वे दोनों फूलों के पौधे बेचते थे। एक का नाम था रामू और दूसरा था फूलसिंह। दोनों ठेलों में रखकर मोहल्ले में चक्कर लगाते थे। कभी-कभी तो वे साथ-साथ बस्ती में आ पहुँचते थे। तब दोनों में कहासुनी होने लगती थी। कहासुनी होने का कारण था-दोनों के पौधों की बिक्री का कम-ज्यादा होना।
वैसे फूलसिंह के नाम में फूल शामिल था पर फिर भी रामू उससे बिक्री में बाजी मार ले जाता था। फूलसिंह ने एक बार रामू से कह दिया था, “तुम मेरा पीछा क्यों करते हो? जहाँ मैं जाता हूँ, वहीं चले आते हो।”रामू बोला, “मैं तो अपने टाइम पर घर से निकलता हूँ । अब अगर बीच में कहीं मैं और तुम मिल जाएँ तो इसमें मेरा क्या कसूर है। ‘’
जब वे दोनों लड़ रहे थे तो वचनसिंह अपनी छाबड़ी लिए एक तरफ बैठा देख रहा थ। उसने कहा, “अरे तो लड़ते क्यों हो। तुम दोनों भले ही अलग हो पर फूल तो एक हैं। इस तरह सुबह-सुबह लड़ना ठीक नहीं होता।” दोनों ही बस्ती में फेरी लगाने के बाद वचनसिंह के पास बैठकर नाश्ता करते थे।
पर फूलसिंह शांत नहीं हुआ। अक्सर रामू के सारे पौधे फूलसिंह से पहले बिक जाते थे। फूलसिंह ने कई बार सोचा था कि आखिर इसकी वजह क्या है। उसने बहुत सोचा पर कारण समझ में नहीं आया।
आखिर एक सुबह उसने रामू से दो-दो हाथ करने की ठान ली। वह आगे था और रामू कुछ पीछे चल रहा था। मोड़ पर उसने अपना ठेला रामू के ठेले के सामने अड़ा दिया | रामू ने बगल से निकल जाना चाहा, पर संकरी गली में इतनी जगह ही नहीं थी कि दो ठेले अगल-बगल से निकल सकें। रामू ने कई बार कहा, “फूलसिंह, ठेला आगे पीछे कर लो,
ताकि मैं आगे चला जाऊँ।” पर फूलसिंह ने हठ ठान ली थी। “मैंने तय कर लिया है कि तेरा ठेला मेरे ठेले से आगे नहीं जाएगा।‘’
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वचनसिंह दोनों की बातें सुनकर मुसकरा रहा था। उसने रामू से कहा, “अरे क्यों झगड़ा बढ़ाते हो। अगर वह तुम्हें रास्ता नहीं देना चाहता तो न सही, कुछ देर इंतजार कर लो। फूलसिंह को अपना ठेला आगे ले जाने दो, बाद में चले जाना।”
रामू ने ठेला एक तरफ कर लिया और फूलसिंह से बोला, “जाओ, तुम्हीं अपने फूलों के आगे ले जाओ।‘फिर वचनसिंह के पास जा बैठा। इतनी देर में दो लोग आकर रामू के ठेले पर पौधे देखने लगे। फूलों के कई पौधे उन्हें पसंद आ गए। सौदा हो गया। उन लोगों ने घर का पता बता दिया। रामू से कहा, “पौधों के गमले हमारे घर छोड़ जाना।” उन्होंने रामू को एडवांस के रूप में कुछ पैसे दिए और चले गए।
फूलसिंह खड़ा-खड़ा यह देख रहा था। उसे गुस्सा आ गया। यह क्या! उसने रामू को अपने से आगे नहीं जाने दिया, पर फिर भी रामू ने कई पौधों का सौदा कर लिया।
रामू को बताए पते पर पौधे पहुँचाने थे। अब तो उसे फूलसिंह के ठेले के पास से निकलना ही था। उसने कहा, “फूलसिंह, ठेला हटा लो। मुझे आगे जाना है।”
“मैंने कहा न तू अपना ठेला मुझसे आगे नहीं ले जाएगा।”
