विंडो सीट भाग – 6 – अंजु गुप्ता ‘अक्षरा’ : Moral Stories in Hindi

सुमन के साथ उसका रिश्ता अब स्थिर था। लेकिन प्रेम? शायद वह कहीं पीछे, उसी विंडो सीट पर छूट गया था, जिधर से वह और सुरभि आखिरी बार गुज़रे थे। समीर ने अपनी जिंदगी को आगे बढ़ाना सीख लिया था — बाहरी दुनिया के लिए एक आदर्श पति और बेटा, लेकिन भीतर से… एक ऐसा यात्री था, जो अनजाने ही उस ठिकाने पर ठहर गया था, जहाँ उसका जाना कभी मक़सद ही नहीं था।

———–अब आगे————-

शादी के बाद सुमन ने अपने जान-पहचान और दूसरों की मदद करने का दायरा बढ़ा लिया था—कभी किसी ज़रूरतमंद के लिए चंदा जुटाना, तो कभी किसी की मदद करना, महीने में एक-दो बार अनाथालय और वृद्धाश्रम जाना, गरीब बच्चों को कपड़े, कॉपियाँ, पेंसिलें और मिठाई देना इत्यादि। इन सबकी वजह से उसकी बेहद सुंदर छवि बन चुकी थी।

पिछले कुछ वर्ष तो बेहद सकून से गुजरे थे, पर समीर से सुरभि की मुलाक़ात के बाद, एक अनकहा डर उसके मन में उतर आया था—”उसके खुद का बोला हुआ झूठ”। वैसे वह कोई बुरी लड़की नहीं थी, पर दिल के हाथों मजबूर होकर, वो सालों पहले महापाप कर चुकी थी। वो पाप जिसकी क़ीमत दो मासूम दिलों ने चुकाई थी।

“कहीं मेरे पिछले कर्म, मेरे भविष्य के आड़े तो नहीं आ जाएंगे?” वह सोचती।

लेकिन अगले ही पल खुद को समझाती—”नहीं… मुझे अपने डर को दिल में जगह नहीं देनी चाहिए। अगर अभी तक कुछ नहीं हुआ तो आगे भी कुछ नहीं होगा। भगवान मेरे अच्छे कर्मों के बदले में वो राज़, राज़ ही रहने देगा।”

वह अपनी ही सोच को ढाँढ़स देती, मगर भीतर का सच उसे कचोटता रहता।

और उसी के साथ एक और टीस उसके मन में गहरी जड़ें जमाए थी—माँ बनने की अधूरी चाह।

जब भी कोई पूछ बैठता— “सुमन, खुशखबरी कब सुना रही हो?”

तो वह होंठों पर एक हल्की मुस्कान ले आती, मानो सब कुछ सामान्य हो।

पर उस मुस्कान के पीछे जो दर्द छिपा था, वह किसी की नज़रों से नहीं गुजरता। उसके भीतर का खालीपन उस पल और भी गहरा हो जाता।

उसने और समीर ने डाक्टर को दिखाया भी था । पर रिपोर्ट्स पॉजिटिव न थी । डॉक्टर ने उसे ख़ुश रहने को कहा था । 

कभी सुमन सोचती— “शायद यही भगवान का न्याय है। मैंने झूठी प्रेग्नेंसी का बहाना बनाकर किसी की ज़िंदगी में दुःख घोल दिया था… तो भगवान ने मुझे वही दुःख लौटा दिया है। संतानहीनता ही मेरी सज़ा है।”

लेकिन अगले ही पल उसके मन में सवाल उठता— “पर ये कैसा न्याय है? गलती मेरी थी, सज़ा मुझे मिलनी चाहिए थी… पर समीर के हिस्से में ये खालीपन क्यों? वो तो मेरे ही झूठ का शिकार बना था।”

पर फिर सुमन को याद आता— “गलती सिर्फ़ मेरी ही कहाँ थी? समीर ने भी तो किसी और के दिल में जगह बनाई थी… और फिर उसी दिल को तोड़कर चला आया।” 

शायद इसी वजह से किस्मत ने दोनों को एक ही मोर्चे पर लाकर खड़ा कर दिया। संतान का सुख न पाना ही अब उनके हिस्से की साझा सज़ा थी। 

