और मितवा घर लौट आए। – भर्गानंद शर्मा  : Moral Stories in Hindi

घर बिल्कुल कच्चा था। सो प्रतिशत कच्चा। खुले आंगन के बीचों-बीच जामुन के पेड़ के नीचे बना मिट्टी का गोलकार चबूतरा। घर में रह रही थी, एक शानदार जोड़ी। दो शौक पाल रखे थे एक आपस में तथा दूसरा  सच्चे सुच्चे मोह का शौक। सुरतू और धन्नो मुंह अंधेरे उठकर नमक मिर्च वाले चार टिक्कड़ सेंकते,

साथ में अचार ,प्याज या गुड़ की रोडी़ पौणे में बांधकर सूर्य उदय  से पहले पथेर वाले टोऐ में उतर जाते। जवान थे, शरीर में जान थी। दूसरे  मजदूरों से ज्यादा ईंटें थाप लेते। सोते वक्त कहीं घर लौटते।

बसंत पैदा हुआ। घर में रौनक आ गई। कई दिन पथेर पर काम रुका रहा।मगर कब तक ।साथ ले जाना शुरु किया ।पथेर वाले टोऐ के पास घने शहतूत की टहनी पर लटकणा डाल कर सुला देते या  थापी गई ईंटों पाल (कतार) के साथ कपड़ा बिछाकर अपने पास लिटा लेती। बरहाल  संत बड़ा हो रहा था।

लाड प्यार साथ साथ चलते गए, साथ में बड़ी होती गई रीझ  भरी उमंगे। चौथे साल गुरी भी परिवार में शामिल हो गया। कबीलदारी और बड़ी हो गई।

लड़के जवान होने लगे तथा सुरतू-धन्नो ऊपर समय से पहले बुढ़ापा झांकने लगा। खुद चाहे भूखे सो जाते 

पर  बेटों के लालन पालन, पढ़ाई लिखाई में कोई तोट ना आने दी। अनथक होकर काम किया । मटमैले  आंगन में खेलते मोलते बच्चे जामुन के नीचे पल पढ़कर बड़े हो गए ।बड़ा  हाई स्कूल पास करके पहले नौकरी पर लग गया तथा छोटा कुछ वक्फे के बाद ।

बड़ी बहू आई । जैसे ‘कुड़ी की सलवार से ही पता चल जाता है कि यह दसवीं पास है।’ दो साल की टेलरिंग का डिप्लोमा लेकर आई थी। साथ में पैरों से चलने वाली मशीन भी लेकर आई थी। आते ही स्कूल में सिलाई टीचर लग गई। कुछ पहले से चौड़ थी, कुछ मास्टरानी हो जाने का अहंकार। बस लग गई 

‘इसने -पिसने’  करने । “कितनी गंदी जगह है……। कितनी फाउल स्मैल आती है इन लोगों से।” चौथे दिन शहर में मकान किराए पर लिया बसंत की बांह पकड़ी और ले गई ले उड़ी शहर की खुली हवा में। हाथ मलते रह गए सुरतू और धन्नो। ना कोई चाल कर सके ना कोई चाव भोग सके । 

छोटा गुरी व्याह लिया। लड़की मां-बाप की इकलौती संतान थी ।पहले यह बात खोली दी गई थी कि लड़का अपने ससुराल में घर जमाई बनकर रहेगा ।”शर्त मंजूर–” “हां मंजूर” लड़की बेहद सुंदर थी ।गुरी का लट्टू होना स्वभाविक था।

नई परी के उकसावे में आकर पाला बदलने में दो दिन भी ना लगाए । “कितने गंदे हैं तेरे मां-बाप …..। कैसी बदबू आती है इनके मेले कपड़ों से..। सचमुच मेरा तो जी कच्चा हो रहा है इस घर में  जल्दी कर ,निकल चलें इस जगह से..। मेरा तो सांस लेना भी दूभर हो रहा है ।” कुछ लड़की के मां-बाप की  मजबूरी थी लिहाजा वचनों का पक्का गुरी भी ससुराल चला गया। 

“अच्छा! जो प्रभु की मर्जी ।बच्चों को सुख होवे। खुश रहें, मौज करें ….।” जैसी सुक्खना मांगते हुए मन बरचा  लिया। जीने का रास्ता बनाने के लिए जिंदगी मुड़ उसी ठिकाने पर चढ़ चली। मन कठोर करके फिर से जोड़ी उसे कार पर आ डटी। वही कोल्हू के बैल, मुर्गा बोलते निकल जाना और सूरज  ढले मुढ़ना। मिट्टी  की घाणी से सांचे में  से निकालती  ईंटों की पाल तक जिंदगी सिमट गई ।

बच्चे साल छ: महीने बाद किसी तिथ-त्यौहार पर आते। बड़्ड-बड़ेरों की मिट्टी निकालते । कुछ फूल मिठाई चढ़ाते और चले जाते । पांच सात मिनट की मिलनी होती। बेचारे सुरतू -धन्नो का उदरेवां  और बढ़ जाता।

 उम्र का पहला आधा बीत जाने के बाद उम्र बढ़ती नहीं, घटने लगती  जाती है। ऊपर से अपनों  से बिछड़ जाने का दुख, बाल बच्चों में हंसने खेलने के चाव  से वंचित हो जाने दरेग  बंदे को समय से पहले बुढ़ापे की ओर खींच ले जाता है । अभागी  जोड़ी बेशक सिर्डी थी पर समय की मार का संताप तो झेल ही रही थी।

