…सुलोचना के ब्याहकर ससुराल चले जाने के पश्चात उसके मायके की स्थिति दयनीय हो गई। जहाँ अकेले दम पर वह पूरे घर का बागडोर सम्भाले रहती थी और बेफिक़्र होकर उसकी दोनों बहनें अपनी सहेलियों संग खेत-खलिहानों में घुमती फिरती। वहीं उसके ससुराल जाने के पश्चात अब दोनों बहनों के पांव में मानो बेड़ियां सी पड़ गई। मां श्यामा तो तड़के ही काम पर निकल जाती और घर के कामकाज के लिए दोनों बहनें फिर एक-दूसरे का मुंह देखती। उनके आलस की वजह से कई मर्तबा पिता मनोहर को भूखे पेट ही रहना पड़ता। पिता से नज़रें बचाकर वे दोनों चुपके निकल जाती और खेत-खलिहानों में मटकती फिरती। कई दफा तो गांव के कुछ लोगों ने भी उसे समझाने-बुझाने की कोशिश की। पर उल्टे उन्हे ही खरी-खोटी सुननी पड़ती, जिसके बाद सबने कुछ भी बोलना बंद कर दिया। हालांकि दबी ज़ुबान सभी यौवन की दहलीज पर क़दम रख चुकी दोनों बहनों की शिकायत करते। उधर श्यामा दिनरात खटती रहती ताकि घर का गुजारा चल सके और दोनों बेटियों के हाथ पीले करा सके।
श्यामा के हवेली छोड़ने के बाद से उसके ननदों-ननदोईयों का पूरी सम्पत्ति पर एकक्षत्र राज हो चुका था। वैसे तो उन सबने पिता राजवीर सिंह से उनके जीवनकाल में ही सबकुछ लिखवा लिया था। पर श्यामा के आते-जाते रहने से मन में हमेशा खटक लगा रहता कि किसी दिन वह उस जमीन-जायदाद, धन-सम्पत्ति में अपना हिस्सा न मांग बैठे। पर श्यामा ने जब खुद ही हवेली और उससे जुड़ी हरेक चीजों से अपना रिश्ता खत्म कर लिया तो ननद-ननदोईयों को जैसे बिन मांगे मुराद मिल गई। अब सभी इस अथाह सम्पत्ति के एकक्षत्र अधिकारी थे। पर इस बात से अनभिज्ञ कि अपना कियाधरा एक दिन सूद समेत वापस मिलता है।
हवेली में अपने साथ घटी घटना स्मरण होते ही श्यामा सिहर उठती और उस तरफ ताकने का भी उसका जी नहीं करता था। पति और बेटियों संग उसे यह अभावग्रस्त ज़िंदगी मंजूर थी, पर अपनी अस्मत का लूटना उसे कभी गंवारा न था। हालांकि मनोहर संग वह कभी भी अपने चरम को न पा सकी और काया की अग्नि में भीतर ही भीतर जलती रहती। पर कभी भी उसने अपने संस्कार के दहलीज को न लांघा और न ही किसी को दहलीज पार करके इस पार आने दिया।
उधर विवाहोपरांत भी दुर्भाग्य ने सुलोचना का साथ न छोड़ा। विनयधर के घरवाले इस रिश्ते के कतई पक्षधर न थे। पर वंश के इकलौते चिराग की हठधर्मिता के आगे उसके झुंकना ही पड़ा। ब्याहकर सुलोचना ने अपने ससुराल में क़दम रखा जहाँ पूरा घर मेहमानों से भरा पड़ा था। आरती की थाली लिए विनयधर की माँ नवदम्पत्ति के स्वागत के लिए द्वार पर आयी। तभी किसी बच्चे ने हाथ मारा और थाल विनयधर की मां के हाथ से छूटकर जमीन पर जा गिरा। बच्चे तो भगवान का रूप होते हैं सो उससे किसी ने कुछ न कहा पर सारा ठिकरा फुटा मनहूस सुलोचना पर। दबे ज़ुबान मेहमानों में नईनवेली दुल्हन के मनहूस होने की बात बलवने लगी।
“मां, आप दुसरी थाली तैयार करा लाएं! बच्चे के हाथ लगने से तो सब कुछ पवित्र हो जाता है, जिसे इश्वर भी हंसीखुशी स्वीकर कर लेते हैं फिर हम इंसानों की क्या मजाल! इश्वर ने हमदोनों को स्वीकर कर लिया।”- मां के मन की व्याकुलता शांत करते हुए विनयधर ने कहा। आरती की थाली दुबारा सजकर आयी। बुझे मन से विनयधर और नववधू की आरती उतारी गई। पर विनयधर के मातापिता चिंतित थे कि कहीं सुलोचना की मनहूसियत पूरे घर को अपने चपेट में न ले ले।
एक-दो दिनों में सभी आगंतुक अपने घर को वापस लौट गए। घर और परिवारजनों की सुख-शांति के लिए चिंतित विनयधर की मां ने हवन करवाया, ब्राहमण को बोलकर सुलोचना के लिए ताबीज बनवाया। विनयधर नास्तिक नहीं था। परंतू उसके लिए पूजा-पाठ का मूल ध्येय मन की शांति से अधिक कुछ भी न था। घर में क्लेश न फैले। इसलिए अपनी मां से तो कुछ न कहा। सुलोचना ने भी सास-ससुर की अवज्ञा करने की कोशिश नहीं की। इसिलिए मुस्कुराकर उसने अपने मनहूस होने का तमगा गले में लटका लिया।
