स्नेह अपना बैग पैक करो तुम्हें अभी रात की ट्रेन से इन्दौर निकलना है।
अरे !पर ऐसे अचानक क्यों ? सब ठीक है ना वहाँ? स्नेह का मन अनजानी आशंका से काँपने लगा था।
देखो यहाँ बैठो और आराम से मेरी बात सुनो ! पापा को एडमिट किया था हास्पिटल में एक हफ्ते पहले डायलिसिस हो रहे थे । तुम्हें बताने को मना किया था मम्मी ने पर अभी पापा को वेंटिलेटर पर लिया है।
यह सुनकर अपने होशो हवास खो बैठी थी वो। मीत ने उसे संभाला और समझाया ।
फोन आते ही टिकट के लिए गया था पर एक ही मिला अभी। तुम्हारा वहाँ पहुँचना अभी ज्यादा जरूरी है ।
मम्मी को अभी तुम्हारी जरूरत है।
पूरा सफर रोते हुए ही निकाला था उसने । पापा से जुड़ी हर बात याद आ रही थी।
पापा की सलामती की दुआऐं माँगती रही सारे रास्ते।
स्टेशन पर भाई लेने आया था । उसके गले लगकर रो पड़ी थी वो। घर जाकर जल्दी से नहाकर अस्पताल पहुँची ।
पापा को वेंटिलेटर पर देखकर हिम्मत ही खत्म हो गई थी उसकी।
फिर खुद को संभाला यह सोचकर कि मम्मी की और छोटे भाई की हिम्मत इस वक्त उसे ही बनना है।
ना जाने उसमें इतनी हिम्मत कहाँ से आ गई कि जो लड़की अकेले कालेज नहीं जा सकती थी यहाँ अंदर बाहर सब संभाल रही थी । डाक्टर से बात करने से लेकर। रात दिन पापा के साथ अस्पताल में ही रहना। मम्मी को संभालना भाई को समझाना
सबकी ताकत बनी हुई थी।
पापा की हालत में सुधार दिखने पर उन्हे वेंटिलेटर से हटाकर रूम में शिफ्ट कर दिया गया। सबको अब उम्मीद बंध गई थी सब अच्छा होने की। डेढ़ महीना हो गया था पापा को अस्पताल में ।
डॉक्टर ने चार दिन बाद घर जाने की इजाजत दे दी थी। सब खुश थे पर अचानक उनकी तबीयत बिगड़ने लगी और उन्हें फिर से वेंटिलेटर पर लेना पड़ा। इस बार पापा वेंटिलेटर से वापस ना आ पाए। एंबुलेंस में पापा को घर लेकर जाते हुए वो पूरे रास्ते पापा को उठाने की कोशिश करती रही कि शायद उसके पुकारने से वो उठ जाए।
घर पर अंतिम संस्कार की तैयारियां हो रही थी
सब रो रहे थे पर स्नेहा तो सुधबुध ही खो बैठी हो जैसे।
उसकी आँख से एक आँसु ना गिरा। सबने उसे रूलाने की कोशिश की पर वो तो पत्थर हो गई थी शायद। सब काम चुपचाप करे जा रही थी। माँ और भाई को संभाल रही थी। घर की बड़ी बेटी से बेटा बन गई थी शायद।
तेरहवीं के बाद वापस अपने ससुराल आ गई थी ।अन्दर ही अन्दर घुट रही थी वो पर रोई नहीं।
सब कहते क्या पत्थर दिल लड़की है पिता के जाने का कोई अफसोस ही नहीं।
पर उसकी मनोदशा कोई समझना ही नहीं चाहता था।
पापा का जाना वो मान ही नहीं पाई थी शायद सब जिम्मेदारियां
सम्हालते हुए वो खुद को तो सम्हाल ही नहीं पाई ।
पापा के बाद माँ और भाई को संभालना उसकी जिम्मेदारी थी। अब उनके सामने रोकर वो उनको कमज़ोर नहीं कर सकती थी।
उसे ही तो उनकी हिम्मत बनना था। उसका दर्द तो उसके अंदर ही अनकहा ही रह गया ।
ससुराल में भी किसी ने उसकी मनोदशा समझने की कोशिश नहीं की । बस इतना कहा कि काम में मन लगाओ सबको खुश रखो जो हो गया उसके लिए यहाँ रोना धोना मत मचाना समझी बहु ।तो वहाँ भी वो चुपचाप अपना फर्ज निभाती रही।
दिल पर पत्थर रखकर एक आँसु भी बाहर ना आने देती बस अन्दर ही अन्दर घुटती जा रही थी।
फोन पर माँ और भाई को रोज हिम्मत देती ।
ऐसे ही साल निकल गया था। पापा की पहली बरसी थी।
पापा के जाने के पूरे एक साल बाद उनकी बरसी पर ही मायके आ पाई थी। सोचकर आई थी कि वहां किसी को उदास नही रहने दूंगी।
पर जब घर मे घुसते ही हमेशा की तरह शोर मचाया “पापा आप कहाँ हो मैं आ गई,” पर कमरे मे अब जवाब देने के लिए पापा कहाँ थे?
शोर मचाने वाली लाडो अब वही आँखो मे आँसु लिए खामोश बैठी थी । आज वो लड़की जिसे सब पत्थर दिल ओर ना जाने क्या क्या कहते थे आज वो उसे रोता देखकर नम नयनो के साथ चुपचाप खड़े थे। आज उसका वो दबा हुआ अनकहा दर्द बाहर निकल रहा था बिखर गई थी सबको सम्हालने वाली ।
जिस कमरे को वो ठहाको से गुँजाने का सोच कर आई थी,अब उस कमरे मे केवल खालीपन और ख़ामोशी थी।
स्वरचित
स्वाती जितेश राठी
#अनकहा दर्द