मीनाक्षी आज फिर अपने ससुराल की चौखट पर खड़ी थी, हाथों में पूजा की थाली और मन में असंख्य सवाल। वह हर सुबह की तरह भगवान से प्रार्थना करती—अपनी खुशियों और परिवार की सलामती के लिए। उसके जीवन में धन-दौलत, दिखावा और सबकुछ था, जो एक आदर्श गृहस्थी के लिए जरूरी समझा जाता है। परंतु अंदर ही अंदर, वह एक ऐसी लड़ाई लड़ रही थी, जिसका कोई अंत नज़र नहीं आ रहा था।
शादी के समय सबने मीनाक्षी को बधाइयाँ दी थीं ढेरों आशीर्वाद से उसकी झोली भर दी।
सौभाग्यवती रहने का आशीर्वाद ले वह अपनी नयी दुनिया की और चल दी थी।
उसकी माँ ने भी विदाई के समय कहा था, “हमेशा खुश रहना, बेटा। ससुराल में सबका ख्याल रखना।”
मीनाक्षी के ससुराल वाले भी उसे स्नेह दिखाते थे, और उसके पति, नितिन ने भी पहले कुछ समय तक उसे प्यार और सम्मान दिया। लेकिन समय के साथ, सब बदलने लगा।
धीरे-धीरे, मीनाक्षी के ऊपर जिम्मेदारियों का बोझ बढ़ता गया। नितिन का प्यार फीका पड़ने लगा, और ससुरालवालों का व्यवहार रूखा हो गया। अब उसे घर की लक्ष्मी कहकर सिर्फ कामों में उलझा दिया गया था।
मीनाक्षी को एक दिन उसके देवर के लिए खास खाना बनाना था, क्योंकि उसकी सगाई होने वाली थी। पूरे घर में चहल-पहल थी, और सासू माँ ने मीनाक्षी को हर छोटी-बड़ी जिम्मेदारी संभालने का आदेश दिया था।
उसे खुद को सजाने-संवारने का भी समय नहीं मिला।
जब मेहमान आए, तो सब मीनाक्षी की तारीफों के पुल बाँधने लगे कि वह घर को कितनी अच्छी तरह से संभाल रही है।
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लेकिन नितिन ने एक बार भी उसकी तरफ ध्यान नहीं दिया।
रात में जब मीनाक्षी ने नितिन से कहा, “क्या तुम्हें नहीं लगता कि मैंने आज बहुत मेहनत की?”
नितिन ने बेरुखी से जवाब दिया, “तुम्हारा काम ही तो यही है। इसमें तारीफ की क्या बात है?”
उसका दिल टूट गया। वो समझ गई कि नितिन और घरवालों के लिए उसकी मेहनत सिर्फ एक जिम्मेदारी बनकर रह गई थी।
मीनाक्षी का फैसला एक दिन, मीनाक्षी की तबीयत अचानक खराब हो गई। उसे तेज़ बुखार और कमजोरी महसूस हो रही थी।
उसने अपनी सास को बताया, लेकिन उन्होंने इसे हल्के में लिया और कहा, “तुम्हारी तबीयत तो ठीक ही है, बस थोड़ा आराम करो और काम पर लौटो। घर तो तुम्हें ही देखना है।”
मीनाक्षी ने किसी तरह दिन बिताया, लेकिन रात होते-होते उसकी हालत और बिगड़ गई।
जब उसने नितिन को अपनी हालत के बारे में बताया, तो उसने कहा, “डॉक्टर को दिखाओगी या खुद ठीक हो जाओगी?”
मीनाक्षी के लिए यह आखिरी झटका था।
उसकी देखभाल तो दूर, कोई उसके हालात को समझने के लिए भी तैयार नहीं था।
उसी रात, उसने खुद को शीशे में देखा।
उसकी आँखों में आंसू थे, लेकिन वह आंसू अब कमजोरी के नहीं, बल्कि बदलाव की उम्मीद के थे। उसने फैसला कर लिया कि वह अब और चुप नहीं रहेगी।
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अगली सुबह, मीनाक्षी ने पहली बार अपने मन की बात सामने रखी। उसने नितिन और सास-ससुर के सामने कहा, “मैं कोई मशीन नहीं हूँ जो सिर्फ काम करे और बदले में प्यार या देखभाल की उम्मीद भी न रखे। मुझे भी इंसान समझिए। अगर मेरी तबीयत ठीक नहीं है, तो मुझे सहारा चाहिए, न कि ताने। रोज़ सुबह आप दोनों मुझे सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद देते हैं, अब तो लगने लगा है की मेरी सौभाग्यवती कह कर आप समझते हैं की आप ने मेरे आज के लिए चार्जिंग कर दी हो जिस में अगले दिन सुबह फिर रिचार्ज करवाने आ जाती हूँ।”
उसके ससुर ने बीच में बात काटते हुए कहा, “तुम्हारा काम है घर को संभालना, यही तुम्हारी जिम्मेदारी है।”
मीनाक्षी ने दृढ़ता से कहा, “घर संभालना मेरी जिम्मेदारी है, लेकिन मेरा आत्म-सम्मान भी उतना ही जरूरी है। अगर आप सब मुझसे इतना ही चाहते हैं, तो मैं इस घर में रहने का फैसला एक बार और सोचूंगी।” नितिन के चेहरे पर आश्चर्य और गुस्सा दोनों थे। लेकिन मीनाक्षी के इस कड़े रुख ने उसे सोचने पर मजबूर कर दिया।
आखिरकार, नितिन ने उसकी बात समझी और माफी माँगी।
उस दिन के बाद, मीनाक्षी का जीवन बदल गया। उसने अपनी पहचान, अपने आत्म-सम्मान और खुशियों के लिए आवाज़ उठाई। नितिन ने भी उसकी महत्ता को समझा और दोनों ने मिलकर एक नए सिरे से जीवन की शुरुआत की।
अब मीनाक्षी को आशीर्वाद तो मिलता था, लेकिन उसके पीछे सच में खुशियाँ और संतुष्टि का चेहरा था।
दोस्तों, खुशियाँ केवल समाज के दिए आशीर्वादों से नहीं आतीं, बल्कि जब व्यक्ति खुद को सम्मान और प्यार के साथ जीना सीखता है, तभी जीवन का असली सौभाग्य प्राप्त होता है।
आपकी सखी
पूनम बगाई
#सौभायवती प्रतियोगिता के लिए कहानी