विंडो सीट – 7 – अंजु गुप्ता ‘अक्षरा’ : Moral Stories in Hindi

घड़ी की टिक-टिक गूंज रही थी। समय आगे बढ़ रहा था, पर सुमन – समीर के मन में अतीत जैसे थम गया था—जहाँ डर, पछतावा और चुप्पी साथ-साथ सांस ले रहे थे।

उस रात, बरामदे में खड़ी सुमन ने देखा—समीर आसमान के एक तारे को देख रहा था।

क्या वह तारा सच में सिर्फ तारा था, या अतीत की कोई परछाईं? वह सोचने लगी —”अगर वह परछाईं एक दिन लौट आई तो…?”

———–अब आगे————-

सुमन की माँ कुछ दिन ठहरने के बाद अपने घर लौट गईं थीं। अब सुमन की तबियत में पहले की तुलना में साफ़ फर्क दिख रहा था—चेहरे की थकान कुछ कम हुई थी, आँखों के नीचे के घेरे हल्के पड़ गए थे, और रात की नींद भी थोड़ी गहरी होने लगी थी।

रवाना होने से पहले माँ ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा— “बेटा, अगर तू चाहे तो मेरे साथ चल चल। घर का माहौल बदलेगा, तेरा मन भी हल्का होगा। मैं देख रही हूँ, तू भीतर ही भीतर बहुत कुछ दबा रही है।”

सुमन ने एक हल्की मुस्कान के साथ उनकी ओर देखा— “माँ, आपका साथ मिला तो सच में अच्छा लगा। पर अभी समीर के ट्रांसफर ऑर्डर्स आने वाले हैं। ऐसे समय घर छोड़ दूँगी तो ठीक नहीं होगा। मुझे उसके साथ रहना चाहिए।”

वैसे भी इन दिनों, ऑफिस और घर के बीच, समीर भी कोशिश करता कि सुमन के पास ज्यादा समय बिता सके। एक शाम, दोनों बरामदे में बैठे थे। हल्की ठंडी हवा बह रही थी, किसी दूर पेड़ से कोयल की आवाज़ आ रही थी, और सामने रखी चाय की भाप हवा में घुलकर जैसे उनकी चुप्पियों को भी मुलायम बना रही थी।

समीर ने मुस्कुराते हुए कहा — “देखने में तो अब तुम्हारी सेहत में बड़ा फर्क लग रहा है।”

सुमन प्याला कसते हुए धीमे से मुस्कुराई, “हाँ, अब थोड़ा बेहतर हूँ… सच कहूँ तो मैं बीमार नहीं थी, बस कुछ डर गई थी। कई बार मन की बातें इतनी भारी हो जाती हैं कि शरीर भी उनका बोझ महसूस करने लगता है।”

वह एक पल को रुकी, मानो शब्द ढूँढ रही हो। उसकी आँखें चाय की भाप के पार कहीं दूर देखने लगीं।

समीर ने धीरे-धीरे उसका चेहरा पढ़ने की कोशिश की, फिर सीधे उसकी आँखों में झाँकते हुए पूछा— “तुम सुरभि की बात कर रही हो?”

सुमन ने चौंककर उसकी ओर देखा। उसका हाथ ज़रा-सा काँपा, प्याले की सतह पर चाय की हल्की-सी लहर उठी। होंठों पर मुस्कान अब फीकी पड़ चुकी थी। “समीर… मैं सुरभि की बात न भी करूँ, तब भी वो हमारे बीच कहीं न कहीं मौजूद रहती है। जैसे कोई परछाईं… जो चाहकर भी मिटती नहीं।” उसने सिर झुका लिया और फिर बोली ,  “सिर्फ सोच ही नहीं… कभी-कभी लगता है, जैसे तुम्हारा मन अब भी उसकी ओर खिंच जाता है।”

समीर ने गहरी साँस ली। उसके चेहरे पर जैसे वर्षों का बोझ उतरने लगा हो।

“सुमन, सच कहूँ तो… सुरभि की यादें मैंने लगभग भुला दी थीं। वो सब जैसे कहीं दूर अतीत में दबकर रह गया था। लेकिन उस दिन, अचानक उसके सामने आ जाने से सब पुराना याद आ गया। मैं खुद भी चौंक गया था—सोचा भी नहीं था कि इतना वक्त बीतने के बाद भी कोई चेहरा, कोई आवाज़, इतनी गहराई से दिल को हिला सकती है।”

सुमन चुपचाप चाय में चम्मच घुमाती रही।

“लेकिन अब…” समीर ने थोड़ी देर चुप रहकर आगे कहा, “वो सब यादें पहले जितनी अहमियत रखती थीं, अब उतनी नहीं रहीं। वक्त ने उनकी धार कुंद कर दी है। वैसे भी, ज़िन्दगी हमें आगे बढ़ना सिखाती है। सुरभि अब शायद जयपुर में रहती है… या किसी और शहर में, मुझे ठीक-ठीक नहीं पता ही नहीं और सच कहूँ तो, चाह भी नहीं है। क्योंकि जो रिश्ता अतीत का हिस्सा बन चुका है, उसे बार-बार छूने से बस पुराने घाव ताज़ा होते हैं।”

सुमन ने हिचकिचाते हुए पूछा —“क्या तुम्हें पता है कि वो कैसी है? वो खुश है ना?”

