नया नया टीवी घर पर लगा था। पूरा मोहल्ला जमा था शुक्रवार की फ़िल्म देखने। एंटीना ठीक से सेट कर दिया गया था। शटर वाला टीवी बस एक बड़े घर में था, जहाँ कोई आता-जाता नहीं था। कर्नल साहब कड़क मिजाज़ के थे, लेकिन अब इला के घर भी आ चुका था। सब फ़िल्म में खोए थे और इला उस गोल से बेड की ख़ूबसूरती में, जिसके आसपास रेशमी पर्दे और जिस पर साटिन की बेड-शीट थी।
“मम्मी, यह वाला गोल बेड हम क्यों नहीं ले आते, कितना शानदार है।”
“हाँ ज़रूर। और रखेंगे कहाँ, तेरे सिर पर? घर में जगह है कहीं। ऊपर से जबरन के चोंचले और ख़र्च।” माँ ने उसे हल्की सी चपत लगाई।
पर इला के साथ यह लव एट फर्स्ट साइट वाला मुआमला था। वह अक्सर उस बेड पर किताबें पढ़ती, गाने सुनती ख़ुद की कल्पना करती थी।
जब भी किसी फिल्म या सीरियल में गोल बेड नज़र आता, उसके भाई-बहन उसे आवाज़ लगाकर बुला लेते, उसकी दीवानगी पर सब हँसते थे।
“भई हमारे घर में तो जगह है नहीं, तुझे दहेज में दे देंगे यह बिस्तर।” माँ भी उसको छेड़ती रहतीं।
कॉलेज में उसकी मुलाक़ात सुबीर से हुई थी। धीर-गम्भीर, आदर्शवादी, परोपकारी। जो देश-समाज के लिये कुछ करना चाहता था। और जैसा कि होता है, बड़ा दिल-जेब ख़ाली, यहाँ भी वही मामला था।
शादी की पहली ही रात स्टोर रूम नुमा कमरे में, हर तरह की सजावट से ख़ाली बेड देखकर उसके अंदर कुछ टूट सा गया था।
“सॉरी मेरी जान। ये हमारा स्टोर रूम है। हॉल में मेहमान सोए हैं, किचन में भी। थोड़ा एडजस्ट कर लो दो-तीन दिन। सब रस्में निपटते ही हम फिर से सिटी रवाना होंगे अपने घर में। ” सुबीर ने उसका हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा।
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अपने घर के नाम पर किराए का दो कमरों का दड़बा ही था, फोर्थ फ्लोर पर। उसके मम्मी-पापा ने चेक दिया था उन्हें, ज़रूरत के मुताबिक गृहस्थी का सामान लेने को। सुबीर ने मना कर दिया पर इला ने रख लिया था।
“कौनसा बेड लेने का बोल रहे थे तुम्हारे घरवाले, चलो ले आएं तुम्हारी पसन्द का।” सुबीर की बात सुनते ही वह चहक उठी।
ख़ुशी ख़ुशी शो रूम पहुंचकर उन्हें पता चला कि सर्कल बेड, बाक़ी बेड्स से चार गुना महँगा है। सुबीर के चेहरे पर एक साया सा आकर गुज़रा। फिर भी उसने कहा, “कोई बात नहीं, यही चाहिये तो ले लो।”
“अरे नहीं नहीं। वह तो बस बचपन का मज़ाक़ था। इतना ख़र्च क्यों करना है। अभी बहुत कुछ लेना बाक़ी है।”
इस तरह बेडबॉक्स लेकर वे वापिस आ गए।
“एक दिन बड़ा घर होगा, तब लेंगे। तब तक एडजस्ट कर लेंगे।” उसने मन में सोचा।
घर तो बड़ा नहीं हुआ, परिवार ज़रूर बड़ा हो गया। जुड़वां तनिष्क और तान्या ने उसकी फेमिली कम्प्लीट कर दी थी।
मायके आने पर भाई की शादी की तैयारियों में उसने देखा, भाई ने अपने रूम में सर्कल बेड लगवाया है। माँ उसे देखकर आँखें चुरा गईं।
“बहू की डिमांड थी। बुढ़ापा शांति से काटना है तो बहू से बनाकर रखना होगी।”
वह देर तक वहाँ बैठी बेडशीट पर हाथ फिराती सोचों में गुम रही। फिर शर्मिंदा होकर उठ खड़ी हुई और घर आ गई। न जाने क्यों आँखें भर भर आ रही थीं।
“क्या बात है, आज उदास लग रही हो।” सुबीर ने उसका माथा सहलाते हुए पूछा।
“आज सोनू वही सर्कल बेड लाया जो…..”
