाँ….. घर से निकलते समय उसने माँ का हाथ पकड़ कर रुँधे गले से केवल इतना कहा——
माँ…. तेरी बेटी अपने पैरों पर खड़ी होकर तेरा सपना पूरा करेगी । विश्वास रखना …..
इस बार पिता की आँखों में भी पानी भर आया था पर शायद वे भी समझ गए थे कि बेटी के कल को सँवारने के लिए उसे भेजने में ही भलाई है ।
धीरे-धीरे पवित्रा एक के बाद एक सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ती गई और जिस दिन यू० पी० एस० सी० में उसका चयन हुआ….. उस दिन पवित्रा की तपस्या पूरी हुई । ट्रेनिंग पर जाने से पहले पवित्रा बुआ- फूफा के साथ घर गई । आज दादी ने उसकी नज़र उतारते हुए कहा —-
ए बेटी! मुझ अनपढ़ को तो यही पता था कि गरीब किसान की बेटी को सपने देखने का हक़ ना होता ।
इसी बीच पवित्रा ने बुआ और फूफा को अपने ही बैच के अधिकारी संदीप के बारे में भी बता दिया था पर अंतिम फ़ैसला माता-पिता और बुआ- फूफा के ऊपर छोड़ दिया था । चारों ने सोच विचार कर पवित्रा के लिए संदीप को चुन लिया था ।
जिस दिन पवित्रा आई० पी० एस० अधिकारी के रूप में अपने घर गई थी, उसकी माँ की आँखें सिर्फ़ अपनी बेटी के लिए नहीं छलछलाई …..उनमें अपनी ननद- ननदोई के प्रति सम्मान और कृतज्ञता का भाव था क्योंकि केवल सपने देखना ही काफ़ी नहीं होता उन सपनों को पूरा करने का हौसला भी होना चाहिए और माँ तथा पवित्रा के जीवन में , बुआ- फूफा हौसला बनकर आए थे ।
सोचते- सोचते पवित्रा का चेहरा संतुष्टि से जगमगा उठा और उसने साइड टेबल से दूध उठाकर पी लिया ।
लेखिका : करुणा मलिक