श्रीवास्तव जी और उनकी पत्नी सुमित्रा देवी दोनों अपने जीवन के साठ बसंत देख चुके थे। उनका एक बेटा, रवि, आईटी में काम करता था,
और उसकी पत्नी पूजा घर की बहू बनकर आई थी। सब कुछ ठीक था, लेकिन श्रीवास्तव जी के मन में एक बात हमेशा चलती रहती थी—
कि बहू तो किसी और की बेटी है, पर उनकी खुद की बेटी निशा की चिंता कौन करेगा? श्रीवास्तव जी का परिवार एक साधारण मध्यवर्गीय परिवार था।
निशा की शादी अच्छे घर में हुई थी, लेकिन ससुराल दूर थी, और वह साल में बस कुछ ही बार मायके आ पाती थी। जब भी निशा घर आती, श्रीवास्तव जी और सुमित्रा देवी
उसकी हर जरूरत का ध्यान रखते। वे उसे आराम करने देते, अच्छे से खाना खिलाते, और हमेशा पूछते कि वह खुश तो है ना। लेकिन जब निशा चली जाती,
तो श्रीवास्तव जी के मन में एक अजीब सी बेचैनी होती। उन्हें लगता कि उन्होंने अपनी बेटी की ठीक से देखभाल नहीं की। वह अक्सर सोचते,
“निशा ससुराल में कैसी होगी? वहां उसका ध्यान कौन रखेगा?” दूसरी ओर, पूजा भी एक बेटी थी, पर वह अब उनकी बहू बन चुकी थी।
सुमित्रा देवी और श्रीवास्तव जी दोनों पूजा को भी अपनी बेटी जैसा ही मानते थे, पर मन के किसी कोने में हमेशा यह बात चलती रहती थी
कि पूजा तो किसी और की बेटी है। श्रीवास्तव जी सोचते, “पूजा अपने मायके जाती होगी, तो उसके माता-पिता भी उसकी चिंता करते होंगे।
लेकिन क्या हम पूजा का ध्यान वैसा रख पाते हैं, जैसा हम निशा का रखते हैं?” एक दिन, श्रीवास्तव जी ने सुमित्रा देवी से इस बारे में चर्चा की।
सुमित्रा देवी ने कहा, “सुनो जी, बहू भी तो किसी की बेटी है। जैसे हम निशा की चिंता करते हैं, वैसे ही पूजा के माता-पिता भी उसकी चिंता करते होंगे।
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हम बहू को बेटी जैसा प्यार दें, यही हमारा कर्तव्य है। आखिरकार, जब बहू हमारे घर आई है, तो वह अब हमारी जिम्मेदारी है।” श्रीवास्तव जी चुप हो गए,
लेकिन उनके मन की उलझन बनी रही। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि किसकी चिंता ज्यादा करें—अपनी बेटी की या बहू की, जो अब उनकी ही बेटी जैसी हो गई थी।
कुछ समय बाद, पूजा ने एक दिन उनसे कहा, “पापा जी, मैं जानती हूं कि आप निशा दीदी की बहुत चिंता करते हैं, और यह बिल्कुल सही भी है।
आखिरकार, वो आपकी बेटी है। लेकिन आप ये भी जान लीजिए कि मैं यहां बहुत खुश हूं। आप और मम्मी ने मुझे हमेशा बेटी की तरह माना है।
मुझे किसी चीज़ की कमी महसूस नहीं होती।” उसके शब्दों ने श्रीवास्तव जी के दिल को छू लिया। उन्हें एहसास हुआ कि बेटी और बहू में कोई फर्क नहीं होना चाहिए।
दोनों ही घर की बेटियां हैं, और दोनों की चिंता करना उनका अधिकार और कर्तव्य दोनों है। अब श्रीवास्तव जी ने ठान लिया था कि वह निशा और पूजा दोनों का एक समान ख्याल रखेंगे
। उन्हें यह भी समझ में आ गया था कि बहू भी बेटी होती है, चाहे वह किसी और के घर से आई हो। कहानी का अंत इसी सोच के साथ हुआ कि ससुराल में आई बहू भी बेटी जैसी होती है,
और उसका ख्याल रखना उतना ही जरूरी है, जितना अपनी सगी बेटी का।
#ससुराल वाले अपनी बेटी की चिंता करेंगे या बहू की, बहू तो दूसरे की बेटी है।
Regards
Kunal Datt
9953742613