 “पता नहीं,” समीर ने फ़ीकी मुस्कान के साथ कहा, “हमारी कोई बातचीत नहीं हुई है—न फोन, न मैसेज। और सच मानों, मैंने कोशिश भी नहीं की।”

 समीर ने चाहे उसे सब बता दिया, बस एक बात वो फिर छुपा गया था कि कुछ समय पहले सुरभि का नाम उसके फोन पर नोटिफिकेशन में आया था। ऐसा नहीं कि वो कुछ छुपाना चाहता था, पर सच्चाई यह थी कि वह नहीं चाहता था कि सुमन फिर से बेचैन हो जाए।

 कुछ देर चुप्पी रही। फिर समीर ने बात बदलते हुए कहा —“अरे हाँ, आज ऑफिस से मेल आया है—मेरा ट्रांसफर दिल्ली हो गया है।”

 सुमन के चेहरे पर हल्की चमक आई। “सच? कब जाना है?”

 “अगले महीने,” समीर ने जवाब दिया, “वहाँ का माहौल अच्छा है और हमारे कुछ पुराने दोस्त भी वहीं हैं।”

 सुमन मुस्कुरा दी। “अच्छा है… शायद जगह बदलने से हम दोनों को अच्छा लगेगा।”

 खैर, ट्रांसफर की खबर के बाद घर में हलचल बढ़ गई थी। पुराने अखबारों में लिपटे शोपीस, बक्सों में रखी किताबें, और पूरे दिन पैकिंग टेप की खटखट… सब बदलाव की गवाही दे रहे थे।

 सुमन ने महसूस किया कि विदाई में हमेशा हल्का-सा खालीपन भी घुला होता है, जैसे घर की दीवारें भी सुन रही हों कि उनके लोग कहीं और जाने वाले हैं।

समीर ने उसी शाम आर्मी के अपने पुराने दोस्तों को फोन उठाकर उन्हें यह खबर दे दी थी —

“अरे भाई, सुन लो! आखिरकार मैं दिल्ली आ रहा हूँ। तो तैयार रहना… पुरानी महफ़िलें फिर से जमाने का वक्त आ गया है। वही ठहाके, वही शोर-गुल, वही आधी रात तक की कहानियाँ!”

फोन के दूसरी तरफ़ से भी शोर उठा—“वाह! ये हुई न बात… अबकी बार कोई बहाना मत करना, पूरा हफ़्ता बुक है तुम्हारे नाम।”

सबके बीच वही पुरानी मस्ती लौट आई थी। समीर के चेहरे पर अनायास मुस्कान खिल उठी। लंबे समय बाद उसे ऐसा लगा मानो ज़िन्दगी ने उसकी हथेली पर पुरानी रौनक फिर से रख दी हो।

दिल्ली पहुँचने पर, दिल्ली का शोर और भागदौड़ चाहे उन्हें घेर ही लेता, लेकिन आर्मी कैंट में कदम रखते ही लगा कि किसी स्वर्ग में पहुँच गए हैं।

दिल्ली कैंट के किर्बी प्लेस ऑफिसर्स क्वार्टर्स… जहाँ सुबह-सुबह बूटों की आहट और परेड ग्राउंड से आती बिगुल की आवाज़ माहौल को हमेशा जवान रखती थी। हवा में भी एक अलग-सी सख्ती और ताजगी थी—जैसे अनुशासन यहाँ पेड़ों के पत्तों तक में बसता हो।

सुमन ने बरामदे से दूर तक फैली सड़क देखी और मुस्कुरा दी। “यहाँ तो शाम को टहलने का मज़ा ही कुछ और होगा।”

समीर ने हँसते हुए कहा, “और सुबह पाँच बजे उठकर बिगुल सुनने का भी।”

शाम होते ही समीर के दोस्त मिलने आ पहुँचे थे —कुछ तो कॉलेज के समय के थे, और कुछ ट्रेनिंग अकादमी के साथी। चाय के साथ हँसी-मज़ाक, पुरानी शरारतों के किस्से, और बीच-बीच में “याद है वो दिन…” की आवाज़ें बरामदे में गूंजती रहीं।

सुमन चुपचाप सब देखती रही—इन दोस्तों के बीच समीर का चेहरा कुछ अलग ही चमक रहा था। उसकी आँखों में जो ताजगी और मुस्कान थी । यह वही चमक थी, जो सुमन को सबसे ज्यादा प्रिय लगती थी।

यह वही सुकून था, जो सिर्फ पुराने रिश्तों से मिलता है—जहाँ इंसान को अपनी बातों को तौलना नहीं पड़ता, न ही किसी भूमिका में ढलना पड़ता है। समीर जैसे इन दोस्तों के बीच फिर से अपने असली रूप में लौट आया था—बेफ़िक्र, निश्चिंत और पूरी तरह सहज। 

सुमन मन ही मन सोचती —“काश, समीर हमेशा ऐसा ही रहे… यही तो उसका असली रूप है, यही वो समीर है जिसे मैं शुरू से चाहती थी ।

अगले कुछ दिन सुमन ने कैंट के छोटे-छोटे रास्ते, फूलों से सजे गोलचक्कर, और पास के मार्केट की दुकानों में घूमते हुए बिताए। यहाँ का माहौल उसके मन पर धीरे-धीरे असर डाल रहा था—जैसे किसी ने पुराने दर्द पर मुलायम पट्टी बाँध दी हो।

एक रात, बालकनी में खड़े होकर सुमन ने समीर से कहा — “शहर बदलने से सच में कुछ बदल जाता है… सही कहा ना ।”

समीर उसकी ओर देखते हुए मुस्कुराया। परेड ग्राउंड से आती धीमी बिगुल की आवाज़ उनके दिलों में गूंज रही थी—एक नई सुबह की घोषणा करते हुए। दोनों के बीच वह पल जैसे किसी अनकहे वादे में बदल गया—बीते कल को यहीं छोड़कर, आने वाले कल में साथ चलने का।

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अंजु गुप्ता ‘अक्षरा’

क्रमशः

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