माँ, अगर मेरी पत्नी की जगह आपकी बेटी होती तो क्या आपका तब भी इतनी सी बात पर यही फ़ैसला होता कि एक घर में दो रसोई बना दी जाएँ ?
मुझसे बहस करने की ज़रूरत नहीं है । मैं तो बेटी मानकर इसे घर में लेकर आई थी और बेटी मानकर ही समझाती हूँ । मैं हज़ार बार उसको समझा चुकी हूँ कि बेटा …. अपने बाबा की सब्ज़ी निकालकर मिर्च डाल लिया कर और ठीक सात बजे उन्हें खाना खिला दिया कर तो परेशानी क्या है? बेटा ! हो सकता है कि तुम्हारे लिए ये छोटी सी बात हो पर इस छोटी सी बात से किसी की जान भी जा सकती थी ।
विवेक चार साल कम नहीं होते । जितना समझा सकती थी , समझा चुकी । अगर कल रात खाँसते-खाँसते बापूजी को कुछ हो जाता तो मैं तो पूरी ज़िंदगी के लिए अपनी नज़रों में गिर जाती ना ? अब मैं बापूजी के मामले में कोई ख़तरा मोल नहीं ले सकती ।
इतना कहकर संगीता अंदर चली गई । बेटे के शब्दों को सुनकर संगीता का मन भर आया कि कितनी आसानी से विवेक ने बहू- बेटी का फ़र्क़ बता दिया । वो क्या जानें कि अपनी बेटी के ऊपर तो उसने हमेशा बहुत सख्ताई की , ज़रा सी भी गलती को कभी माफ़ नहीं किया , विशेषकर घर के बड़े- बुजुर्गों के मामले में कभी नहीं….जबकि बहू की ग़लतियों को हमेशा सुधारती रही । और आज भी विवेक को शीना की वजह से बाबा की बिगड़ी तबीयत नहीं बल्कि यह दिख रहा है कि शीना के खिलाफ माँ ने एक्शन ले लिया ।
क़रीब पाँच साल पहले विवेक कालीकट से बी०ई० की डिग्री लेकर आया तो माता-पिता ने उसकी शादी के सपने देखने शुरू कर दिए । सबसे बड़ी बात कि अपने ही शहर में अच्छी नौकरी भी मिल गई । अब शादी न करने का बहाना बनाने की कोई गुंजाइश ही नहीं बची , इसलिए विवेक ने एक दिन माँ से कहा—-
माँ… शीना नाम है उसका । मलयाली परिवार की है । हिंदी तो बिलकुल भी नहीं जानती पर जल्दी ही सीख लेगी । अब कैसे परिवार को मनाना है? मैं कुछ नहीं जानता पर मैं शीना के अलावा किसी ओर से शादी नहीं करूँगा ।
एक- दो दिन तो संगीता को खुद ही इस बात को स्वीकार करने में लग गए कि उनकी बहू एक ऐसी लड़की बनेगी जिससे वे जी भरकर तो क्या, औपचारिक बात भी नहीं कर पाएगी । पर बेटे की ख़ुशी को ध्यान में रखते हुए संगीता ने सबसे पहले अपने पति को और फिर धीरे-धीरे बाबा को मनाया , चाचा- बुआ, मामा- मौसी हर एक को विश्वास में लेकर उन्होंने बेटे का विवाह कर दिया । अपने घर में सारे रीति- रिवाज निभाए और सब बिना गिले- शिकवे के अपने-अपने घर चले गए । शीना को अपनी मनपसंद नौकरी नहीं मिली थी इसलिए क़रीब छह महीने वह घर पर ही रही । शुरू में तो संगीता और बहू के बीच केवल गुड मार्निंग … हाऊ आर यू फ़ीलिंग हियर ….जैसी बेहद औपचारिकता ही निभाई गई । फिर धीरे-धीरे शीना ने जल्दी ही दूसरी बातचीत में भाग लेना शुरू कर दिया , हिंदी समझती तो थी अब टूटी- फूटी बोलने भी लगी ।संगीता अक्सर उसे कुछ न कुछ समझाती रहती थी——
शीना … बेटे ! तुम्हारे पापा को थोड़ी कड़क चाय पसंद है, आओ नाप तोल सिखाती हूँ । बाबा बिलकुल भी मिर्च नहीं खाते …. हम उनके लिए अलग से दाल- सब्ज़ी निकाल कर मिर्च डाल देंगे ।
क्या बाबा बिलकुल भी मिर्च नहीं खाते ? बिना मिर्च- मसाले के क्या स्वाद आएगा? ऊपर से डालने में वो स्वाद नहीं आता ।
बेटा…. जबसे बाबा का बवासीर का आपरेशन हुआ है ना तब से तो उन्हें मिर्च खाते ही परेशानी हो जाती है ।
ओहह…. मम्मी… मिर्च डाल दी मैंने तो, भूल गई ।
चलो कोई बात नहीं, बापूजी के लिए थोड़ी मूँग की दाल चढ़ा देती हूँ । याद रखा करो बेटा ! बढ़ती उम्र में कई चीजों का परहेज़ करना पड़ता है ।
संगीता को अच्छी तरह से याद है कि शीना को हफ़्ते में मुश्किल से दो दिन बाबा की दाल- सब्ज़ी निकालनी याद रहती थी बाक़ी दिन कभी उनके लिए दुबारा सब्ज़ी बनती या जुगाड़ करके भोजन परोसा जाता था । कभी-कभी संगीता को लगता कि शीना अनसुना करती है क्योंकि अगर सब्ज़ी बनाते समय संगीता याद दिला रही है तो कोई कैसे भूल सकता है? कई बार उसने कोशिश की कि दाल- सब्ज़ी वह खुद बना लिया करेगी पर इस पर भी शीना हज़ारों सवाल करती थी —-
क्यों मेरे हाथ में स्वाद नहीं है क्या? मम्मी! एक टाइम खाने से बाबा की तबीयत कहाँ बिगड़ेगी आदि आदि ….