इधर, ट्रेन में सुरभि से हुई मुलाक़ात के बाद समीर का व्यवहार थोड़ा बदल गया था। उसकी चुप्पियाँ गहरी हो गईं थीं, निगाहें अक्सर कहीं खो जातीं। जैसे किसी पुराने ज़ख़्म का दर्द फिर से ताज़ा हो गया हो।

उनकी इस मुलाक़ात ने सुमन को भी असहज कर दिया था। वह अजीब-सी घबराहट में रहने लगी थी— छोटी-सी आवाज़ पर चौंक जाना, बेमक़सद कमरे में इधर-उधर टहलते रहना, या फिर देर रात तक बिस्तर पर जागते-जागते करवटें बदलना —ये सब समीर की नज़र से छुपा नहीं था।

एक दिन दोपहर में समीर ने देखा कि सुमन बरामदे की कुर्सी पर बैठी है। मौसम ठंडा था, फिर भी उसके माथे पर पसीने की बूंदें चमक रही थीं। वह बार-बार पसीना पोंछ रही थी, मानो भीतर का डर शरीर से बाहर छलक आया हो।

“सुमन, तुम्हें ठीक तो लग रहा है?” समीर ने चिंता से पूछा।

सुमन ने तुरंत सिर झुकाकर कहा— “हाँ… बस, थोड़ी थकान है।”

उसकी आवाज़ धीमी थी और नज़रें बार-बार बच रही थीं।

समीर ने उसे गौर से देखा — “थकान? या कुछ और?”

वह पास आया और सुमन का माथा छुआ—बुख़ार तो नहीं था।

कुछ पल सन्नाटा छाया रहा। सुमन ने होंठ भींच लिए, जैसे भीतर कुछ कहना चाहती हो पर शब्द गले में अटक गए हों। समीर की निगाहें सवाल कर रही थीं, मगर सुमन के चेहरे पर वही चिर-परिचित चुप्पी थी।

उस रात समीर भी करवटें बदलता रहा। नींद नहीं आई। उसने तय किया कि वह सुमन की मम्मी को बुला लेगा—शायद उनके आने से सुमन की हालत में कुछ सुधार हो। वैसे भी पिछले कुछ समय से वे उनसे मिलने नहीं आईं थीं। घर में चहल पहल का सुमन की सेहत पर बढ़िया प्रभाव पड़ेगा। दूसरे, वो बहुत अच्छे से जानता था कि सुमन अपनी मम्मी के बेहद नजदीक है, वे उसे अच्छे से संभाल लेंगी।

यह सोचकर अगली सुबह समीर ने चुपचाप सुमन की मम्मी को फोन मिलाया और सहज स्वर में कहा— “मम्मीजी, सुमन इन दिनों कुछ अकेलापन महसूस कर रही है। अगर आप कुछ दिनों के लिए यहाँ आ जाएँ तो उसे अच्छा लगेगा।”

उधर से तुरंत चिंता-भरी आवाज़ आई— “हाँ बेटा, मैं आ जाती हूँ। वैसे भी काफ़ी दिन हो गए उसे देखे हुए।”

उनकी हामी सुनकर समीर के चेहरे पर हल्की राहत उतर आई।

फोन रखते ही उसने लंबी साँस ली, मानो कोई बड़ा बोझ उतर गया हो। उसे लगा कि शायद माँ के आने से सुमन को सहारा मिलेगा और उसकी बेचैनी भी कम हो जाएगी।

सुमन की माँ के घर में आने के बाद घर का वातावरण बेहतर हो गया था ।

रसोई से अदरक और इलायची की खुशबू आती हुई बरामदे तक फैल रही थी। कामवाली काम कर रही थी और समीर ऑफिस जा चुका था।

सुमन बरामदे में बैठी थी,हाथ में चाय का प्याला था, भाप अब भी उठ रही थी, पर उसके होठों तक प्याला नहीं पहुँचा था। वो न जाने किन ख्यालों में गुम थी। माँ धीरे से उसके पास आकर बैठ गयीं । उनके कदमों की आहट ने सुमन को चौंका दिया। 

“बेटा, सब ठीक तो है न?” माँ ने धीमे, पर प्यार से पूछा।

सुमन ने पल भर को मुस्कुराने की कोशिश की, “हाँ माँ… सब ठीक है,” वह सामान्य दिखने की कोशिश कर रही थी।

