सासू मां की तो कभी उनके जीते जी कदर ही नहीं की रम्या ने… ना कभी कोई रीति रिवाज जानना चाहा… ना कोई गांव घर,
नाते रिश्ते, ही निभाए… हमेशा यही कहती रही की… “मां हैं ना… वह कर ही रही हैं तो मुझे क्या…!”
पर सासू मां जल्द ही उसका साथ छोड़ कर चल बसीं… और पीछे छोड़ गईं अपने साथ जुड़े घर, परिवार,
नाते, रिश्ते की सारी जिम्मेदारियां… जो इकलौती बहू होने के कारण रम्या को निभाने थे…!
रम्या के बेटे का उपनयन संस्कार करना था… वह तो चाहती थी कि किसी तीर्थ स्थल में जाकर निबट ले…
पर पति को यह बात मंजूर नहीं थी… वह धूमधाम से अपने लोगों के बीच सब नियम… मंत्रों… विधियों के साथ बेटे का उपनयन संस्कार करना चाहते थे…!
सभी लोग गांव पहुंचे… जितना अपनी सास को उसने अपनी शादी के दस वर्षों में नहीं याद किया था…
उससे कहीं ज्यादा इन दस दिनों में कर लिया… पहले तो जब भी आती थी… पूरा घर तैयार साफ सुथरा… खाना पीना सब की व्यवस्था के साथ मिलता था…
हां आने के बाद उसे सजी सजाई रसोई संभालनी पड़ती थी… वह उसी में परेशान हो जाती थी… पर इस बार तो घर आंगन की साफ सफाई से लेकर…
रसोई के सारे सामानों की व्यवस्था करना… फिर सबको बुलाकर… उनका यथोचित सम्मान करना… सब उसे ही करना था…!
यह सब कुछ किसी बुरे सपने की तरह था…सारे रिश्तेदारों को न्यौता भेजा गया… रम्या को तो कुछ भी नहीं पता था…
उसने कभी कुछ जानने की कोशिश ही नहीं की थी… अब अपनी सासू मां की कमी का उसे गहरा एहसास हुआ…
सारे विधि विधान दूसरों से कितना भी पूछ पूछ कर करती… जब मौका पड़ता कोई ना कोई चूक हो ही जाती… लोग तो जो कहें सो कहें… सब मजाक उड़ाते ही थे…!
हर व्यवहार, नियम, रिश्ता सब निभाना उसके लिए खुद दिन में तारे देखने जैसा ही था… पर अब वह कर ही क्या सकती थी… किसी तरह रोते गाते उसने ये मुश्किल दिन निकाले…!
इसलिए कहते हैं कि समय का कोई भरोसा नहीं… कब क्या हो जाए… कौन रहे कौन छूट जाए… जिसकी जितनी अहमियत है…
जिसका जो स्थान है… चाहे वह बड़ा हो या छोटा… उसका सम्मान होना ही चाहिए… बाद में समय बीत जाने पर केवल अफसोस करने के सिवा कोई चारा नहीं रह जाता…!
स्वलिखित
रश्मि झा मिश्रा