और कल रात तो शीना ने खूब मिर्च- मसाला डालकर ऐसी दाल- सब्ज़ी बनाई कि एक कौर लगाते ही बाबा को जो खाँसी उठी , उनकी तो साँस ही उखड़ गई । रिश्तेदारी में एक शादी थी
और जाते- जाते संगीता हिदायत देकर गई थी—-
शीना ! बाबा का ध्यान रखना बच्चे…. बुजुर्गों की सेवा करने का मौक़ा नसीब वालों को मिलता है । खाने- पीने के टाइम का ख़्याल रखना ।
वो तो शुक्र था कि विवेक अपनी गाड़ी से माता-पिता के साथ नहीं गया था । बाबा की बिगड़ती स्थिति को देखकर विवेक उन्हें तुरंत पास के अस्पताल ले गया और डॉक्टर ने हालत सँभाली । दो घंटे बाद बाबा को घर भेज दिया गया था ।
रात को तो संगीता और उनके पति ने कुछ नहीं कहा पर अगले दिन संगीता ने विवेक को पास बुलाकर कहा —-
विवेक ! मैंने और तुम्हारे पापा ने फ़ैसला किया है कि तुम अपनी पत्नी के साथ अपनी रसोई अलग कर लो क्योंकि अब पानी नाक से ऊपर जा चुका है…. बाबा सही सलामत हैं, इसे भगवान की चेतावनी समझना चाहिए ।
बस इसी बात को सुनकर विवेक ने बहू – बेटी का अंतर समझाने लगा । तभी संगीता की पड़ोसन बाबा का हाल पूछने आ गई——
संगीता, पता चला कि बाबा को कल अस्पताल ले जाना पड़ा था , अब कैसी तबीयत है उनकी ?
उन्हें देखकर संगीता को याद आया कि ये भी तो अपनी रसोई अलग बनाती हैं…. मन की दुविधा को दूर करने के लिए संगीता ने कहा—-
पुष्पा बहन ! एक बात पूछूँ….. बुरा तो नहीं मानोगी?
बुरा कैसा ? सब घरों में मटियाले चूल्हे होते हैं, बेफ़िक्र होकर पूछो ।
आपके एक घर में दो रसोई…. रिश्तों पर इसका कोई असर तो हुआ होगा ना ?
नहीं संगीता! बस हमें बच्चों को थोड़ा समझाने की ज़रूरत होती है । वे जवान हैं , उनके शौक़- पसंद में अंतर होता है और मुझे और मेरे पति को परहेज़ का खाना पड़ता है तो अभी से बच्चों को क्यों परहेज़ी खाने पर मजबूर करें ।
पड़ोसन की बातों से संगीता को बड़ी तसल्ली मिली । उसने शाम को विवेक के दफ़्तर से लौटने पर बहू- बेटे से कहा ——
हो सकता है कि सुबह मैंने कठोरता से रसोई अलग करने की बात कह दी हो पर अब मैं ग़ुस्से में नहीं बल्कि प्रेम से यह समझाना चाहती हूँ कि अभी तुम्हारे खाने – पीने की उम्र है पर केवल बाबा को ही नहीं बल्कि मुझे और तुम्हारे पापा को भी ज़्यादा तला-भुना मिर्च मसाले का खाने से एसिडिटि होने लगी है । बेटा , रसोई अलग करने का अर्थ रिश्ते ख़त्म करना नहीं है । अब देखो ना , तुम दोनों साढ़े नौ के आसपास डिनर करते हो पर बाबा ठीक सात बजे और मैं तथा तुम्हारे पापा आठ बजे तक …. बस एक व्यवस्था बना रहे हैं ताकि सबको आराम रहे । तीज- त्योहार पर और इतवार को इकट्ठे मिलकर खाया करेंगे ।
बहुत बढ़िया मम्मी…. कोई प्राब्लम नहीं होगा —शीना ने चहकते हुए कहा ।
लेखिका : करुणा मलिक