“मैने मां से कुछ न कहा। पर तुम चाहो तो उसकी अनुपस्थिति में ये ताबीज़ उतार सकती हो! मुझे इन सब बातों में जरा भी यकीन नहीं।”- अपने कमरे में बिस्तर पर लेटे विनयधर ने सुलोचना के गले की ताबीज देखकर कहा।
“मैने ये ताबीज़ गले में इसलिए नहीं डाली कि इससे मनहूसियत का निवारण होगा। बल्कि ये मां का अटूट विश्वास है, जो सदा मेरी और मेरे इस परिवार की रक्षा करेगा। मां की अनुपस्थिति में इस ताबीज़ को तो उतार दुंगी। पर अपने अंतर्मन को क्या जवाब दुंगी, जिससे फिर शायद ही कभी मैं अपनी नज़रें मिला सकूं!” – सुलोचना ने कहा और ताबीज को माथे लगा लिया। उसकी बातें सुन विनयधर के चेहरा खिल उठा और खुद पर इतराता रहा क्योंकि सुलोचना से परिणयसूत्र में बंधकर उसने न केवल अपने लिए एक उपयुक्त वधू पायी थी, बल्कि उसमें परिवार को एकसूत्र में बांधकर रखने वाले आदर्श बहू होने के सारे गुण विद्यमान थे।
मायके से मिले संस्कार, कुशल व्यवहार एवम अथक प्रयासों से सुलोचना ने कुछ ही दिनों में अपने घर को मंदिर बना डाला, जहाँ उसके सास-ससूर सदैव ही इश्वर तूल्य थे। अपनी गृहरूपी सृष्टि को मनहूसियत रूपी दानव से बचाने के लिए सुलोचना हमेशा प्रयत्नशील रहती। कुछ दिन सबकुछ सुख-शांति से गुजरे। घर में धन-धान्य की बहूलता तो नहीं थी, पर इश्वर की इतनी अनुकम्पा थी कि कभी कोई भूखे पेट न सोया और न ही भिक्षाटन के लिए द्वार पर खड़ा कोई भिक्षू कभी खाली हाथ लौटा।
विनयधर के पिता बिरजू कपड़े के खुदरा विक्रेता थे और शहर की मंडी में उनकी दुकान थी। शिक्षा-दीक्षा के बाद से ही विनयधर ने अपने पिता के कामकाज में हाथ बटाना शुरु कर दिया था। मिलाजूला कर कारोबार संतोषजनक चल रहा था। बिरजू की उम्र अब ढलने लगी थी फिर सुपुत्र के हाथो में कारोबार भी उन्नति की राह पर था। फलत: अपना शेष जीवन उसने हरिस्मरण में व्यतीत करने का निश्चय किया। पर कहते हैं न कि कलपूर्जों की सलामती के लिए उनका चलते रहना आवश्यक होता है, फिर चाहे वह शरीर ही क्यूं न हो। कुछ ही दिनों में बिरजू की काया क्षीण पड़ने लगी। गृहपत्नी आभा ने दवा से लेकर दुआ सबकुछ करके देख लिया पर कोई लाभ न हुआ। सुलोचना समझती थी कि पिताजी की इस शारीरिक अवस्था का जिम्मेदार उनकी स्थुलता है। पति विनयधर से मिन्नतें कर ससुर को उसके साथ सुर्योदय ताजी हवा में टहलने के लिए गांव के खेत-खलिहानों में भेजने की आदत डलवायी, जिससे कुछ ही दिनों में सेहत में सुधार दिखने लगा। पर यह ज्यादा दिनों तक टिक न सका। एक सुबह बाप-बेटे सैर पर निकले। पर लौटकर अकेला विनयधर ही आया। भ्रमण के दौरान अचानक आए पक्षाघात से बिरजू की सांसे उखड़ गई और उसके प्राण-पखेरू परलोक को गमन कर गये।
पति को खोकर विधवा आभा निष्ठूर हो गई और उनकी आकस्मित मृत्यू के लिए बहू की मनहूसियत को जिम्मेदार ठहराना शुरु कर दिया। जी को पिघला देने वाले सास की ताने सुन सुलोचना के नेत्र हर वक़्त आद्र रहते। पर अपने प्राणनाथ के कानों तक इसकी जरा भी भनक न लगने दी।
कई मर्तबा सुलोचना को आभाश होता कि इस सांसारिक लोक में भेजने से पहले परमपिता परमेश्वर ने उसे मनहूसियत की कड़वी घूंट पीलायी होगी जो उसके निकटवर्ती लोगों के जीवन में कोलाहल बनकर उभरते थे। रही-सही कसर परिवार के भरण-पोषण के एकमात्र आधार के छीनने से पूरी हो गई। हुआ यूं कि जेठ की तपती दुपहरी में एकदिन विनयधर के कपड़े के दुकान में कहीं से आग पकड़ लिया और पूरा दुकान धू-धूकर जल उठा। उस वक़्त विनयधर दुकान पर न था। खबर पड़ते ही जबतक वह पहुंचा सबकुछ जलकर राख हो चुका था।
उदरपूर्ति का एकमात्र आधार छीनकर भी विनयधर अधीर न हुआ। पर मां आभा ने कलंक का एक बड़ा टीका सुलोचना के माथे जड़ दिया। किसी अनिष्ट की आशंका से अब टोले-महल्लेवाले भी उसके साये से भी दूर रहने लगे। पर विरलै हृदय वाली सुलोचना का मन जरा भी विचलित न हुआ। उसे चिंता थी तो इस बात की कि अग्निदेव के भेंट चढ़े अपने पति के व्यवसाय का फिर से कैसे श्रीगणेश किया जाए जिससे जिविकोपार्जन हो सके।…
क्रमश:…
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