पूरा ऑडिटोरियम तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज रहा था।विद्यालय का वार्षिकोत्सव था।और प्रथम आने वाले बच्चों के नाम घोषित किए जा रहे थे।
“राहुल शर्मा, 12वीं अ ” अंत मे विद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त करने वाले विद्यार्थी का नाम घोषित किया गया। तालियों की गड़गड़ाहट में दो हाथ ऐसे भी थे जो ताली बजाते बजाते रुककर अपनी आंखों के आंसू पोंछने का असफल प्रयास कर रहे थे। परंतु आज सुधा के लिए अपने आप को रोक पाना असंभव प्रतीत हो रहा था। रोते-रोते सुधा अपने अतीत में खो गई।
यूँ तो सुधा बचपन से ही एक मेधावी छात्रा थी। कक्षा में अव्वल आती थी। लेकिन पिता की आकस्मिक मृत्यु के बाद घर की आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण उसकी पढ़ाई में बाधाएं आने लगी। सुधा पढ़ना चाहती थी इसलिए उसने कम उम्र में ही ट्यूशन पढ़ाकर 12वीं तक की पढ़ाई पूरी की। जब गरीबी व लाचारी पढ़ाई के प्रति उसकी लगन को कम नहीं कर सकी
तो उससे पढ़ने का मौका ही छीन ले गयी। माँ सुधा को पढ़ाना तो चाहती थी परंतु सुधा के अलावा उनकी दो बेटियां और भी थी और बीमारी के चलते वह चाहती थी कि उनके जीते जी उनकी बेटियों की शादी हो जाए । इसलिए सुधा की जल्दी शादी कर दी गई। हालात कुछ ऐसे बने कि सुधा विरोध भी ना कर सकी।
शादी के बाद जब पहली बार सुधा ने अपने पति राजेश से आगे पढ़ने की इच्छा जाहिर की तो उसकी सास और राजेश दोनों ने ही एक सिरे से नकार दिया, “अब पढ़ने लिखने की क्या जरूरत है घर संभालो” दो टूक जवाब मिल गया था सुधा को। उसके बाद कभी कभी राजेश से दबे स्वर में पढ़ने की बात भी की तो दो घूरती आंखों के आगे उसकी वह आवाज भी दब कर रह गई। वक्त बीतता किया।पांच साल में सुधा दो प्यारे प्यारे बच्चों की
मां बन चुकी थी। अब सुधा अपने परिवार को समर्पित हो चुकी थी।धीरे-धीरे बच्चे बड़े होने लगे और स्कूल जाने लगे।कुछ साल बाद देवर की शादी हुई तो पढ़ी लिखी नौकरी पेशा देवरानी घर में आई।उसके सामने अब सुधा को अनपढ़ गँवार समझा जाता था। पति और सास द्वारा नीचा दिखाए जाने की तो सुधा को आदत हो ही चुकी थी लेकिन तकलीफ तब ज्यादा हुई जब उसके अपने बच्चे भी उसका मजाक बनाने लगे। एक दिन तो हद ही हो गयी जब बैंक से आये एक लेटर को बच्चों ने सुधा के हाथ से ये कहते हुए छीन कर चाची के हाथों में दे दिया कि मम्मी, ये इंग्लिश में लिखा है आपको समझ नही आएगा।
हाँ, सुधा की अंग्रेजी देवरानी की तरह धारा प्रवाह तो नही थी लेकिन ऐसी भी नही थी कि वह अंग्रेजी समझ ही न सके। बच्चों को पढ़ाई में कोई भी समस्या होती तो वे चाची के पास जाते। सुधा समझाने की कोशिश भी करती तो वे समझना ही नही चाहते थे। सुधा का आत्मविश्वास टूटने लगा था। उसके मन में बस एक ही सवाल था “क्या डिग्री होना ही सबसे महत्वपूर्ण है?”
राहुल अब तक स्टेज पर पहुंच चुका था वहां पर प्रधानाचार्या राहुल को अपने स्कूल का छात्र होने पर गर्व महसूस करती हुई उसकी तारीफों के पुल बांध रही थी।सभी को हैरानी थी कि पढ़ाई में औसत नंबर लाने वाला राहुल आज कैसे विद्यालय में प्रथम स्थान लाया था।
सुधा अभी भी अतीत में डूबी हुई थी कि अचानक उसे अपना नाम सुनाई दिया। वह चौंक उठी और उसे अहसास हुआ कि उसका नाम स्टेज से पुकारा जा रहा है। माइक पर राहुल की आवाज आई,”सुधा आंटी, प्लीज कम ऑन द स्टेज”। सुधा स्टेज पर पहुंची जहाँ राहुल माइक पकड़े सभी को बता रहा था कि किस तरह दसवीं कक्षा में बहुत कम नंबर आने पर उसकी मम्मी द्वारा पड़ोस में रहने वाली सुधा आंटी को अपना दुख व चिंता व्यक्त करने पर सुधा आंटी के मुंह से अनायास ही निकल पड़ा था कि आज से वह राहुल को पढ़ाएंगी। काफी लंबे समय तक किताबों से दूर रहने वाली
सुधा आंटी ने किस तरह राहुल को पढ़ाने में मेहनत की और किस तरह सुधा आंटी के पढ़ाने की शैली से प्रभावित होकर राहुल पढ़ाई में रुचि लेने लगा था। जिसके परिणाम स्वरूप एक औसत नंबर लाने वाला लड़का आज विद्यालय का टॉपर बन गया था। यह सब बताते हुए राहुल ने स्टेज पर सुधा के पैर छुए। सुधा ने नम आंखों और आत्मसम्मान भरे दिल से राहुल को गले लगा लिया। वहीं सामने कुर्सियों पर बैठे पति राजेश और सुधा के बच्चों की आंखें शर्म से झुकी हुई थी।उन्हें अब सुधा के प्रति अपनी सोच पर ग्लानि हो रही थी।
दो महीने बाद सुधा का अपना एक कोचिंग सेंटर खुल चुका था। जिसमें राहुल जैसे कई बच्चे एक अच्छी शिक्षा का लाभ उठा रहे थे।
शिखा जैन
स्वरचित