“मम्मी, यह कैसा सूट दिया है प्रीति भाभी ने। हरे रंग का!.. हरा रंग भी कोई पहनता है क्या.. और रोहन को जो शर्ट दी थी उसका तो न कपड़ा बढ़िया है न प्रिंट। कितनी बार कहा है भाई को.. कि रोहन सिर्फ ब्रांडेड कपड़े पहनते हैं। मेरी देवरानी के भाई ने उसे कितना सारा सामान दिया… ब्रांडेड कपड़े, बच्चों के महंगे खिलौने,हल्दीराम की मिठाइयाँ और 11000 नकद अलग से। मुझे कितनी शर्म आई… पता है आपको” रक्षाबंधन के दो दिन बाद सुरूचि का फ़ोन आया।
माँ चुपचाप सब सुन रही थी। यह कोई नई बात नहीं थी। सुरुचि की पुरानी आदत थी। भाई-भाभी कितना भी अच्छा सामान देते सुरुचि को उसमें कमियां ही नजर आती।
सुरुचि की देवरानी के मायके वाले बहुत पैसे वाले थे। इसलिए उसके घर से बहुत सारा सामान आता था लेकिन इधर राजीव की आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं थी। वह प्राइवेट कंपनी में जॉब करता था। बहुत अधिक सैलरी नहीं थी। अभी एक साल पहले ही उसने अपनी मेहनत से एक छोटा सा मकान खरीदा था।
जिस पर उसने लोन भी ले रखा था। आरव के जन्म के बाद तो खर्चे और भी बढ़ गए थे और उधर मां की बीमारी पर भी आए दिन कुछ ना कुछ खर्च होता रहता था लेकिन इन सबके बावजूद भी राजीव और प्रीति से जो बन पड़ता था वह सुरुचि को दिया करते थे लेकिन सुरुचि अपनी आदत के अनुसार कमियाँ निकाल ही दिया करती थी।
माँ सुरुचि को हर बार समझाया भी करती थी कि हर भाई अपनी क्षमता अनुसार अच्छा ही देता है लेकिन उस पर किसी बात का कुछ असर नहीं होता था।माँ समझा समझा कर थक चुकी थी लेकिन इस बार उनका रवैया कुछ अलग ही था ।वो सुरूचि की हाँ में हाँ मिलाते हुए बोली
“तू ठीक कह रही है सुरूचि, भला ऐसे बेकार कपड़े भी किसी को दिए जाते हैं क्या! तू कल ही घर आ जा।मैं तुझे भाई से कहकर और कपड़े दिला दूँगी।”
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सुरूचि को माँ के इस जवाब की उम्मीद नहीं थी।उसको लगा था कि माँ अब लेक्चर देना शुरू कर देंगी।अपनी बात सही निशाने पर लगती देख सुरूचि बहुत खुश थी।
“ठीक है माँ, मैं कल ही आती हूँ।”
“हाँ,और वो कपड़े भी लेती आना। सूट तो प्रीति पहन लेगी और शर्ट भाई के काम आ ही जाएगी और एक काम और करना…आरव कह रहा था कि बुआ राखी पर उसके लिए कोई गिफ्ट नहीं लाई तो बेटा आते हुए उसके लिए एक बढ़िया सी रिमोट की कार लेती आना। वह बहुत जिद कर रहा है।बच्चा है न अब
उसको समझा भी नहीं सकते। और हाँ एक काम और करना तुम्हारे रास्ते में लाल चौक पड़ता है वहाँ से भाई के लिए एक किलो बालूशाही खरीद के लाना।तुझे तो पता ही है भाई को बालूशाही कितनी पसंद है।और वैसे भी जो तू राखी पर रसगुल्ले लाई थी वो तो सब खा खाकर थक चुके हैं।”
सुरूचि के चेहरे का रंग बदलने लगा था
“और हाँ सुन….”
माँ अभी और भी कुछ कहती।इससे पहले ही सुरूचि ने बात काट दी।
“मम्मी, कल तो नहीं आ पाऊँगी मैं। रोहन को कही बाहर जाना है और मैं अकेली नही आ सकती ।फिर कभी देखती हूँ।”
सुरूचि समझ चुकी थी कि माँ उसकी बातों में नहीं आने वाली हैं।
इधर माँ सुरूचि का स्वभाव अच्छे से जानती थी।उन्हें पता था सुरूचि सिर्फ लेना जानती है।देने के नाम पर तो उसका दम निकलने लग जाता था।इसीलिए उन्होंने उसको सबक सिखाने के लिए ये सब कहा।
“माँ ने एक गहरी सांस छोड़ते हुए कहा,”अच्छा ठीक है, कोई बात नही बेटा जब समय मिले तब आ जाना।
माँ जानती थी अब सुरूचि को कई दिन तक समय नहीं मिलने वाला था।
शिखा जैन
स्वरचित