“पर तुम न आगे जा रहे हो, न पीछे आ रहे हो। बस रास्ता रोके खड़े हो। अच्छा हटो मुझे निकलने दो।” कहकर रामू ने ठेला आगे बढ़ाया, उसने जैसे ही अपना ठेला निकालने की कोशिश की वैसे ही फूलसिंह ने अपने ठेले को आगे धकेला। उसका ठेला रामू के ठेले से जा टकराया। रामू का ठेला उलट गया। उस पर रखे पौधों के गमले सड़क पर गिर गए। कुछ तो गिरते ही टूट गए।
रामू सन्न रह गया। फूलसिंह के चेहरे पर शरारत की हँसी आ गई। वचनसिंह दौड़कर गया और गिरे हुए गमलों को उठाकर सड़क के किनारे रखने लगा।
मन ही मन खुश होता हुआ फूलसिंह आगे चला। उसे उम्मीद थी कि आज वह रामू से ज्यादा पौधे बेच लेगा। उसने मुसकराते हुए मुड़कर रामू की तरफ देखा, बस तभी एक गड़बड़ हो गई। उसने ध्यान न दिया कि सड़क पर एक गड्ढ़ा था। उसका पैर फंस गया और वह जमीन पर जा गिरा। पैर की ठोकर से उसका ठेला उलट गया
और रामू की तरह उसके पौधों के गमले भी सड़क पर जा गिरे। उसका माथा सड़क से टकरा गया। वह बेहोश हो गया। रामू और वचन ने दौड़कर फूलसिंह को उठाया, फिर उसे होश में लाने का उपाय करने लगे । वचन ने फूलसिंह के संभाला तब तक रामू ने औंधे पड़े ठेले को सीधा किया, फिर टूटे हुए गमले व पौधे उठाने लगा।
उसने साबुत गमले उठाये और वहीं रख दिए जहाँ वचन ने उसके गमले रखे थे। तब तक फूलसिंह को होश आ गया। उसने आँखें खोलीं तो वचन व रामू दोनों बोले, “क्यों फूल, अब कैसे हो?”
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फूलसिंह कुछ बोल न पाया। माथे पर मामूली चोट थी। इसी बीच रामू जाकर मोहल्ले में रहने वाले कंपाउंडर रमेश को बुला लाया। उन्होंने मरहम पट्टी कर दी। अब रामू और फूलसिंह के ठेले के पास-पास खड़े थे। उनके ठेलों में अब थोड़े से ही गमले दिखाई दे रहे थे, क्योंकि ज्यादातर गमले टूटे हुए थे।
वचन ने फूलसिंह से कहा, “भैया, बहुत कुशल हुई। तुम जिस तरह गिरे थे उसमें चोट ज्यादा भी आ सकती थी। चलो जो हुआ उसे भूल जाओ। दोनों अपने-अपने गमले छांट लो।” फूलसिंह ने देखा सामने कई साबुत गमले रखे थे। उनमें लगे फूल धीरे-धीरे हवा में हिल रहे थे। पर यह कैसे पता चले कि कौन सा गमला उसका था और कौन सा रामू का।
क्योंकि वचन ने दोनों के साबुत गमले पासपास रख दिए थे। वह देखता रहा, सोचता रहा, पर उसकी आँखें अपने फूलों को रामू के फूलों से अलग नहीं पहचान पाई। एक सी हरियाली, एक से फूल और गमले भी एक से। क्योंकि दोनों एक ही नर्सरी से पौधे लाया करते थे। उसके मुँह से निकला -फूल तो एक से हैं। कैसे पहचानूं कि कौन से मेरे हैं और कौन से रामू के।‘
वचन बोला, “पहले चाय पीकर कुछ खा लो। फिर घर जाकर आराम करो। आज का दिन अच्छा नहीं रहा।”
फूल सिंह ने रामू का हाथ पकड़ लिया। बोला, “कैसे कहूँ कि आज का दिन बुरा रहा। दिन तो अच्छा ही रहा है। जो टूट फूट होनी थी हो गई।” उसके मन का सारा गुस्सा निकल गया था।
उस दिन के बाद से रामू और फूलसिंह में कोई कहासुनी नहीं हुई। दोनों साथ-साथ ही बस्ती में पौधे बेचने आया करते थे। देखने वाले हैरान थे कि फूलसिंह और रामू की दुश्मनी दोस्ती में कैसे बदल गई। यह रहस्य पता था केवल वचनसिंह को, पर वह किसी को कुछ बताने वाला नहीं था।
(समाप्त )