अनुज और दयाल स्कूल से घर आ रहे थे। घर तक शार्ट कट के लिए मैदान पार करते समय एकाएक दयाल लड़खड़ा गया। अगर अनुज ने हाथ न पकड़ा होता तो दयाल मुँह के बल गिर जाता।
संभलकर वे जमीन की तरफ देखने लगे– जमीन पर एक डोरी पड़ी है। उसके दो छोरों पर छोटी-छोटी दो घंटियाँ बंधी हुई थीं, उन्हीं में पैर फंसने से दयाल लड़खड़ा गया था। अनुज ने डोरी में बंधी घंटियाँ उठाकर हिलाईं तो टन टन की आवाज आने लगी। शायद बच्चों का कोई खिलौना या मंजीरा जैसा कुछ। दोनों घंटियों को हिलाते और हँसते हुए घर आ गए।
दयाल बड़ा और अनुज छोटा है। दोनों खाना खाने के बाद अपने कमरे में बैठकर डोरी से बंधी घंटियों को टनटनाते हुए उछलने लगे। तभी उनका खेल रूक गया। देखा दरवाजे में खड़े बाबा घूर रहे थे।तभी बाबा ने पूछ लिया-“यह कहाँ से लाए?”
अनुज ने पूरी घटना बता दी |बाबा ने कमरे में आकर घंटियों वाली डोरी उठा ली और उसे टनटनाने लगे। अनुज और दयाल हैरानी से बाबा की ओर देख रहे थे। बाबा ने कहा—“मुझे गाँव की याद दिला दी तुमने। गाँव में दुधारू जानवरों के गले में इस तरह की घंटियाँ बांधकर छोड़ देते हैं।जब पशु सुबह चरने जाते हैं या शाम को थान पर लौटते हैं तो इन घंटियों की टन-टन पूरे गाँव में गूँजने लगती थी।‘’’
‘’क्या आपको कभी गाँव की याद आती है?” अनुज ने पूछा।
“याद आती है, बहुत याद आती है|’’-
“हम भी देखना चाहते हैं आपका गाँव।” अनुज और दयाल ने एक स्वर में कहा।तभी अनुज और दयाल के पापा रमेश दफ्तर से आ गए। रात को खाते समय बाबा ने रमेश को बच्चों की इच्छा बताई तो बच्चों की मम्मी सुजाता बोली—“गाँव देखने का तो मेरा भी मन है|’’
कार्यक्रम बन गया कि बच्चों की छुट्टियाँ गाँव में बिताई जायेंगी। गाँव में पुश्तैनी मकान था जो बंद पड़ा था। कभी-कभी साफ-सफाई करने के लिए बाबा वहाँ चले जाया करते थे। गाँव के लिए चलने से दो दिन पहले रमेश ने अपने दफ्तर के दो आदमियों को गाँव के मकान की सफाई करने भेज दिया। साथ ही कुछ जरूरी सामान भी था।
बाबा ने हँसकर कहा—“गाँव में भी शहर की तरह रहना चाहते हो। कुछ दिन तो गाँव वालों की तरह रह कर देखो।”
1
गाँव में बाबा के आने की खबर पहले से ही थी। कार गाँव के मकान के सामने जाकर रूकी। गाँव के बहुत सारे बच्चे आ इकट्ठे हुए थे। गाँव का घर बहुत बड़ा था। लम्बा-चौड़ा आँगन जो कच्चा था। वहाँ थे कई पौधे जो सूखे हुए थे। बच्चे आँगन में लगे हैंडपम्प से पानी लेकर सूखे पौधों पर डालने लगे। बाबा बोले—“मैं माली से नए पौधे लगाने को कह दूँगा।”
“वे फिर सूख जाएँगे।” रमेश बोले-“क्योंकि हम लोग तो यहाँ एक ही सप्ताह रुकने वाले हैं।”
“पापा, ऐसा कुछ कीजिए कि पौधे सूखने न पाएं।” बच्चे बोले।
आँगन के एक कोने में छप्पर के नीचे खुला चूल्हा था, जिस पर कालिख जमी थी। रमेश ने कहा—“बच्चो, तुम्हारी दादी वहीं बैठकर खाना बनाया करती थीं। आज उन्हीं की तरह तुम्हारी माँ भी खाना बना रही हैं।”
गाँव के कई लोगों ने बैठने सोने के लिए चारपाइयाँ भेज दी थीं। खुले आँगन में सब उन्हीं पर बैठे थे।
गाँव के लोग बाबा और रमेश से मिलने आ रहे थे। आखिर मेहमानों का आना बंद हुआ। अब सूरज ढल चला था-आँगन में दो पेड़ों पर परिन्दे घोंसलों में उतरने लगे थे।