बसंत की बेटी ने बड़ी छलांग लगाई । पढ़ लिख कर बड़ा इम्तिहान पास किया ।अपने पैतृक जिले में सीधा डीसी की कुर्सी पर आ बैठी। अपने दादा के गांव गई। घर का पता लगाया  ,बंद दरवाजे की कुंडी खुद  खोली तथा बिना झिझक जामुन की ठंडी छांव के नीचे बने  कच्चे चबूतरे पर पथना मार कर बैठ गई। पिल्ले घड़े से मिट्टी का कमंडलु पानी का भरा और बेसब्री होकर इस तरह गट गट करके पीने लगी मानो जन्म जन्मांतर की प्यासी हो।

ड्राइवर तथा गनमैन सुरतु  को ढूंढते पथेरर वाली जगह पर पहुंचे। बंदूकधारी पुलिस आती देख सुरतू डर गया।

 “चलो! आपको डीसी साहिबा  ने बुलाया है,…..।” डरती दिप्ती जोड़ी जीप में बैठ गई । क्या देखते हैं, उनके घर के बाहर मेला लगा हुआ ! थानेदार , वी .डी ओ. , पंच- खड़पंच इत्यादि डी.सी सहिबा के आगे हाथ बांधे खड़े थे। ठीक उसी तरह सुरतू तथा धन्नों भी नत मस्तक होकर खड़े हो गए । 

चंएचल (डी.सी  का नाम) उठी तथा भागकर अपने दादा -दादी को एक साथ कलावे में भर लिया। बूढ़ा- बूढ़ी इस कोतुक  पर सचमुच हैरान -परेशान थे। प्यार में रूंधी चंचल की आवाज ने चुप्पीभंग की। “मैं.. चंचल हूं …चंचल… दादा जी ।आप की पौत्री… चंचल।” सुरतू छिटक कर 

एक तरफ हट गया पर धन्नो उसी तरह लिपटी रही।   “तू, ….पागल हो गई धन्नो ! कुड़ी पाहुनी आई है और हम ठहरे मैले कुचैले लोग । पिंडे से पसीने की बदबू मारती ।डी.सी साहिबा क्या सोचेगी …कि इसके बाबा और अम्मा कैसे हैं ..।” बोलकर सुरतू लड़की के बैठने की खातिर चारपाई  लेने को मुड़ा । 

“दादू …! आओ यहीं बैठते हैं… यह कच्चा चबूतरा मेरे लिए राजसिंहासन है। धन्य भाग्यवान है मेरे, आज मुद्दत  बाद मुझे अपनी जामुन की ठंडी छांव मिली , पिल्ले घड़े का शीतल जल मिला। इस राजद्वारे का प्यार ओड़ने को तो मैं तरस रही थी ।कच्ची दीवारों में से उठती हुई पांडू मिट्टी की सोंधी खुशबू, रुमकती, महकती पवन झोंकों से मेरा तन- मन नशई हो गया।

आपके पसीने से भीगे,मैले  बदन से उठ रही भाप किसी गुलाबी महक से कम नहीं। मैं जानती हूॅं  कि किरत के आंगन कसे पासा  मोड़ कर जाने वाले मेरे मां बाप भी आज वही रोटी खाते हैं । फर्क सिर्फ इतना है कि वह मेज कुर्सी पर बैठकर भोजन छकते हैं और मेरे दादा दादी इस कच्चे थडे़ पर रुखी- मिस्सी रोटीयां  खाते हैं।”

 थोड़ा दम लेकर चंचल आगे बोली, “मैं यह भी जानती हूं कि मुझे जो मिला है, वह सब का सब मेरे दादा -दादी की सच्ची किरत से लिपटे  अनंत मोह तथा आशीर्वाद का फल है।आप अच्छा पालन-पोषण ना करते तो मेरा बाबू कैसे अपने पैरों पर खड़ा होता..? मैं कैसे इस रुतवे को प्राप्त करती.. ? दादी जी ! मैं आपका अंश हूं, आपका लहू हूं ,

इसी कच्चे घर में मेरी दादी आई थी, घर बेशक कच्चा है पर आपका दीन पक्का है। मैं चाहती थी कि मुझे इस स्वर्ग मई घर की मीठी छांव  मिलती रहे ।आज से यही मेरी हवेली होगी, यही घर होगा ,इसीलिए मैंने सरकारी कागजों में अपना पक्का पता इसी मकान का दे दिया है। ड्यूटी के बाद मेरी रिहाइश यही होगी।”  ऐसा कहकर चंचल अपने डी.सी हो जाने की बढ़ाई को दरकिनार करते हुए फिर से अपना दादा दादी के गले लिपट कर रोने लगी। बहुत रोई.. ..। 

प्यार उबल रहा था। आंसुओं ने पूरे  विश्वास के साथ घर के अंदर एवं बाहर से तथा दादा- दादी जी के पसीने से तर-ब-तर जिस्म से उठती हुई ‘फाॅउल स्मैल्ल’ को धो डाला। मोह महक रहा था ,प्यार बांटा जा रहा था।सीने चहक रहे थे। दुख दर्द बांटे जा रहे थे।

खुशी के आलम में डूबे दादा दादी तथा चंचल को पता ही ना चला कि कब बसंत तथा सिमरन उनके संग आन मिले ।घर पुनः अपना घर बन गया। जहां कोई तेर-मेर में नहीं थी। सब अपने थे और सब कुछ अपना था।

                                  भर्गानंद शर्मा 

                                 लौंगोवाल,संगरुर (पंजाब)

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