अभागन बनी सौभाग्यवती : गीता चौबे गूँज  : Moral Stories in Hindi

  ”अरे कुलक्षिणी! कहाँ मर गयी… कब से चाय माँग रही हूँ… पता नहीं कब यह मनहूस इस घर से जायगी! जन्म लेते ही माँ को खा गयी और महीने भर बाद बाप को…” आए दिन रूपा की चाची रूपा पर इस तरह के व्यंग्य-बाण बरसाती रहती।

   रूपा को अपना असली नाम तो याद ही नहीं रहता, रहे भी कैसे कोई भी तो रूपा कहकर नहीं बुलाता था। करमजली, कामचोर, अभागिन… बस यही संबोधन सुनती आई थी अपने लिए।

  रात दिन मेहनत करती पर प्यार के दो बोल के लिए तरसती। क्या होता है प्यार, उसने कभी जाना ही नहीं।

हाड़-तोड़ मेहनत के बाद दो जून की रोटी… बस यही उसका नसीब था। फिर भी, उसे पूरा विश्वास था कि उसकी उम्मीद का सूरज एक दिन अवश्य निकलेगा। 

चचेरी बहन सोना की शादी में सारा काम रूपा ने बड़ी जिम्मेदारी से संभाला था। शादी में सोना की ससुराल का एक रिश्तेदार रोहन भी आया हुआ था। वह बहुत बारीकी से रूपा के कार्य-कलापों को देख रहा था और मन ही मन उसके गुणों पर लट्टू था। उसने अपने पापा को एकांत में ले जाकर रूपा से विवाह की अपनी इच्छा प्रकट की। रूपा का विनम्र व्यवहार तो रोहन के पापा को भी भा गया था। अतः उन्होंने सोना की विदाई के समय ही रूपा के चाचा से रूपा का हाथ अपने पुत्र के लिए माँगने की बात उठायी जिसे सुनते ही रूपा की चाची बोल उठी, 

“यह अभागन आपके घर के लायक नहीं… जहाँ भी जाती है अपना दुर्भाग्य साथ लेकर जाती है।” 

चाची नहीं  चाहती थी कि 24घंटे की आया ऐसे हाथ से निकल जाए।

   रूपा की चाची द्वारा कहे गए शब्दों से रोहन के पिता पर तात्कालिक प्रभाव पड़ा और उन्होंने यह कहकर वहाँ से विदा ली… 

  “ऐसी बात नहीं है। दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलते देर नहीं लगती। फिर भी मैं अपने घरवालों से मशवरा कर आपके पास पुनः आऊँगा।”

           बात आयी-गयी हो गयी। रोहन की छुट्टियाँ खत्म हुईं और वह अपनी ड्यूटी पर वापस चला गया था। रोहन के पापा ने घर में रूपा की बात उठायी और साथ ही रोहन की माँ को रूपा की चाची के विचारों से भी अवगत कराया। औरतें शायद कुछ अधिक ही वहम पाल लेती हैं। रोहन की माँ के मन में घर कर गया कि जानते-बूझते हुए दुर्भाग्य को न्योता देना अक्लमंदी नहीं है। हालाँकि रोहन के पिता इस तरह की बातों में विश्वास नहीं करते थे, परंतु पत्नी पर दबाव भी नहीं डालना चाहते थे। वे जानते थे कि सास-बहू का रिश्ता वैसे भी बहुत नाजुक होता है। यदि जिद करके रूपा को घर में लाएँ भी तो उनकी पत्नी उसे कभी स्वीकार नहीं करेगी। ऐसी स्थिति में रूपा का जीवन और भी तकलीफदेह हो जाएगा। वह एक नर्क से निकलकर कहीं दूसरे नर्क में न आ जाए! ऐसा सोचकर उन्होंने इस बात को टालने की सोची। रोहन के पूछने पर उन्होंने यही कहा, 

“तुम्हारे ड्यूटी की ट्रेनिंग दो साल तक चलेगी। अतः हम इस मसले पर दो साल बाद ही बात करें तो अच्छा रहेगा। वैसे भी शादी करके दो साल ससुराल में रखने से अच्छा है कि हम दो साल बाद ही विवाह कराएँ।”

   पिता का जवाब सुनकर रोहन ने भी एक सवाल किया था… 

  “तब तक उसकी शादी कहीं अन्यत्र हो जाएगी तो? जरूरी तो नहीं कि वे लोग दो साल रुके रहेंगे!”

“तुम चिंता मत करो! मैं इस बात का ध्यान रखूँगा।” 

   रोहन के पिताजी जानते थे कि रूपा की चाची ऐसा कुछ होने ही नहीं देगी। उन्होंने यह सोचकर रोहन को आश्वस्त किया कि दो वर्ष का अंतराल बहुत लंबा होता है। यदि यह आकर्षण क्षणिक हुआ तो रोहन स्वयं ही रूपा को भूल जाएगा और यदि रोहन इस रिश्ते के प्रति गंभीर हुआ तो वे इन दोनों के विवाह की बात को बढ़ाने में अपनी तरफ से पुरजोर कोशिश करेंगे। 

      इधर रूपा की चाची को एक और हथियार मिल गया रूपा की भावनाओं को नेस्तनाबूद करने का। तानों की बौछारें तीव्रतर होने लगीं। बहुत दिनों तक रोहन की तरफ से कोई सूचना नहीं मिलने पर रूपा के चाचा भी निराश-हताश हो उठे थे। अब तो कहीं अन्यत्र शादी की बात चलाने पर रूपा की चाची ही स्वयं आगे बढ़कर रोक देती, 

  “क्यों बार-बार अपनी बेइज्जती कराने पर तुले हो? रोहन के पिता द्वारा अपमानित किया जाना क्या कम था?”