माँ ने उसका हाथ पकड़ लिया। “बिटिया, मैं तेरी आँखें पढ़ सकती हूँ। तू जब भी भीतर से टूटती है न… ऐसे ही बाहर मुस्कराने लगती है।”

सुमन ने गहरी साँस ली, मानो शब्दों को बाहर लाने से पहले भीतर से तोल रही हो— “माँ, मैं जब दूसरों को देखती हूँ न… तो लगता है कि उनकी ज़िंदगी कितनी पूरी है। लेकिन मेरी ज़िंदगी… हमेशा जैसे किसी अधूरेपन में अटक गई हो”

माँ ने उसके हाथ को कसकर थाम लिया — “बेटा, अधूरापन तो हर किसी की ज़िंदगी में होता है। पर तू किस अधूरेपन की बात कर रही है?”

सुमन की आँखें भीग आईं। उसने नज़रें झुका लीं —“माँ, कभी-कभी लगता है… जो सबसे बड़ी खुशी एक औरत की होती है, वो मुझे क्यों नहीं मिली…”। तुम तो अच्छे से जानती हो कि डॉक्टर ने साफ़ कह दिया है—संभावना बेहद कम है। पर… पर मैं जानती हूँ, ये सिर्फ शरीर की कमी नहीं है, ये भगवान का न्याय है। शायद वर्षों पहले मैंने जो किया था… उसका यही परिणाम है।”

माँ ने हैरानी से कहा—”तुम अब भी उस पुराने किस्से को दिल से लगाए बैठी हो?”

फिर उसका हाथ थाम उससे बोली, “बेटा, मैंने भी उस वक़्त भी तुम्हारा साथ दिया था और आज भी तुम्हारे साथ हूँ । मुझे पता था, वक्त सब ठीक कर देगा… और हुआ भी यही। तुम्हारी शादी के बाद हमने उस किस्से को दफ़ना दिया था, फिर अब क्यों उसे कब्र से बाहर ला रही हो?”

सुमन चुप रही। माँ उसके मन थकान को पहचान चुकी थी। वे बोलीं—”जानती हो न, अगर गलती से भी किसी को सच्चाई पता चली, तो अंजाम क्या होगा? वो वक्त बीत चुका है। कई सालों से तुम दोनों खुश हो… फिर अतीत की परछाईं का पीछा क्यों कर रही हो?”

सुमन की आँखें भर आईं, “माँ… सुरभि एक बार फिर हमारे बीच आ गई है। समीर जब से उससे मिल कर वापिस आया है, उसे देखकर  लगता है, वक्त ने उसके घाव सिर्फ ढक दिए थे, भरे नहीं। लगता है उसे आज भी सुरभि का इंतज़ार है। “

फिर उसने माँ को समीर और सुरभि की हालिया मुलाक़ात और उसके बाद आए बदलाव के बारे में सब बता दिया।

माँ की गोद में सिर रखते हुए सुमन सिसकी —”माँ,  कुछ गलतियाँ ऐसी होती हैं, जिनका बोझ ज़िंदगी भर ढोना पड़ता है। मैंने… किसी का अमन छीना था… किसी का दिल दुखाया था, झूठ बोला था… और शायद उसी की सज़ा झेल रही हूँ ।”

बरामदे में हल्की हवा बह रही थी, नीम के पत्ते सरसराहट कर रहे थे। दोनों की चुप्पी और भारी हो गई थी। पर सुमन की माँ को उम्मीद थी कि मन का बोझ हल्का करने के बाद सुमन कुछ दिनों में संभल जाएगी। उन्हें समीर पर भी भरोसा था कि वह सुमन का साथ देगा—बस डर इस बात का था कि कभी झूठ उजागर न हो जाए।

घड़ी की टिक-टिक गूंज रही थी। समय आगे बढ़ रहा था, पर उन दोनों के मन में अतीत जैसे थम गया था—जहाँ डर, पछतावा और चुप्पी साथ-साथ सांस ले रहे थे।

उस रात, बरामदे में खड़ी सुमन ने देखा—समीर आसमान के एक तारे को देख रहा था।

क्या वह तारा सच में सिर्फ तारा था, या अतीत की कोई परछाईं? वह सोचने लगी —”अगर वह परछाईं एक दिन लौट आई तो…?”

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अंजु गुप्ता ‘अक्षरा’

क्रमशः 

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