बाबा ने कहा—“हमें अँधेरा होने से पहले भोजन कर लेना चाहिए, फिर मच्छर आ जाएँगे।”सब जमीन पर चटाई बिछाकर बैठ गए—फिर मिलकर भोजन किया। रात घिर आई, आकाश में तारे छिटक गए। बच्चे बड़े सब खुले आकाश के नीचे चारपाइयों पर जा लेटे। अजय और दयाल अपलक तारों भरे आकाश की ओर ताकते रह गए।
अनुज बोला—“इतने सारे तारे एक साथ मैंने इससे पहले कभी नहीं देखे।”अनुज और दयाल को कब नींद आ गई पता ही नहीं चला। सुबह एकाएक पंछियों की चूं-चिर्र से दोनेां भाइयों की नींद टूट गई। लगा जैसे सुबह-सुबह हर पंछी दूसरे से हालचाल पूछ रहा हो।
कुछ देर बाद पूरा परिवार गाँव की सैर पर निकल पड़ा। छोटे छोटे कच्चे मकान, संकरी गलियां, पर बस्ती से बाहर खुली हवा में दृष्य एकदम बदल गया। बाबा ने कहा—“बच्चो, तुमने देखा—गाँव में कमियाँ हैं तो उसकी अपनी विशेषताएँ भी हैं।‘
’“शहर में तो खेलने के लिए पार्क बहुत कम हैं।” अनुज बोला। “पर वहाँ बिजली, साफ पानी और अच्छी सड़कें हैं।”
“और रोजगार हैं।” रमेश ने कहा, “पढ़-लिखकर लोग शहर की तरफ इसीलिए जाते हैं कि वहाँ रोजगार मिलता है।”
“पर आप तो गाँव को एकदम भूल ही गए। बताइए तो कितने वर्ष पहले आए थे यहाँ?” दयाल ने पूछा तो रमेश मुसकरा उठे। बोले—“बच्चो, तुमने ठीक कहा, हम शहर में जाकर इतने उलझ जाते हैं, चकाचौंध में इतने खो जाते हैं कि गाँव की याद ही नहीं आती। “
2
घूमफिर कर वे गाँव के स्कूल के पास जा पहुँचे थे। स्कूल की इमारत कच्ची-पक्की थी और ऊपर छप्पर था। अंदर बच्चे टाट पट्टियों पर बैठे पढ़ रहे थे। अनुज ने देखा ब्लैकबोर्ड का काला रंग जगह-जगह से उड़ा हुआ था।घर लौटकर उसने बाबा से कहा—“बाबा, आपने देखा गाँव का स्कूल।”
“हाँ देखा, सुविधाएँ बहुत कम हैं। अध्यापक शहर में रहते हैं। वह रोज नहीं आते।”
“और छप्पर से बरसात का पानी कहाँ रूकता होगा।” दयाल बोला।‘’ स्कूल की इमारत टूटी फूटी है। अगर स्कूल यहाँ आ जाए तो…”
“मैं भी इस बारे में सोच रहा हूँ।” रमेश बोले। सुजाता ने भी समर्थन किया तो बाबा ने कहा—“तब तो बात बन गई। मैं मुखियाजी से बात करता हूँ।”
“तब तक मैं मास्टरजी को ड्राइवर के साथ शहर भेजकर ब्लैक बोर्ड तथा दूसरी जरूरी चीजें मंगवा देता हूँ। अगर स्कूल हमारे शहर जाने से पहले इस मकान में चलने लगे तो अच्छा रहेगा।” कहकर रमेश बाहर चले गए।
बाबा तुरंत मुखिया के पास चले गए। लौटे तो बहुत खुश थे। उन्होंने कहा—“बच्चों, तुम्हारी इच्छा पूरी हुई।
मुखियाजी को यह प्रस्ताव बहुत पसंद आया है। कमरों की दीवारों में मरम्मत की जरूरत है। उसके लिए मैं कुछ दिन यहीं रुक जाऊँगा। बाद में जब मरम्मत का काम पूरा हो जाएगा तो मैं फोन कर दूँगा। तुम लोग किसी छुट्टी के दिन यहाँ आ जाना।‘’
उसी शाम मास्टरजी शहर से ब्लैकबोर्ड व दूसरी जरूरी चीजें लेकर लौट आए। वह भी स्कूल के लिए नई जगह पाकर खुश थे। आखिर शहर लौटने का दिन आ गया। मुखिया सहित कई गाँव वाले मिलने आए। कार चलने लगी तो मुखिया ने बाबा से मजाक किया-“आपने यह तो बताया नहीं कि स्कूल के लिए किराया कितना देना होगा?”
बाबा हँसकर बोले—“पौधे सूखने न पाएँ और परिन्दे आँगन के पेड़ो पर अपने घोंसलों में बेखटके आते-जाते रहें। यही किराया होगा।”एक सम्मिलित ठहाका गूँज उठा। कार शहर की ओर चल दी। अनुज और दयाल मुड़-मुड़कर पीछे छूटते गाँव की ओर देख रहे थे, जो हरियाली में कहीं खो गया था। उन्होंने पूछा—“अब हम फिर कब आएँगे?”
“बहुत जल्दी।” बाबा ने कह दिया। शहर और गाँव के बीच टूटा संबंध फिर से जुड़ गया था।
(समाप्त )