“क्या बोले जा रही हो? रोहन के पिता ने हमारा कब अपमान किया?” 

   पति के एक प्रश्न के जवाब में प्रश्नों की ढेरी लगा देती… 

“खुद आगे बढ़कर हाथ माँगना और फिर एकदम से चुप्पी साध लेना अपमान नहीं तो और क्या है? खुदा न खास्ते एकाध बार यदि और रिश्ता टूट गया तो सोना के लिए शर्मनाक स्थिति नहीं हो जाएगी? क्या चाहते हो, इस अभागन के दुर्भाग्य का फल सोना भुगते?”

    रूपा के चाचा ने चुप रहने में ही भलाई समझी। ज्यादा बहस करने पर उनकी पत्नी का गुस्सा रूपा पर ही निकलता। रूपा ने तो इस स्थिति को अपनी नियति मानकर स्वीकार कर ही लिया था। उसे तो आजीवन सब कुछ सहना ही है। कोई दूसरा विकल्प भी तो नहीं। अपने ऊपर लगे ‘अभागन’ के ठप्पे को वह किस आधार पर खारिज करवाती। 

   दिन गुजरते रहे। बीच-बीच में रोहन अपने पिता से रूपा का समाचार पूछता रहता। पिता भी उसे आश्वस्त करते हुए अपनी ट्रेनिंग पर ध्यान देने का आग्रह करते। यूँ ही दो वर्षों का समय गुजर गया। अगले सप्ताह रोहन की ट्रेनिंग पूर्ण होनेवाली थी। रोहन ने पिता को फोन किया, 

   “पापा मैं अगले हफ्ते वहाँ आ रहा हूँ। तब तक आप रूपा के चाचाजी से बात कर लें! हम अगले ही दिन उनके घर चलेंगे। लड़कीवालों को ज्यादा दिनों तक लटका कर रखना ठीक नहीं!”

“इस रिश्ते के लिए क्या तुम सचमुच गंभीर हो?” पिता के इस प्रश्न पर रोहन तो जैसे भड़क ही गया… 

“ये कैसी बातें कर रहे हैं पापा? मुझसे दो सालों का लंबा वक्त माँगकर आप स्वयं पीछे हट रहे हैं? मैं तो समझता था कि मुझसे ज्यादा आप उत्सुक होंगे इस बात के लिए। मैंने तो तय कर लिया है कि मैं विवाह उसी लड़की से करूँगा। आप साथ नहीं जाएँगे तो मैं अकेला ही चला जाऊँगा।” 

   रोहन के इस स्पष्ट निर्णय ने उसके पिता के मन में चल रहे संशय के काले बादलों का सफाया कर दिया। फिर तो उन्होंने सबसे पहले अपनी पत्नी को विश्वास में लेकर इस रिश्ते के लिए राजी किया। उन्हें राजी होने में ज्यादा देर नहीं लगी; क्योंकि किसीभी माँ के लिए अपनी संतान से बढ़कर कोई भी चीज मायने नहीं रखती। रोहन के आते ही पिता-पुत्र बिना किसी पूर्व सूचना के रूपा के घर जा पहुँचे। इस अप्रत्याशित आगमन से चाची सन्न रह गयी। उसने आखिरी दाँव फेंकना चाहा और अपनी विषैली जिह्वा से विष-वमन करना शुरू किया, 

   “बड़ी जल्दी आपको याद आ गयी इस रिश्ते की? हम लड़कीवाले हैं तो क्या हमारी कोई इज्जत नहीं? आप अपमान करते रहेंगे और हम चुपचाप सहते रहेंगे? हमें नहीं करना यह रिश्ता… भले ही हमारी अभागन बेटी कुँआरी रह जाए, पर आपके घर तो हर्गिज नही भेजेंगे उसे।”

चाची को उम्मीद थी कि इतनी बेइज्जती सह कर भला कौन लड़कावाला विवाह को राजी होगा? 

इस उम्मीद के विपरीत रोहन के पिता ने रूपा के चाचा के सामने हाथ जोड़ कर निवेदन किया, 

“मैं मानता हूँ कि मुझसे गलती हुई है, पर सच मानिए! आप सभी को अपमानित करने का कोई विचार मेरे मन में दूर-दूर तक नहीं था। मैं तो अपने बेटे के निश्चय को परखना चाहता था। मुझे लगा कि कहीं यह रोहन का क्षणिक आकर्षण तो नहीं है रूपा के प्रति! किंतु मुझे गर्व है अपने पुत्र पर कि वह इस परीक्षा में खरा उतरा। अब मैं पूरे मन से रूपा का हाथ माँगता हूँ आपसे। कृपया मना मत कीजिएगा!”

   रूपा के चाचा भला क्या कहते। उन्हें तो रूपा के इस सौभाग्य पर विश्वास ही नहीं हो पा रहा था। उनके देह का रोम-रोम रोहन और उसके पापा के प्रति कृतज्ञ था। 

  चाची ने एक बार पुनः नकारने की कोशिश की… 

“पर इस अभागन का दुर्भाग्य कहीं आपके परिवार पर भारी न पड़ जाए!”

“बहन जी! ईश्वर का खेल कौन समझ सका है? क्या पता इस घर से निकलना ही इस बच्ची का सौभाग्य बन  जाए!” रोहन के पिता ने सख्त लहजे में एक प्रकार से चेतावनी दे डाली। 

    अगले ही मुहूर्त में सौभाग्य की शहनाइयों से रूपा का घर गुंजायमान हो उठा। 

    — गीता चौबे गूँज

बेंगलूरु

VM

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