“उफ़्फ़ क्या पागलपन है। मुझसे ज़्यादा तो तुमको उस बेड से प्यार है। बकवास होते हैं सब स्प्रिंग मैट्रेस। रीढ़ का पॉश्चर ख़राब होता है। ज़मीन पर सोने से सही कुछ भी नहीं है। फालतू की जगह घेरने का क्या शौक़ है, समझ नहीं आता। उसी में प्राण अटके हैं तुम्हारे तो” उसे झिड़ककर सुबीर मुँह फेरकर सो चुका था।
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उनका बेड अब दोनों बच्चों के कमरे में लग चुका था। जगह की कमी के कारण अब वे ज़मीन पर गद्दा डालकर ही सोते थे।
टीवी में कहीं गोल बेड दिख जाने पर बच्चे एक्साइटमेंट में उसे आवाज़ लगाते तो वह झुंझला जाती थी। बच्चे कुछ टाइम शांत रहते, फिर वही। धीरे-धीरे वे बड़े हुए और समझदार भी। अब कहीं ज़िक्र नहीं छिड़ता था।
फिर एक दिन बच्चे कॉलेज की पढ़ाई के लिये बड़े शहर चले गए। उसका घोंसला ख़ाली हो गया। बच्चों का सामान जमाते इला की आँखों से बरसात जारी थी।
“लो अब बेड फिर तुम्हारा हुआ, बल्कि अब इसे डिस्पोज़ करके हम तुम्हारा वाला सर्कल बेड लाएंगे।” उसका मूड हल्का करने के लिये सुबीर ने उसे गले लगाते हुए कहा।
“पापा, किताबों और दूसरे सामान के लिये बीस हज़ार और चाहिए।” तभी बेटे का फोन आ गया।
“पापा दस हज़ार मुझे भी। और स्कूटी कब दिलाएंगे आप? मैं पब्लिक ट्रांसपोर्ट में धक्के नहीं खा सकती।” बेटी भी फोन पर शिकायतों का ढेर लगाए थी। और सुबीर ने चुपचाप अपनी सेविंग ट्रांसफर कर दी।
जॉब लगने के बाद तनिष्क मुम्बई में सेटल हो चुका था और तान्या दिल्ली में। दोनों बच्चे अपनी ज़िंदगी में ख़ुश थे और समाज सेवा भी कर रहे थे। प्यार, मेहनत और ईमानदारी से सींची अपनी फुलवारी को फलते देखकर सुबीर और इला भी ख़ुश थे।
आज इला ने बच्चों के व्हाट्सएप स्टेटस देखे तो चौंक गई। दोनों ने अपने लिये सर्कल बेड लिए थे, इला यह देखकर ख़ुश थी, उसका सपना उसके बच्चे जी रहे थे।
वह सुबीर को दिखाने भागी, पर बरसों पहले उसकी कही बात याद आ गई तो वहीं रुक गई।
“हैप्पी बर्थडे मम्मी।” तान्या और तनिष्क ने अचानक आकर उसे प्यारा सा सरप्राइज़ दिया था। जब आँखों से हाथ हटाया, उसके सामने आलीशान सर्कल बेड था।
उसे समझ ही नहीं आ रहा था, क्या कहे।
“ये पापा का गिफ्ट है। हमसे चूज़ करने के लिये कहा था। हमने कस्टमाइज़ बनवाया है बिल्कुल आपकी पसन्द का।” बच्चे ख़ुश थे और सुबीर शरमा रहा था।
“जन्मदिन मुबारक मेरी जान। सॉरी, पच्चीस साल लग गए तुम्हारा पसंदीदा तोहफ़ा लाने में।”
“शश्श…. दे दिया न, यह काफ़ी नहीं क्या।” इला ने रेशमी बेडशीट पर हाथ फिराते सुख से आँखें मूँद लीं।
अगले दिन बच्चों की रवानगी थी।
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“मम्मी बेसन के लड्डू ज़्यादा रखना, सबको बहुत पसन्द हैं आपके हाथ के।”
“मम्मी मुझे अचार भी ले जाना है।”
“अरे भाई नाश्ता कहाँ है।”
जब सब इकट्ठा हुए, देखा, इला किचन में नहीं है। तान्या ने रूम में जाकर देखा, इला सो रही है, चेहरे पर मुस्कुराहट और मासूमियत का अनोखा मेल था।
“मम्मी, मम्मी उठिये न प्लीज़…”
तान्या और तनिष्क उसे झिंझोड़ रहे थे और सुबीर की आँखें बरस रही थीं।
“सोने दो बेटे मम्मी को अब सुकून से। सच में इसी में प्राण अटके थे उसके….”
लेखिका : दीपाली जे वासवानी